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30. समन-मुसन

(अगर मन में किसी सेवा को करने की सच्ची लग्न हो तो कार्य में आई हुई रूकावटें अपने आप दूर हो जाती हैं। परमात्मा और गुरू पर आस्था तो मरे हुए को भी जिन्दा कर देती है।)

एक बार श्री गुरू अरजन देव साहिब जी लाहौर नगर में सहायता के लिए गए क्योंकि वहाँ पर कई प्रकार के सँक्रामक रोग फैले हुए थे। सेवा के साथ-साथ आप इस बीच स्थान-स्थान पर लोगों के घरों में आध्यात्मिकवाद को प्रोत्याहित करने के लिए प्रवचन करने लगे। कुछ धनी लोग आपको आमँत्रित करने लगे और आपके प्रवचनों के पश्चात समाज के सभी वर्ग के लोगों के लिए लँगर व्यवस्था करते। जिसके अर्न्तगत दो श्रमिकों ने गुरू जी को निमँत्रण दिया कि आप हमारे गृह में प्रवचन करें। ये श्रमिक आपस में रिश्ते में पिता-पुत्र थे। इसको समाज में समन-मुसन करके जाना जाता था। गुरू जी के प्रवचनों के पश्चात प्रायः स्थानों पर मेजबान लोग यथाशक्ति सँगत को लँगर में नाश्ता इत्यादि करवाते थे समन-मुसन प्रतिदिन प्रातः गुरू जी के प्रवचन सुनने जाते और नाश्ता इत्यादि वहीं करके सीधे अपने कार्यस्थल पर पहुँच जाते। वे पिता-पुत्र मन ही मन विचार करते कि हम तो जिज्ञासा की तृप्ति के कारण प्रवचन सुनने जाते हैं परन्तु लोग शायद यह विचारने लगे हैं कि हम केवल नाश्ता इत्यादि सेवन की लालसा के कारण प्र्रवचन सुनने स्थल पर पहुँचते हैं। अतः हमें भी एक दिन समस्त संगत को न्यौता देना चाहिए, परन्तु इसमें अधिक खर्च है, जो कि हमारी क्षमता से बाहर है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम इस शुभ कार्य के लिए कहीं से कर्ज की व्यवस्था कर लें। घीरे-घीरे हम कर्ज लौटा देंगे। विचार अच्छा था, अतः उन दोनों ने एक पड़ौसी हलवाई से बात की और उसे बताया कि हम एक दिन गुरू जी तथा संगत का प्रीतिभोज देना चाहते हैं, यदि वह इस कार्य के लिए हमें उधार दे दे, जिससे प्रातःकाल में संगत के नाश्ते की व्यवस्था हो जाए। हम गुरू जी से आग्रह करेंगे कि अगले दिन हमारे यहाँ समागम रखें और हमें सेवा का अवसर प्रदान करें। हलवाई ने इनकी सेवा भावना को ध्यान रखते हुए इन्हें नाश्ते की सामाग्री उधार देना स्वीकार कर लिया। इसी आधार पर उन्होंने गुरू जी से समागम के लिए विनती की, जिसे गुरू जी ने स्वीकार किया और तिथी निश्चित कर दी गई। उस समय प्रवचन स्थल पर एक साहूकार भी बैठा था, जो समन-मुसन का पड़ौसी था। उसने विचार किया कि मैंने अधिक खर्च के डर से आज तक गुरू जी को आमँत्रित नहीं किया, जबकि इन मजदूरों ने संगत को निमँत्रण दिया है। यह मेरे लिए चूनौती है। ईर्ष्या में साहूकार ने पता लगवाया कि इन श्रमिकों के पास लँगर करने के लिए धन कहाँ से आया ? जब उसे मालूम हुआ कि स्थानीय हलवाई ने समस्त तैयार सामाग्री उधार देने पर सहमति दी है तो वह साहूकार हलवाई के पास पहुँचा और उसे कहा कि तुम मूर्ख हो, जो बिना किसी जमानत के उधार देने पर तुले हो, पहले समन-मुसन से जमानत माँगो, फिर उधार देना, नहीं तो क्या पता तेरा धन डूब जाए। वे तो मजदूर हैं, कभी दिहाड़ी लगती है तो कभी नहीं। हलवाई को इस बात में दम दिखाई दिया और वह तुरन्त समन-मुसन के पास पहुँचा और उनसे जमानत माँगी। जमानत न मिलने पर तैयार खाद्य सामाग्री देने से इन्कार कर दिया।

इधर समन-मुसन पर हलवाई का इन्कार सुनते ही वज्रपात हुआ। वे सकते में आ गए कि अब क्या किया जाए। यदि संगत आने पर तैयार खाद्य सामाग्री न मिली तो बहुत बदनामी होगी। मुसन ने एक युक्ति पर पिता जी को विचार करने को कहा। पिता जी को युक्ति अच्छी नहीं लगी किन्तु मरता क्या नहीं करता। युक्ति में कुछ सँशोधन करके, युक्ति को व्यवहारिक रूप दे दिया गया। वे दोनों अपने पड़ौसी साहुकार की छत पर चढ़ गए। ऊपर की छत का मग (हवा और रोशनी के लिए बनाया गया एक फुट का छिद्र) अकस्मात खुला ही पड़ा था। इन दोनों पिता-पुत्र ने योजना अनुसार कार्य प्रारम्भ किया। पिता ने लड़के को रस्सी से बाँधकर नीचे लटकाया। लड़का नीचे उतरा और उसने घर की तिजोरी को खोला और उसमें से चाँदी के सिक्कों की थैली निकालकर पिता को थमा दी। किन्तु पिता अपने पुत्र को उस तँग छिद्र में से वापिस बाहर नहीं निकाल पाया। भरपूर प्रयास के बाद भी वह नहीं निकल पाया। अन्त में पुत्र ने पिता को परामर्श दिया कि वह उसका सिर काटकर घर ले जाए। जिससे उन पर चोरी का आरोप न लग जाए, नहीं तो गुरू जी के समक्ष मुँह दिखाने योग्य नहीं रह जाएँगे। मरता क्या नही करता के वाक्य अनुसार पिता ने तलवार लाकर पुत्र का सिर काट लिया और उसे ले जाकर घर की छत पर एक चादर में छिपा दिया। सिक्कों की थैली समय रहते हलवाई को दे दी और उससे समस्त खाद्य सामाग्री देने के लिए सहमति प्राप्त कर ली। प्रातःकाल जब साहूकार उठा तो उसने अपने घर के भीतर बिना सिर के शव को देखा तो वह भयभीत हो गया। उसे पुलिस का भय सताने लगा, उसने दूरदृष्टि से काम लेते हुए अपने पड़ौसी सुमन को सौ रूपये दिए और शव को वहाँ से हटाने को कहा। सुमन ने पुत्र का शव चादर में लपेटकर अपनी छत पर एक चारपाई पर डाल दिया और उसके साथ उसका सिर सटाकर रख दिया और ऊपर से चादर डाल दी। निर्धारित समय पर सतसंग के लिए संगत आई, जिसमें गुरू जी ने कीर्तन के उपरान्त अपने प्रवचनों से संगत को कृतार्थ किया। तदपश्चात लँगर के वितरण के लिए संगत की पंक्तियाँ लग गईं।

हलवाई ने समय अनुसार तैयार खाद्य सामाग्री भिजवा दी। जब भोजन वितरण होने लगा। तो गुरू जी ने सुमन से कहाः कि जब तुम संगत को न्यौता देने आए थे तो तुम्हारा पुत्र भी तुम्हारे साथ था, वह अब कही दिखाई नहीं दे रहा क्या बात है ? इस पर सुमन ने गुरू जी से कह दियाः कि वह इस समय गहरी नींद में सो रहा है। गुरू जी ने कहाः अच्छा उसे उठाकर लाओ। सुमन ने उत्तर दियाः कि अब वह मेरे उठाने पर भी नहीं उठने वाला नहीं है। कृप्या आप स्वयँ ही उसे उठा सकते हैं। तब गुरू जी ने ऊँचे स्वर में आवाज लगाईः मुसन ! लँगर का समय हो गया है, अब तो चले आओ। बस फिर क्या था, देखते ही देखते घर की छत से युवक मुसन भागता हुआ नीचे चला आया और वह गुरू चरणो में दण्डवत प्रणाम करके लँगर वितरण करने लगा। यह आर्श्चय देखकर पिता सुमन गदगद हो गया और कहने लगाः कि हे गुरूदेव ! आप पूर्ण हैं। आप सदैव भक्तों की लाज रखते हैं और अगली रात उसने सौ रूपयों की थैली साहूकार की छत के मग से उसके घर फैंक दी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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