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47. पण्डित हरीराम तपस्वी

(पैसे का लालची आदमी कुछ भी अनापशनाप बकता है। वह पैसे के लिए महापुरूषों की निन्दा करने से भी नहीं हिचकता और एक दिन यही लालच उसे ले डूबता है और जग हँसाई का कारण भी बनता है।)

श्री गुरू अमरदास जी के लंगर की प्रसिद्धि चारों और फैल रही थी परन्तु कुछ कटटरपंथी लोग जो वर्ण आश्रम में विश्वास रखते थे, वे इस नई प्रथा के विपरीत दूषणबाजी करते रहते थे और गुट बनाकर बिना किसी आधार के काल्पनिक धर्मभ्रष्ट होने का भय उत्पन्न करते रहते थे। इन लोगों में से प्रमुख थे पण्डित हरी राम जी, लोग जिनको तपस्वी कहकर सम्बोधन करते थे। पण्डित हरीराम जी कुछ दिनों से गोइंदवाल नगर में निवास रखने लगे थे। यह महाशय पुरोहित का कार्य करते थे। इसलिए इनकी जीविका के साधन में, इनके लिए वर्ण आश्रम हितकर था। जाति बन्धन टूटने पर इनको पेट पर लात पड़ती दिखाई देती थी। अतः ये लोग नहीं चाहते थे कि लंगर की स्तुति में प्रचार हो। वास्तव में इनका धर्म–कर्म से कोई लेना देना नहीं था। ये तो चाहते थे कि समाज के विभाजन के बल पर इनकी रोजी–रोटी चलती रहे। यदि सभी एक हो गए और कोई ऊँच–नीच न रहा तो उनका क्या होगा ? फिर कौन उनको सम्मान देगा ? बस इसी चिन्ता में यह पण्डित हरी राम जी मनोकल्पित भ्रम उत्पन्न करके दूषित प्रचार करने में व्यस्त रहते थे। धीरे–धीरे पण्डित हरी राम की बातें गुरूदेव के कानों तक पहुँची। जब उनको मालूम हुआ कि कुछ स्थानीय लोगों को, जिनमें स्वर्गीय गोइन्दे के बेटे भी सम्मिलित हैं। लंगर के विरूद्ध भड़काया जा रहा है तो गुरू जी ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने पण्डित जी की गुटबन्दी तोड़ने के लिए एक विशेष आदेश जारी किया। जिसमें घोषण की गईः कि जो व्यक्ति लंगर में भोजन करेगा उसको दक्षिणा में एक रूपया (चांदी का सिक्का) भी दिया जायेगा। बस फिर क्या था लंगर के बाहर भारी भीड़ रहने लगी। नगर का कोई ऐसा व्यक्ति न रहा जिसने लंगर से भोजन ग्रहण न किया हो। इस प्रकार पण्डित हरी राम जी देखते ही रह गये और उनकी गुटबन्दी बिखर कर रह गई परन्तु अभी भी कुछ एक ऐसे व्यक्ति थे जो केवल एक रूपये में अपनी हठधर्मी नहीं त्यागना चाहते थे। गुरू जी ने अगले दिन दक्षिणा की राशि दुगनी कर दी। राशि के दुगने होने पर बाकी के लोग भी लंगर में से भोजन सेवन करने लगे। परन्तु अभी तपस्वी हरीराम लोक लज्जा के कारण अड़ा हुआ था। गुरू जी ने धन राशि फिर बढाकर पांच का सिक्का (मोहर) कर दी। इस पर चारों और से जनसमूह उमड़ पडा। अब हरी राम सोचने लगा कि मोहर किस प्रकार से प्राप्त की जाए। यदि मैं स्वयँ गुरू के लंगर में जाता हूं तो लोग मेरा परिहास करेंगे और मैं कहीं का नही रहूँगा। इसलिए मुझे युक्ति से काम लेना चाहिए।

इस पर उसने अपने लड़के को लंगर में भेजने का निश्चय किया परन्तु वह लंगर के पास पहुँचा तो लंगर का द्वार बन्द हो चुका था और बाहर प्रतिशा में बहुत भीड़ खड़ी थी। हरीराम ने चुपके से लंगर की पीछे की दीवार से लड़के को अपने कँधे पर चढ़ाकर अन्दर कूद जाने को कहा। लड़का केवल 8 वर्ष की आयु का था। इसलिए वह कूदने से भयभीत होने लगा परन्तु जल्दी में हरीराम ने उसे पीछे से घक्का दे दिया। वह नीचे गिरा और उसकी टाँग पर गहरी चोट आई। दर्द के कारण वह चिल्लाने लगा। सेवादारों ने उस से विस्तार से पूछताछ की। उत्तर में लड़के ने बताया कि मेरे पिता पण्डित हरीराम हैं और उन्होंने ही मुझे कँधे पर चढ़ाकर लंगर में कूदने के लिए बाध्य किया था क्योंकि दीवार ऊँची होने के कारण मैं कूद नहीं पा रहा था। अतः उन्होंने मुझे धक्का दे दिया है। जिससे मुझे चोट आई है। वह चाहते थे कि मैं भोजन करने के उपरान्त मोहर प्राप्त करूँ। यह घटना हास्यापद थी क्योंकि पण्डित हरीराम तपस्वी स्थान–स्थान पर गुरू के लंगर की आलोचना किया करते थे। लड़के को सेवादारों ने भोजन भी करवाया और एक मोहर भी दी परन्तु जनसाधारण में पण्डित के विषय में चर्चा होने लगी कि वास्तव में पण्डित ढोंगी है, वह रूपया प्राप्ति के चक्कर में कुछ भी कर सकता है। जब इस घटना का विवरण गुरू जी को दिया गया तो उन्होंने अपनी बाणी में पण्डित हरीराम की मनोवृति को इस प्रकार से उच्चारण कियाः

तपा न होवै अंद्रहु लोभी नित माइआ नो फिरै जजमालिआ ॥
अगो दे सदिआ सतै दी भिखिआ लए नाही,
पिछो दे पछुताइ कै आणि तपै पुतु विचि बहालिआ ॥
पंच लोग सभि हसण लगे तपा लोभि लहरि है गालिआ ॥
जिथै थोड़ा धनु वेखै तिथै तपा भिटै नाही,
धनि बहुतै डिठै तपै धरमु हारिआ ॥
भाई एहु तपा न होवी बगुला है बहि साध जना वीचारिआ ॥
सत पुरख की तपा निंदा करै संसारै की उसतती विचि होवै,
एतु दोखै तपा दयि मारिआ ॥
महा पुरखां की निंदा का वेखु जि तपे नो फलु लगा,
सभु गइआ तपे का घालिआ ॥
बाहरि बहै पंचा विचि तपा सदाए ॥
अंदरि बहै तपा पाप कमाए ॥
हरि अंदरला पापु पंचा नो उघा करि वेखालिआ ॥
धरम राइ जमकंकरा नो आखि छडिआ,
एसु तपे नो तिथै खड़ि पाइहु जिथै महा महां हतिआरिआ ॥
फिरि एसु तपे दै मुहि कोई लगहु नाही एहु सतिगुरि है फिटकारिआ ॥
हरि कै दरि वरतिआ सु नानकि आखि सुणाइआ ॥
सो बूझै जु दयि सवारिआ ॥१॥ अंग 315

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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