50. पण्डित विश्वम्बर दत्त जी
(अगर हम किसी कार्य को करने वाले हैं तो हमें शगुन-अपशगुन और
दिन, वार या तिथी का ध्यान नहीं रखना चाहिए। यह कुछ भी नहीं होता केवल मन का भ्रम
ही है। एक बार किसी पण्डित ने बारात जाने से पूर्व महुर्त निकाला। बारात जो कि बस
में थी, वह पूरी की पूरी बारातियों की बस खाई में गिर गई और सब मर गए। अब आप बताईऐ
कि उस महुर्त का क्या हुआ ? जो होना है वो तो होकर ही रहेगा चाहे महुर्त निकालो या
ना निकालो।)
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के दरबार में एक विश्बम्बर दत्त
नामक पण्डित जी अपने पुत्र सहित कांशी नगर से पधारे। गुरू जी ने उन्हें एक विद्वान
जानकर आदर किया। पण्डित जी ने गुरू जी से निवेदन किया उन्हें अपने यहाँ कुछ दिन
शास्त्रों की कथा करने का अवसर प्रदान करें। गुरू जी ने तुलनात्मिक दृष्टि से कि
संगतों को ज्ञान मिले इस विचार से अनुमति प्रदान कर दी। पण्डित जी नित्य गरूड़ पुराण
की कथा करने लगे। संगत में से अधिकाँश जनसमूह प्रतिदिन गुरमति विचारधारा का ज्ञान
श्रवण करते थे उनको पण्डित जी द्वारा सुनाई जा रही कथा गुरूमति विरोधी और
अविज्ञानिक लगी। कई सिक्ख तो कथा के प्रसँगों पर अनेकों सँशय व्यक्त करते और कई
असमान्य सँदर्भों पर हंस देते। इस पर पण्डित जी खीज उठते किन्तु उनके पास सिक्खों
के तर्कों का कोई उचित उत्तर तो होता नही था बस वह केवल यह कहकर संगत को साँत्वना
देने का असफल प्रयास करते कि शास्त्रों की बातों पर शँका व्यक्त करना उचित नहीं इनको
सत्य-सत्य कहकर मान लेना चाहिए। पण्डित विश्वम्बर दत्त जी सिक्खों के विवेकपूर्ण
तर्कों के सामने टिक नहीं सके और परिहास का कारण बन गए। विवश होकर उन्होंने गरूड़
पुराण की कथा बीच में ही समाप्त कर दी और गुरू जी से निवेदन करने लगे कि मुझे आज्ञा
दें कि मैं अपने निवास स्थान कांशी से कुछ अन्य ग्रँथ मँगवा लूँ और उनकी कथा
प्रारम्भ करूँ जिससे यहाँ कि स्थानीय संगत सन्तुष्ट हो जाएगी। गुरू जी ने आज्ञा दे
दी। पण्डित जी ने अपने पुत्र पिताम्बर दत्त को कांशी भेजने के लिए तैयारी आरम्भ कर
दी। उसने गुरू जी से रास्ते के खर्च के लिए भारी राशि ली और शुभ मुहुर्त निकालकर सभी
प्रकार के पूजा-पाठ इत्यादि किए फिर वह अपने पुत्र को नगर के बाहर छोड़ने चले गए।
रास्ते में एक गधा रेंक पड़ा। पण्डित जी ने इस बात को अपशगुन मान लिया और बाप-बेटा
दोनों लौट आए। पण्डित जी का लड़का रास्ते में से ही लौट आया है यह जानकर गुरू जी ने
पण्डित से इसका कारण पूछा ? पण्डित जी ने बताया कि मैंने समस्त गृह-नक्षत्रों का
ध्यान रखकर शुभ मुहुर्त निकाला था किन्तु रास्ते में एक गधे के रेंकने से अपशगुन हो
गया अतः हम लौट आए। यह स्पष्टीकरण सुनकर संगत में हंसी फैल गई और मारे हंसी के
लोटपोट होने लगे।
इस पर गुरू जी ने पण्डित जी से पूछा कि एक गधे का रेंकना अधिक
महत्वपूर्ण और बलशाली है, तुम्हारे शुभ मुहुर्त के पूजा-पाठ से ? एक गधे का रेंकना
एक सहज क्रिया है क्या वह पाठ-पूजा की शक्ति को काट सकता है ? यदि तुम्हें अपने
पाठ-पूजा पर इतना भी भरोसा नहीं तो तुम्हारी सुनाई कथा पर किसी को क्या भरोसा
बन्धेगा। इस प्रश्न का उत्तर पण्डित जी के पास नहीं था वह अपना सा मुँह लेकर बैठ गए।
गुरू जी ने संगत को सम्बोधन किया और कहा कि श्री गुरू नानक देव साहिब जी का पँथ इन
निअर्थक कर्मकाण्डों से ऊपर उठकर है। आओ ! तुम्हें उसका एक व्यवहारिक रूप दिखाएँ।
उन्होंने तुरन्त एक सिक्ख को बुलाया और उसे आदेश दिया कि आप सँगलाद्वीप (श्रीलँका)
जाओ, वहाँ पर श्री गुरू नानक देव साहिब जी एक पुस्तक है। जो कि हमें बाबा बुडढा जी
ने बताई है कि वहाँ के स्थानीय बौद्ध भिक्षुओं के साथ गोष्टि के रूप में सँग्रह की
गई है। उसे ले आओ। सिक्ख ने तुरन्त गुरूदेव को कहा कि सत्य वचन, मैं अभी जाता हूँ
और वह शीश झुकाकर प्रस्थान करने लगे। किन्तु गुरू जी ने पूछा रास्ते के लिए कोई
खर्च इत्यादि की आवश्यकता हो तो बताओ। सिक्ख ने उत्तर दिया आपका आर्शीवाद साथ में
है। जहाँ भी मैं पहुँचुँगा वहाँ मुझे आपके सिक्ख हर प्रकार की सहायता करेंगे। आपके
शिक्ष्य समस्त भारत में फैल हुए हैं। गुरू ने उसे आशीष देकर विदा किया। गुरू जी का
विशेष दूत लगभग तीन माह में सँगलाद्वीप पहुँच गया। जब वहाँ के स्थानीय नरेश को
मालूम हुआ कि श्री गुरू नानक देव साहिब जी के उत्तराधिकारी श्री गुरू अरजन देव
साहिब जी ने श्री गुरू नानक देव साहिब जी के संबंध में लिखी गई पुस्तक मँगवाई है तो
उसने सिक्ख का हार्दिक स्वागत किया और अतिथि सत्कार में कोई कोर-कसर नहीं रहने दी।
सँगलाद्वीप के तत्कालीन शासक ने अपने सभी पुस्तकालयों में जाँच करवाई किन्तु श्री
गुरू नानक देव साहिब जी द्वारा की गई गोष्टि नहीं मिली वह कहीं गुम हो चुकी थी। अंत
में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा रचित एक पुस्तक सिक्ख को दे दी जिसका नाम प्राणसँगली था।
इस पुस्तक में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा प्राणायाम करने की विधि इत्यादि लिखी थी। वह
पुस्तक देकर नरेश ने सिक्ख को विदा किया और श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के नाम एक
पत्र दिया जिसमें उसने क्षमा याचना की थी कि वह आपकी धरोहर को सुरक्षित न रख सका
इसलिए उसे खेद है। सिक्ख वह पुस्तक लेकर लगभग छः माह में लौट आया। गुरू जी पण्डित
जी को यह समझाने का प्रयत्न कर रहे थे कि शगुन अपशुन कुछ नहीं होता। अगर दिल में
परमात्मा मा वास हो तो हर दिन एक समान हैं और किसी भी समय कोई भी शुभ कार्य बिना
मुहुर्त निकाले किया जा सकता है।