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31. शेर का शिकार

(इन्सान की निडरता ही उसे जीवन में उन्नति के शिखर पर ले जाती है।)

श्री गुरू हरगाबिन्द साहिब जी अपने स्वभाव अनुसार निकट के वनों में अपने जवानों के साथ शिकार खेलने चले जाते। जब यह बात सम्राट को मालूम हुई कि गुरू जी एक अच्छे शिकारी हैं तो उसके मन में विचार आया कि क्यों न मैं भी शिकार खेलने चलूँ और गुरू जी के शिकार खेलने की योग्यता अपनी आँखों से देखूँ। अतः उसने शिकार खेलने का कार्यक्रम बनाया और गुरू जी को निमँत्रण भेजा। गुरू जी इस सँयुक्त अभियान के लिए तैयार हो गये। इस सँयुक्त अभियान में सम्राट ने बहुत से प्रसिद्ध शिकारियों को साथ में ले लिया। घने जँगलों में गुरू जी ने बहुत से हिंसक पशु मार गिराये। तभी सूचना मिली कि निकट के जँगल में एक विशालकाय शेर का निवास स्थान है, तब क्या था गुरू जी ने उस दिशा में अपना घोड़ा मोड़ दिया। सम्राट उस समय हाथी पर सवार था। उसने भी हाथी के महावत को उसी और चलने को कहा कि अकस्मात निकट ही शेर अपनी माँद में से भयभीत गर्जन करते हुए बाहर आ गया। मुख्य शिकारी इधर-उधर छिपने लगे, सभी भय के मारे काँपने लगे। तभी गुरू जी घोड़े के नीचे अपने शस्त्र लेकर उतर आये। सम्राट के हाथी और शेर के बीच कुछ गजों का अन्तर ही रह गया था कि तभी गुरू जी मध्य में खड़े हो गये और शेर को ललकारने लगे। भारी गर्जन से शेर उछला और गुरू जी पर झपटा। किन्तु गुरू जी ने अपनी ढाल पर उसे रोकते हुए, अपनी तलवार से उसे बीच में से काटकर दो भागों में बाँट दिया। इस भयभीत दृश्य और अगम्य साहस और आत्मविश्वास को देखकर सम्राट अति प्रसन्न हुआ। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उसने आश्चर्यपूर्ण कौतुहल देखा है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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