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7. स्वयँ पाकी सन्यासी को उपदेश

(अगर अपवित्रता की बात की जाए तो इन्सान में तो हमेशा ही अपवित्रता रहती है। कभी मल-मूत्र के रूप में तो कभी मन में किसी गल्त विचार की अपवित्रता। बाहरी पवित्रता केवल उतनी ही होनी चाहिए कि जिसमें कीटाणु आदि का बचाव हो सके। ज्यादा पवित्रता दिखाना पाखण्ड का कारण बनता है)

श्री गुरू अमरदास जी की स्तुति सुनकर एक सन्यासी उनके दर्शनों के लिए आया, उसके मन में प्रबल इच्छा थी कि मै किसी पूर्ण ब्रहमज्ञानी से गुरू दीक्षा लेकर अपना जीवन सफल करूँ। सेवकों के समक्ष उसने गुरू जी से भेंट करवाने की इच्छा प्रकट की। उत्तर मिला कि पहले आप लंगर में भोजन ग्रहण करें तदपश्चात दर्शन पा सकते हैं। वह पवित्रता के दृष्टिकोण को सम्मुख रखकर अपने लिए स्वयँ भोजन तैयार करता था और किसी दूसरे का तैयार भोजन करता ही नहीं था। भले ही वह स्वर्ण जाति का ही क्यों न हो। उस सन्यासी ने सेवको से निवेदन कियाः मुझे तो आप रसद दे दें। मैं स्वयँ पाकी हूँ। यह मेरे जीवन भर का व्रत है। अतः दूसरो द्वारा तैयार भोजन करता ही नहीं। सेवकों ने इस बात की चर्चा गुरू जी से की। उन्होंने कहाः ठीक है अभी तो उसे आप रसद ही दे दें। सेवकों ने आज्ञा अनुसार ऐसा ही किया। सन्यासी रसद लेकर वापिस नदी के किनारे किसी एकान्त स्थान पर पत्थरों से चूल्हा तैयार करके भोजन कर आया। जब वह गुरू जी के समक्ष पहुँचा तो गुरू जी ने मुस्कुराते हुए कहाः हमने आज एक ऐसे साधक को देखा है, जिसने कड़े परिश्रम से तैयार पवित्र भोजन गँदे चमड़े की थैली में डाल दिया है। गुरू जी के इस व्यंग को सन्यासी समझा नहीं। वह उत्तर में बोलाः ऐसा कौन सा मूर्ख है ? जिसने ऐसा घोर अपराध किया है। गुरू जी ने कहाः वह मेरे समक्ष ही खड़ा है। इस पर सन्यासी बौखला गयाः वह कोई और होगा, मैं तो पवित्रता का अन्तिम सीमा तक ध्यान देता हूँ और तब तक भोजन नहीं करता जब तक मुझे विश्वास न हो जाए कि भोजन पूर्ण सनातन विधि अनुसार तैयार हुआ है। गुरू जी ने उसे कहाः कि बात को समझने की चेष्टा करो। हमने कहा है कि पवित्र भोजन को उसने चमड़े की गंदी थैली में डाला है। सन्यासी को फिर आघात हुआ, वह बोलाः मैं समझा नहीं। गुरू जी ने कहाः यह हमारा शरीर एक "गंदे चमड़े" की थैली ही तो है, इसमें पवित्र अन्न जल डालते ही मल–मूत्र में परिवर्तित हो जाता है और उसमें से बदबू भर जाती है। क्या यह ठीक नहीं है ? सन्यासी ने सिर झुका लिया और कहाः मुझे क्षमा करें, मै प्रकृति का रहस्य जान ही नहीं पाया, अनभिज्ञ हूं ज्ञान की अभिलाषा लिए आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूं। गुरू जी ने कहाः पवित्रता से तात्पर्य "केवल जीवाणुओं" तथा "कीटाणुओं" से सुरक्षा करना है, न कि समाज में भ्रम जाल फैलाना और अमूल्य जीवन को पवित्रता के नाम पर कर्मकाण्डों में नष्ट करना। जब लंगर में समस्त समाज के स्वास्थ्य का ध्यान रखकर भोजन तैयार किया जाता है और सभी वर्ग के लोग उसके अधिकारी हैं, तो आपने वहाँ से भोजन करने से क्यों इन्कार किया है ? सन्यासी को अपनी रूढ़िवादी विचारधारा खोखली दृष्टिमान हो रही थी। उसने गुरू जी से पुनः क्षमा याचना की और कहाः मुझे ज्ञान दें। गुरू जी ने कहाः ज्ञान मिलेगा परन्तु पहले "भ्रमजाल से उतरकर" लंगर में भोजन करके आओ। सन्यासी तुरन्त लौटकर लंगर में भोजन करने गया। सेवादारों ने उसे बहुत आदरभाव से भोजन कराया। सन्यासी ने भोजन करते समय भोजन में अद्रभुत स्वाद पाया। उसने जीवन में पहली बार इतना स्वादिष्ट भोजन किया था। जिस कारण वह आनन्दित हो उठा। जब वह पुनः गुरू जी के समक्ष उपस्थित हुआ तो उसके जीवन में क्रान्ति आ गई थी। वह कहने लगाः कृप्या मुझे शाश्वत ज्ञान प्रदान करें। गुरू जी ने बाणी उच्चारण की–

भगता की चाल निराली ।।
चाल निराली भगता केरी, विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभ अंहकारू तजि त्रिसना बहुता नाही बोलणा ।।
खनिअहु तिखी वालहु निकी एतु मारगि जाणा ।।
गुरपरसादी जिनी आपु तजिया हरि वासना समाणी ।।
कहै नानकु चाल भगता जुगहु जुगु निराली ।। अंग 918

गुरू जी ने कहाः जो मनुष्य "आध्यात्मिक मार्ग" का यात्री बनना चाहता है वह पूर्ण गुरू के सानिध्य में रहकर अपने अस्तित्व को मिटटी मे मिला दे। भाव यह है कि मनुष्य अपने अहँ भाव को समाप्त कर तृष्णा की अग्नि को समाप्त कर, निरेच्छुक बनकर एक मृत प्राणी की तरह जीवन व्यतीत करे। यह मार्ग बहुत कठिन है परन्तु इसमें प्राप्तियाँ अधिक और तुरन्त हैं।
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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