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44. भाई मरदाना जी और कंदमूल

(लालच का फल हमेशा ही कड़वा ही निकलता है। जिसने लालच किया वह इस प्रकार से फँसा, जिस प्रकार से गुड़ के लालच में मक्खी गुड़ से चिपककर रह जाती है।)

श्री गुरू नानक देव जी अजमेर से चितौड़गढ प्रस्थान कर रहे थे तो रास्ते मे विशाल वीराने रेगिस्तान से गुजरना पड़ा। वहाँ जनजीवन नाममात्र को भी न था। अतः चलते-चलते भाई मरदाना को भूख-प्यास सताने लगी। उन्होंने गुरुदेव जी से अनुरोध किया– उससे अब चला नहीं जाता, कृपया पहले उसकी भूख-प्यास मिटाने का प्रबन्ध करें। गुरुदेव ने उनको साँत्वना दी और कहा– ध्यान से देखें कहीं न कहीं बनस्पति दिखाई देगी, बस वहीं पानी मिलने की सम्भावना है। भाई मरदाना जी को कुछ दूरी चलने के पश्चात् आक के पौधे उगे हुए दिखाई दिये। गुरु जी ने उन्हें कहा– इन पौधों के नीचे ढूँढने पर एक विशेष प्रकार का फल प्राप्त होगा जो कि तरबूज की तरह पानी से भरा होता है। उसके पानी को पीकर प्यास बूझा लो तथा यहीं कहीं भूमिगत कँदमूल फल भी प्राप्त होगा जिसे अवश्यकता अनुसार सेवन करके भूख से तृप्ति प्राप्त कर सकते हो। भाई मरदाना ने ऐसा ही किया उन्हें यह दोनों प्रकार के फल मिल गए। किन्तु कँदमूल फल का कुछ भाग बचने पर पल्लू में बान्ध लिया। जब चलते-चलते उन्हें पुनः भूख अनुभव हुई तो उस फल को वह दोवारा सेवन करने लगे। परन्तु हुआ क्या ? अब तो वह कँदमूल फल बहुत कड़वा हो गया था। गुरु जी ने तब कहा– इस प्रकृति का कुछ ऐसा नियम है कि यह फल ताजा ही प्रयोग में लाया जा सकता है। काटकर रखने पर इसमें रसायनिक क्रिया होने के कारण कड़वापन आ जाता है अर्थात त्यागी पुरुषों को सन्तोष करना चाहिए। जिसने आज दिया है वह कल भी देगा। यह बात ध्यान में रखकर वस्तुओं का भोग करना चाहिए। अतः साथ में बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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