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39. सिक्खों की बन्दूक से परीक्षा

(एक सिक्ख को हमेशा परीक्षा के लिए हर समय तैयार रहना चाहिए, क्योंकि गुरू कभी भी किसी भी तरीके से परीक्षा ले सकते हैं। एक बार की बात है एक सिक्ख रात के 11 बजे किसी चौराहे पर किसी वाहन का इन्तजार कर रहा था। वहीं से 40 या 50 कदम की दूरी पर दो महिलाऐं और उनसे साथ 2 जवान लड़कियाँ भी थी। चौराहा पूरी तरह से सुनसान था, क्योंकि शायद सर्दी का समय था। सामने सड़क पार की तरफ कुछ लड़के थे जो कि उन महिलाओं और लड़कियों को खा जाने वाली नजरों से देख रहे थे। वह कमेन्ट भी पास कर रहे थे। उन महिलाओं और लड़कियों ने जब देखा कि एक सिक्ख खड़ा है तो वह उसके पास आकर खड़ी हो गईं। उस सिक्ख को स्थिति का जायजा लेते देर नहीं लगी, उसने अमृतपान किया हुआ था। उसने अपनी कटार बाहर निकालकर हाथ में पकड़ ली। उन लड़कों की कमेन्ट करने और इधर देखने की हिम्मत भी नहीं हुई। और फिर काफी देर के बाद एक ऑटो रिक्शा आया तो उस सिक्ख ने उन महिलाओं और लड़कियों को उस ऑटों में बिठा दिया। इसलिए तो कहते हैं कि गुरू के सिक्ख बनो और अमृतपान करो।) श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी जब साबो की तलवँडी, जिला बठिण्डा पहुँचे तो वहाँ का जागीरदार डल्ला, गुरू जी का बहुत बड़ा श्रद्धालू था। इसलिए उसने गुरू जी को अपने यहाँ ठहराया। कई असफलताओं के कारण मुगल सेना ने गुरू जी का पीछा करना छोड़ दिया था। अब राजा डल्ला ने गुरू जी को उनके साहिबजादों के युद्ध में शहीद होने पर शोक व्यक्त किया और कहा कि यदि आपने मुझे याद किया होता तो मैं अपनी सेना सहित पहुँच जाता तो शायद साहिबजादे शहीद न होते। गुरू जी के साथ बात करते हुए वह अपनी सेना के जवानों की बहुत ज्यादा प्रशँसा बार-बार कर रहा था तो गुरू जी ने कहा कि अच्छा डल्ला फिर कभी हम तुम्हारे जवानों और तुम्हारी परीक्षा लेंगे। तभी गुरू जी का एक शिष्य जो कहीं बहुत दूर से गुरू जी के दर्शनों के लिए आया था, ने एक सुन्दर बन्दूक गुरू जी को भेंट की। उस बन्दूक को देखकर गुरू जी बहुत प्रसन्न हुए तथा कहने लगे कि उस बन्दूक के निशाने की परीक्षा करनी है तथा उसकी घातक शक्ति को भी जाँचना है।

अच्छा तो डल्ला आप अपने एक नौजवान को भेजो– जिस पर वह निशाना लगाकर उस बन्दूक की शक्ति देख सकें कि यह कितनी घातक है। अब डल्ला इन्कार नहीं कर सका। वह अपने सैनिकों के पास पहुँचा।
और सभी सैनिकों को गुरू जी का हुक्म सुनाया– कि उनको एक बन्दूक की घातकता की परीक्षा के लिए एक जवान की जरूरत है। है कोई एक जो अपने आपको उस काम के लिए प्रस्तुत करे ? इस पर सभी सैनिकों का दो टूक उत्तर था– किसी युद्धक्षेत्र में तो दो-दो हाथ दिखायेंगे, परन्तु अनचाही मौत बिना लड़े-मरे वे गोली का निशाना नहीं बनना चाहते। इस पर डल्ला निराश होकर लौट आया। यह देखकर गुरू जी कहने लगे– अच्छा डल्ला तेरा कोई सैनिक तेरी बात नहीं मानता तो ठीक है तुम स्वयँ ही हमारी बन्दूक के परीक्षण के लिए अपने आपको प्रस्तुत कर दो। परन्तु यह सुनकर डल्ला घबरा गया तथा कहने लगा– साहिब ! मैं कैसे मर जाऊँ ? मेरे पीछे राजपाट का क्या होगा ? अभी तो मैंने दुनियां में देखा ही क्या है ? यह सुनकर गुरू जी ने कहा– अच्छा डल्ला तुम ऐसा करो हमारे डेरे पर चले जाओ, देखो वहाँ पर मेरे शिष्य होंगे। उनको बताओ कि गुरू जी ने बन्दूक की परीक्षा करनी है। इसलिए उसका निशाना बनने के लिए केवल एक शिष्य की आवश्यकता है। डल्ला हुक्म मानकर गुरू जी के लँगर की तरफ चला गया। वहाँ पर गुरू जी के दो सिक्ख लँगर की सेवा कर रहे थे जो आपस में बाप-बेटा थे। तभी भाई डल्ला ने उनको गुरू जी का हुक्म सुनाया– यह सुनते ही बाप-बेटा दोनों भागकर गुरू जी के पास पहुँच गये। उस समय पिता के हाथ आटे से सने थे तथा पुत्र पगड़ी लपेटते हुए आया था। पुत्र युवावस्था में था सो भागकर जल्दी पहुँच गया। परन्तु पिता गुरू जी से कहने लगा– कि, हे गुरू जी ! मैने आपका हुक्म पहले सुना है तथा इसे बाद में मैंने बताया है। इसलिए मेरा हक है कि आप मुझे ही निशाना बनायें। परन्तु पुत्र का तर्क था कि वह उनके पास पहले पहुँचा है इसलिए उसे निशाना बनाया जाए। इस पर गुरू जी कहने लगे– दोनों एक कतार बाँधकर खड़े हो जाओ। इस पर पुत्र आगे तथा पीछे पिता खड़े हो गया। परन्तु पिता का कद छोटा था। इसलिए उसने अपने पाँव के नीचे ईंटे रख ली। तभी गुरू जी ने बन्दूक की नाली थोड़ी सी दूसरी तरफ करी दी। वे दोनों भागकर फिर नली की सीध में खड़े हो गये। तभी गुरू जी ने नाली का मुँह फिर घुमा दिया। यह देखकर वे लोग फिर नली की सीध में आ गये। गुरू जी इसी प्रकार बार-बार नली का मुँह घुमा देते थे तो वे लोग भागकर फिर से बन्दूक की नली की सीध में खड़े होने का प्रयत्न करते। अन्त में गुरू जी ने हवा में गोली चला दी तथा कहा– देख भाई डल्ले ये मेरे सिक्ख (शिष्य) ही मेरे सैनिक हैं जिन पर मुझे गर्व है। ये मेरे लिए अपना समस्त न्यौछावर कर सकते हैं। इन्हीं के बल पर मैंने चमकौर साहिब तथा दूसरे क्षेत्रों में युद्ध लड़े हैं। ये मेरी बन्दूक के सामने ऐसे नाच रहे हैं जैसे साँप बीन की ध्वनि पर नाचता है। इन्हीं वीर तथा साहसी योद्धाओं पर मुझे नाज है। परन्तु तेरे सैनिकों में तो एक भी न निकला जो तेरा हुक्म मान सके।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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