23. जैनी साधु ‘अनभी’
(कपड़े नहीं पहनना, नंगे घूमना, पानी का इस्तेमाल नहीं करना, अपने
मल को कुरेद-कुरेद कर देखना कि कहीं कोई जीव तो नहीं मर गया, नंगे पैर घूमना। यह तो
पशुता की निशानी है और परमात्मा तो कभी मिल ही नहीं सकता। कहने का तात्पर्य यह है
कि ऐसे लोगों से यह पूछों कि फिर वो पानी पीना बिल्कुल ही बन्द कर दें और खाना खाना
भी बन्द कर दें, क्योंकि सबसे ज्यादा जीव तो पानी और खाने में ही होते हैं।)
श्री गुरू नानक देव जी गुजरात के नगर पालीताणा में पहुँचे। यहाँ
जैन धर्मावलम्बियों का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। उन दिनों अनभी नाम का एक जैन साधु यहाँ
प्रमुख धर्म गुरू था। गुरदेव जी ने यहाँ पहुँचते ही कीर्तन प्रारम्भ किया–
सभो सूतकु भरमु है दूजै लगै जाइ ।।
जंमणु मरणा हुक्मु है भाणै आवै जाइ ।।
खाणा पीणा पवित्र है दितोनु रिजकु संबाहि ।।
नानक जिनी गुरमुखि बुझिआ तिना सुतकु नाहि ।।
राग आसा, अंग 472
वहाँ पर सभी लोग गुरुदेव के अमृतमय कीर्तन को सुनने के लिए
इकट्ठे हो गए। कीर्तन की समाप्ति पर लोगों ने कहा, आप जो शब्द गायन कर रहे थे इनके
अर्थ समझाएँ। गुरुदेव ने तब अपने प्रवचनों में कहा– सब कुछ प्रभु की लीला है, उसके
आदेश अनुसार प्राणी का जन्म-मरण होता है। इस खेल में किसी प्रकार का भ्रम नहीं करना
चाहिए कि जीव हत्या या पाप हो गया है। इसलिए खाना पीना पवित्र है। उस प्रभु ने यह
जीविका, रिज़क किसी न किसी रूप में सभी को प्रदान की है। बात तो केवल प्रकृति के
नियमों को समझने भर की है। यह सुनकर लोग कहने लगे– हमें तो हमारा "मुख्य पुजारी अनभी"
ठीक इसके विपरीत शिक्षा देता है। इस पर जैनी साधु अनभी, गुरुदेव से विचार गोष्ठी
करने आया और कहने लगा– हमारा मुख्य उद्देश्य जीव हत्या के पापों से बचना है। उत्तर
में गुरुदेव जी कहने लगे– तुम्हारे भ्रम अनुसार तो तुम दिन रात हत्याएँ करते रहते
हो क्योंकि अनाज के दानों में भी जीवन है।
जेते दाणे अंन के जीआ बाझु न कोइ ।।
पहिला पाणी जीउ है जितु हरिआ सभु कोइ ।। राग आसा, अंग 472
उसे समझाते हुए गुरुदेव जी ने कहा– किसी को भी "भ्रम" में पड़कर
व्यर्थ में असामाजिक जीवन नहीं जीना चाहिए, क्योंकि समस्त वनस्पतियों में जीवन है।
कहाँ तक अँधविश्वासों में भटकते फिरोगे क्योंकि इन बातों से अपना जीवन दुखी करने के
अतिरिक्त किसी प्रकार की प्राप्ति होने की आशा नहीं की जा सकती। अतः वैज्ञानिक तथ्यों
को देखते हुए जीवन जीना चाहिए। तभी, वहाँ उपस्थित लोग कहने लगे– गुरू जी, यह साधु
तो हमें पथ-भ्रष्ट करता रहता है, न खुद स्वच्छ रहता है न हम को उचित जीवन जीने की
शिक्षा देता है, बल्कि इसके विपरीत अवैज्ञानिक तथा असामाजिक मलेच्छों जैसा कुचील
जीवन जीने के लिए भ्रम में डालता रहता है। उतर में गुरुदेव कहने लगे– इन पाखण्डी
साधुओं के घर में जाकर देखो, जहां से यह भागकर आए हैं, इनका परिवार इनके निखट्टू
होने के कारण रोता कुरलाता है। यहाँ यह लोग यहाँ सिर के बाल भेड़ों की तरह नोचवाते
हैं, जूठन माँग-माँग कर खाते हैं तथा अपनी गँदगी को कुरेद-कुरेद कर देखते हैं कि कहीं
कोई जीवाणु न उत्पन्न हो जाए और उसकी बदबू सूँघते हैं। पानी का प्रयोग न करने की
चेष्टा करते हैं कि कहीं कोई जीव हत्या न हो जाए। इसलिए यह लोग सदैव मैले-कुचैले
गंदे रहते हैं। इनका अवैज्ञानिक ढँग का जीवन, मानव समाज के ऊपर कलँक है। इनको सत्य
गुरू के ज्ञान की अति आवश्यकता है अन्यथा इनका यह जन्म व्यर्थ जाएगा।
सिरु खोहाइ पीअहि मलवाणी जूठा मंगि मंगि खाही ।।
फोलि फदीहति मुहि लैनि भड़ासा पाणी देखि सगाही ।।
भेडा वागी सिरु खोहाइनि भरीअनि हथ सुआही ।।
माऊ पीऊ किरतु गवाइनि टबर रोवनि धही ।।
सदा कुचील रहहि दिनु राती मथै टिके नाही ।।
झुंडी पाइ बहनि निति मरणै दड़ि दीबाणि न जाही ।। राग माझ, अंग 149
इस तरह वह साधु अनभी, इन प्रश्नों का तर्कसँगत उत्तर नहीं दे
पाया तथा अपनी भूल स्वीकार करता हुआ गुरु-चरणों में आ गिरा और पथ प्रदर्शन के लिए
याचना करने लगा। गुरुदेव ने कहा, हिंसा तो किसी का हृदय बिना करण दुखाने में है,
गरीबों को सताने में या उनके साथ उचित व्यवहार न करने में है। हम कड़वे वचन न बोलें,
यही अहिंसा है।