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32. गुरूदिता जी

(आत्मिक बल का गल्त इस्तेमाल करने पर हम परमात्मा के प्रतिद्वन्द्वी बन जाते हैं।)

बाबा गुरूदिता जी ने अपने पिता श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी की आज्ञा से उनके बताये गये स्थल पर एक सुन्दर नगर का निर्माण प्रारम्भ कर दिया और इस नगर का नाम गुरू आज्ञा से कीरतपुर रखा। जल्दी ही यह नगर विकास की और बढ़ने लगा क्योंकि दूर-दूर से वहाँ संगत का आवागनम होने लगा। यहीं आपने एक सुन्दर भव्य गृह बनाया, जिसका नाम शीशमहल रखा। कुछ समय पश्चात आपके क्रमशः दो पुत्रों ने जन्म लिया। धीरमल व (गुरू) हरिराये जी, जब यह नगर विकास की चरम सीमा में पहुँचा तो श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब भी स्थानान्तरित होकर चिरस्थाई निवास के रूप में यहीं रहने लगे। एक दिन बाबा गुरदिता जी अपने कुछ मित्रों के साथ शिकार खेलने गये हुए थे कि जँगल में भूल से एक भूरी गाय को हिरन समझकर एक साथी ने तीर मार दिया, जिससे वह मर गई। उसी समय उस गाय का मालिक आ पहुँचा और वह गौ हत्या की दुहाई देने लगा। इस पर बाबा गुरूदिता जी ने उसे समझाया कि भइया इसका मुँह माँगा दाम ले लो, किन्तु वह नहीं माना। उस समय बाबा गुरूदिता जी दुविधा में उलझ गये। स्थानीय लोगों ने गौ हत्या का आरोप लगाया। इस पर बाबा गुरूदिता जी ने आत्मशक्ति का प्रयोग करके उस गाय के ऊपर सतिनाम वाहिगुरू कहकर जल के छींटे दे दिये। गाय जीवित हो गई और घास चरने लगी। यह घटना जँगल में आग की तरह लोगों की चर्चा का विषय बन गई। जब यह चर्चा गुरू जी के कानों में पहुँची तो वह बहुत ही नाराज हुए, उन्होंने तुरन्त गुरूदिता जी को बुलाया और कहा– तुम अब परमपिता परमेश्वर के प्रतिद्वन्द्वी बन गये हो। वह जिसको मृत्यु देता है, उसे तुमने जीवन देने का ठेका ले लिया है ? बस यह डाँट सुनते ही गुरूदिता जी लौट आये और एक एकान्त स्थान पर चादर तानकर सो गये ओर आत्मबल से शरीर त्याग दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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