45. शनि देवता का खण्डन
(देवी देवताओं और शनि आदि की पूजा करने से कभी भी उद्धार नहीं
हो सकता। केवल समय पैसा और जीवन ही बर्बाद होता है। जबकि परमात्मा का नाम जपने से
सब कुछ प्राप्त होता है।)
श्री गुरू नानक देव जी आँध्रप्रदेश के कुड़प्पा नगर में पहुँचे।
वहाँ के लोग शनि देवता की पूजा करते हुए उससे अपने लिए दरिद्रता हरने की कामना करते
थे। उनका विश्वास था कि उनकी गरीबी शनि देवता अपने ऊपर ले लेगा तथा उनको धनी होने
का वरदान देगा। उस के लिए किंवदन्तियाँ भी प्रचलित थी कि शनि स्वयँ पुरषार्थी नहीं
था। अतः वह आलस्य पूर्ण जीवन जीने का आदी था। जिसके कारण उसका जीवन दरिद्रता पूर्ण
तथा कुचील, गँदा बना रहता था और वह धन अर्जित करने की क्षमता नहीं रखता था। अतः उस
की भाभियों ने उसे दुत्कार कर जीने मात्र के लिए निम्न क्षेणी के वस्त्र, बर्तन
भोजन तथा निवास आदि दे दिया था जिससे उसका गुजर बसर हो जाए। इस प्रकार वह दया का
पात्र बनकर सदैव ग्लानि भरा जीवन जीता रहा, किन्तु उसके मरने के पश्चात् समाज ने उसे
दरिद्रता का देवता स्वीकार कर लिया। जिसके अनुसार लोग उसकी पूजा करके प्रार्थना करते
हैं, कि हे ! शनि, दरिद्रता के देवता, हमारी दरिद्रता तू हर ले। अतः हम सम्पन,
समृद्ध हो सकें। गुरुदेव ने उनके इस भोलेपन पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जो व्यक्ति
स्वयँ दूसरों की दया पर दरिद्रता का जीवन जीता रहा, वह अपने भक्तों की मरणोपरान्त
किस प्रकार सहायता कर सकता है ? तथा कहा कि सर्वशक्तिमान प्रभु के रहते, लोगों को
एक तुच्छ प्राणी के आगे भिक्षा के लिए हाथ नहीं पसारने चाहिए। जबकि सब जानते हैं कि
वह स्वयँ बहुत कठिनता से जीवन व्यापन करता रहा। इससे कुछ प्राप्ति होने वाली नहीं
बल्कि अपना समय तथा शक्ति व्यर्थ नष्ट कर रहे हो। गुरुदेव ने उन्हें प्रकृति के
नियमों से अवगत कराते हुए कहा कि सर्वमान्य सत्य सिद्धाँत यह है कि जो जिस इष्ट की
आराधना करेगा, वह उसी जैसा ही हो जाएगा अर्थात साधक को वही स्वरूप तथा वही स्वभाव,
आदतें मिलेंगी जो उसके इष्ट की होंगी। तात्पर्य यह कि आप शनि के जीवन तथा उसके
चरित्र को तो जानते ही हैं। बस आप समझ लें कि उसकी आराधना करने वाला वैसा ही दरिद्री,
कुचैल तथा आलसी हो जाएगा