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9. भाई तीर्था जी (मंझ)

(गुरू की सेवा करना तो सौभाग्य की बात है और कहा भी गया है कि गुरू की सेवा करने वाले को एक दिन परमात्मा भी प्राप्त हो जाता है। इसलिए गुरू की सेवा करने का जब भी मौका मिले उसे छोड़े नहीं क्योंकि गुरू की सेवा करने का मौका केवल भाग्यशाली व्यक्ति को ही मिलता है।)

भाई मँझ जी का जन्म बिक्रमी संमत् अनुसार 17 वीं सदी में हुआ। मुगलराज का चौथा बादशाह जहाँगीर था। उस समय पाँचवें गुरू श्री गुरू अरजन देव साहिब जी श्री अमृतसर साहिब जी में रहते थे। भाई मँझ जी की पहला नाम तीरथा था। आप आत्मिक शान्ति के लिए किसी महापुरूष की शरण लेना चाहते थे। इस लगन में आप सिक्ख संगत के एक जत्थे के साथ श्री अमृतसर साहिब जी में पाँचवें गुरू साहिब जी की जी-हजूरी में आ पहुँचे और नाम-दान की मेहर के लिए विनती की। गुरू जी ने कहा कि गुरसिक्खी घारण करनी बहुत कठिन है, तुमको धन-दौलत का त्याग करना होगा। लेकिन भाई तीरथा नाम दान के लिए विनती करते रहे। कई तरह की कठिन परीक्षाओं से गुजरते हुए एक दिन ऐसा आ ही गया, गुरू जी की अपार बक्शीश का, मेहर का। एक दिन भाई तीरथा जी लँगर के लिए लकड़ियों का गटठा लेकर जँगल में से जा रहे थे। अँधेरी चलने के कारण वो एक कुँए में गिर गए। गुरू जी अर्न्तयामी थे, उन्हें ये बात मालूम हो गई। गुरू जी सेवकों समेत उस स्थान पर आ गए और भाई तीरथा जी को हुकुम दिया कि आप बाहर आ जाओ, लकड़ियों को कुँए में ही फैंक दो, पर भाई तीरथा जी ने विनती की, कि लकड़ियाँ गीली हो जाएँगी और लँगर का काम नहीं चल पाएगा। सेवकों ने पहले लकड़ियाँ बाहर निकाली, फिर भाई तीरथा जी को बाहर निकाला। गुरू जी ने भाई तीरथा जी को अपने गले से लगा लिया और बोलेः (मंझ पिआरा गुरू को, गुरू मंझ पिआरा ।। मंझ गुरू का बोहिथा जग लंघावणहारा ।।) गुरू जी बोले कि अब तु तीरथा नहीं है। तु मंझ है, बोहिथा है। तेरा नाम अमर रहेगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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