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22. सूफी फ़कीरों को परामर्श

(केवल परमात्मा के नाम के अलावा अन्य सिद्धियाँ बेकार हैं और इन्सान को कहीं का नहीं छोड़तीं। ऐसे इन्सान का ना तो लोक में ही भला होता है और ना ही परलोक में।)

श्री गुरू नानक देव जी पेहेवा से होते हुए जींद पहुँचे। वहाँ से सरसा पधारे वहाँ पर उन दिनों सूफी फ़कीरों का गढ था। जिसमें अग्रहणी ख्वाजा अबदुल शकूर थे, जो कि कामिल मुरशद के रूप में ख्याति प्राप्त कर रहे थे। इनकी अलौकिक शक्तियों की धाक जनसाधारण के मन पर पड़ी हुई थी। अतः मन्नतें माँगने के लिए लोगों की अपार भीड़ का उनके यहाँ ताँता लगा रहता था। जिस कारण पूजा के धन का खूब दुरोपयोग होने लगा था। गुरुदेव ने जब इनकी मानसिकता देखी तो ख्वाजा अबदुल शकूर से कहा– आप केवल अपनी निजी मान्यता तथा अभिमान के लिए उस प्रभु के कार्यो में हस्तक्षेप कर आत्मिक शक्ति का दुरोपयोग कर रहे हो। इससे किसी का भला होने वाला नहीं, वास्तविक प्रभु आराधना या इबादत, ‘राजी विच रजा’ में जीना है। सभी दीन-दुखियों को प्रभु हुक्म मानने का उपदेश देना ही सच्चे फ़कीरों का कार्य होना चाहिए। इस बात पर अबदुल शकूर गुरुदेव से सहमत न हुए एवँ उनके सहयोगी फ़कीर, बहावल उल हक, शाहि वाहल़ फरीदउद्दीन, जलालउद्दीन, तथा जती मल इत्यादि गुरुदेव से इसी विषय पर विचार-गोष्ठी करने आए। गुरुदेव ने कहा– आप पहले रिद्धि सिद्धि प्राप्त करने के लिए साधना रूपी कठिन परीश्रम करते हो फिर उससे प्राप्त आत्मिक बल का प्रदर्शन करके पूजा का धन इकट्ठा करते हों यह सभी कुछ एक तिज़ारत अर्थात व्यापार नहीं तो और क्या है ? वास्तविक फ़कीरी स्वयँ निष्काम होकर नाम जपना तथा दूसरों को जपवाना है, इसी में सभी का कल्याण है। जब वे लोग गुरुदेव के तर्क से पराजित हो गए तो वे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए, गुरुदेव को उपवास रखने की चुनौती देने लगे। किन्तु गुरुदेव ने कहा– उपवास करना तो हमारा सिद्धाँत ही नहीं, हमारा मार्ग तो सहज मार्ग है। इसमें किसी भी प्रकार का हठ स्वीकार नहीं। किन्तु फ़कीरों की मण्डली को अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करना था। वे कहने लगे– हम तो "40 दिन" तक भूखे प्यासे "घोर तप" कर सकते हैं। आप हमारे साथ इस प्रकार की साधना करके दिखाएँ तो जाने। पाँचो फ़कीरो ने एक-एक घड़ा पानी का तथा चालीस दाने जौ के लिए और इबादत के लिए 40 दिन का चिल्ला लिए अपनी-अपनी कोठरियों मे चले गए। किन्तु गुरुदेव वहीं प्रतिदिन भाई मरदाना जी के सँग मिलकर कीर्तन करते। जब संगत मिल बैठती तो प्रवचन करते कि यह मानव जीवन अमूल्य है इसमें समय नष्ट नहीं करना चाहिए, न जाने मृत्यु कब आ जाये। अतः प्रत्येक क्षण, उस प्रभु की आराधना में व्यतीत करना चाहिए। जिससे हमारा प्रत्येक श्वास सफल हो। मैं तो उन्हीं कार्यो को मान्यता देता हूँ। जो जनसाधारण गृहस्थ में रहकर, सहज रूप में कर सके। अतः मनुष्य को साधारण परिस्थितियों में रहकर, अपना-अपना कर्त्तव्य निभाते हुए, प्रभु भजन करना चाहिए। वही प्रभु चरणों में स्वीकार है। कर्मकाण्ड नहीं। चालीस दिन पश्चात् जब चिल्ले का समय सम्पूर्ण हुआ तो पाँचो फ़कीर निढाल अवस्था में मिले। किन्तु गुरुदेव तो अल्प आहार तथा अल्प निन्द्रा लेने के कारण बिल्कुल स्वस्थ तथा तरोताजा थे। तब तक जनता को भी फ़कीरों का कर्मकाण्ड तथा पाखण्ड समझ में आ गया था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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