27. सिक्ख विवाह
(पुराने कर्मकाण्डों को हटाकर गुरूबाणी के चार फेरे करने से
सिक्ख विवाह जिस प्रकार होता है, उस विधि को अपनाना चाहिए, क्योंकि इससे समय की और
पैसे की भी बचत ही नहीं होती बल्कि परमात्मा की बाणी के साथ आपका विवाह सम्पन्न होता
है।)
श्री गुरू रामदास जी ने अपने बेटे पृथीचँद का विवाह समय अनुसार
कर दिया किन्तु जब मँझले बेटे का विवाह करना चाहा तो उसने विवाह करने से इन्कार कर
दिया कि मैं साँसारिक झमेलों में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि मैं समस्त समय प्रभु
अराधना में व्यतीत करना चाहता हूँ। इस पर गुरू जी ने उसे गृहस्थ आश्रम के बहुत लाभ
बताए, और समझाने का प्रयास किया कि व्यक्ति को गृहस्थ में रहते हुए सँन्यासियों से
कहीं अधिक प्राप्तियाँ होती हैं किन्तु श्री महादेव जी नहीं माने, उत्तर में
उन्होंने कहा कि मैं सँसार से उपराम ही रहना पसन्द करता हूँ। उन्हीं दिनो फलोर
तहसील के निवासी श्री किशनचँद जी गुरू दर्शनों के लिए गुरू के चक्क श्री अमृतसर
साहिब जी आए तो उन्होंने गुरू जी के छोटे पुत्र श्री अरजन देव जी को देखा और उनके
व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। श्री अरजन देव जी मधुर भाषी, नम्र तथा सेवा में
समर्पित थे अतः किशनचन्द जी ने गुरू रामदास जी के सामने अरजन के लिए अपनी पुत्री
गँगा का रिश्ता रख दिया, जिसे गुरू जी ने स्वीकार कर लिया किन्तु विवाह एक वर्ष के
पश्चात होना निश्चित हुआ। विवाह के समय श्री अरजन देव जी 17 वर्ष के हुष्ट-पुष्ट
युवक के रूप में उबरे जिनकी छबी देखते ही बनती थी। गुरू जी बारात लेकर फलोर तहसील
के माऊ नामक ग्राम में पहुँचे। वहाँ बारात का भव्य स्वागत किया गया किन्तु स्थानीय
पण्डितों ने फेरे डालने के समय गुरू मर्यादा पर व्यँग्य कर दिया और अभिमान में
कटाक्ष करते हुए कहा कि आखिर जाओगे कहा ? विवाह मण्डप में हमारी आवश्यकता पड़ ही गई
ना ! गुरू जी को पण्डितों के व्यवहार के पहले भी बहुत कड़वे अनुभव थे। अतः उन्होंने
समय को सम्भाला और स्वयँ उस चुनौती को स्वीकार करते हुए आगे बढ़कर पुरोहित का स्थान
ग्रहण कर लिया और नेत्र बन्द करके प्रभु के समक्ष प्रार्थना करते हुए निम्नलिखित
शबद (गुरूबाणी) उच्चारण करने लगेः
पउड़ी ॥ कीता लोड़ीऐ कमु सु हरि पहि आखीऐ ॥
कारजु देइ सवारि सतिगुर सचु साखीऐ ॥
संता संगि निधानु अमृतु चाखीऐ ॥
भै भंजन मिहरवान दास की राखीऐ ॥
नानक हरि गुण गाइ अलखु प्रभु लाखीऐ अंग 91
गुरू जी को विस्माद बोधक अवस्था में देखकर समस्त सिक्ख आश्चर्य
करने लगे तभी प्रमुख सिक्खों ने गुरू जी का सँकेत पाते ही स्थिति को भाँप लिया ओर
वर-वधू को हवन कुण्ड से उठाकर अन्य स्थान पर ले गए। इस पर समागम में खलबली मच गई।
समधी इत्यादि लोग गुरू जी को तुरन्त मनाने लगे और उन्होंने पण्डितों द्वारा की गई
अवज्ञा के लिए याचना की परन्तु गुरू जी ने कहा, मैं किसी से अप्रसन्न नहीं हूँ।
प्रभु की लीला है, ऐसा ही होना था, वह हमसे कुछ नया करवाना चाहता है जैसी उसकी इच्छा,
हम उसी में सन्तुष्ट हैं। गुरू जी ने तुरन्त निर्णय लिया पुनः वर-वधु को नये स्थान
में बिठाकर उनके मध्य पूर्व गुरूजनों की बाणी की श्री पोथी साहिब जी स्थापित करके
स्वयँ गुरू मर्यादा के नियमों को दृढ़ करवाने के लिए प्रवृति कर्मों की बाणी द्वारा
व्याख्या करने लगेः
सूही महला ४ ॥
हरि पहिलड़ी लाव परविरती करम द्रिड़ाइआ बलि राम जीउ ॥
बाणी ब्रह्मा वेदु धरमु द्रिड़हु पाप तजाइआ बलि राम जीउ ॥
धरमु द्रिड़हु हरि नामु धिआवहु सिम्रिति नामु द्रिड़ाइआ ॥
सतिगुरु गुरु पूरा आराधहु सभि किलविख पाप गवाइआ ॥
सहज अनंदु होआ वडभागी मनि हरि हरि मीठा लाइआ ॥
जनु कहै नानकु लाव पहिली आर्मभु काजु रचाइआ ॥१॥ अंग 773
तदपश्चात आपने आदेश दिया यही रचना सभी संगत मिलकर गायन करे और
वर-वधु श्री पोथी साहिब जी की परिक्रमा करें। पहली परिक्रमा समाप्त होने पर गुरू जी
ने फिर दूसरी लांव को उच्चारण करते हुए प्रवृति मार्ग में निवृति की बात दृढ़ करवाई
और आदेश दिया अब इस रचना को संगत गायन करे और वर-वधू श्री पोथी साहिब जी के फेरे
लेः
हरि दूजड़ी लाव सतिगुरु पुरखु मिलाइआ बलि राम जीउ ॥
निरभउ भै मनु होइ हउमै मैलु गवाइआ बलि राम जीउ ॥
निरमलु भउ पाइआ हरि गुण गाइआ हरि वेखै रामु हदूरे ॥
हरि आतम रामु पसारिआ सुआमी सरब रहिआ भरपूरे ॥
अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको मिलि हरि जन मंगल गाए ॥
जन नानक दूजी लाव चलाई अनहद सबद वजाए ॥२॥
तीसरी लांव या फेराः
हरि तीजड़ी लाव मनि चाउ भइआ बैरागीआ बलि राम जीउ ॥
संत जना हरि मेलु हरि पाइआ वडभागीआ बलि राम जीउ ॥
निरमलु हरि पाइआ हरि गुण गाइआ मुखि बोली हरि बाणी ॥
संत जना वडभागी पाइआ हरि कथीऐ अकथ कहाणी ॥
हिरदै हरि हरि हरि धुनि उपजी हरि जपीऐ मसतकि भागु जीउ ॥
जनु नानकु बोले तीजी लावै हरि उपजै मनि बैरागु जीउ ॥३॥
चौथी लांव या फेराः
हरि चउथड़ी लाव मनि सहजु भइआ हरि पाइआ बलि राम जीउ ॥
गुरमुखि मिलिआ सुभाइ हरि मनि तनि मीठा लाइआ बलि राम जीउ ॥
हरि मीठा लाइआ मेरे प्रभ भाइआ अनदिनु हरि लिव लाई ॥
मन चिंदिआ फलु पाइआ सुआमी हरि नामि वजी वाधाई ॥
हरि प्रभि ठाकुरि काजु रचाइआ धन हिरदै नामि विगासी ॥
जनु नानकु बोले चउथी लावै हरि पाइआ प्रभु अविनासी ॥४॥२॥
इस प्रकार गुरू जी ने चार लाव की रचना कर दी और क्रमशः चार बार
वर-वधु ने श्री पोथी साहिब जी की परिक्रमा कर ली। तदपश्चात गुरू जी ने कहा कि अब इस
जोड़ी का विवाह सम्पूर्ण हुआ और यह दोनों दाम्पति बन गए हैं और गृहस्थ आश्रम में
प्रवेश पा चुके हैं। तभी सभी और से बधाइयाँ मिलने लगीं। समस्त संगत प्रसन्न थी
किन्तु पुरोहित अपना सा मुँह लेकर निराश बैठे उस घड़ी को कोस रहे थे जब उन्होंने गुरू
घर पर व्यँग्य किया था। इस घटना के पश्चात गुरू साहिब जी ने आदेश दिया के मेरे
सिक्ख हमारे द्वारा चलाई गई नयी विधि से अपनी सन्तानों का विवाह सम्पन्न किया करें
इसी नयी विधि द्वारा पुरोहितों की मोहताजी से छुटकारा मिलेगा वहीं दाम्पति को गुरू
मर्यादा दृढ़ होगी और समाज से कुरीतियाँ समाप्त होने में सहायता मिलेगी।