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20. भाई जोगा सिंघ

(कोई भी सेवा या धार्मिक कार्य करते समय यह कभी भी नहीं सोचना चाहिए कि हम ना करते तो यह कभी भी नहीं हो सकता था या मेरे जैसा सेवक कोई भी नहीं है। यह सब अहँकार और अभिमान की निशानी हैं जो अगले और पिछले किए गए सब अच्छे कार्यों को धो डालता है और इन्सान को भी खा जाता है।)

पेशावर के आसीआ मुहल्ले में रहने वाले भाई गुरमुख का सपुत्र जोगा, जिसने गुरू गोबिन्द सिंघ जी से अमृतपान करके सिंघ की पदवी धारण की। श्री गुरू गोबिन्द सिंध जी भाई जोगा को सपुत्र जानकर हरदम अपने साथ ही रखते थे और अपार कृपा करते थे। एक बार जोगा के पिता भाई गुरमुख जी ने गुरू जी से अरदास की, कि जोगा की शादी होने वाली है, इसे आज्ञा दें, तो पेशावर जाकर शादी कर ले। गुरू जी ने जोगा सिंघ को छुट्टी दे दी, लेकिन उसकी परीक्षा लेने के लिए एक सिक्ख को हुकुमनामा देकर भेजा कि जब जोगा सिंघ तीन फेरे ले ले, तब उसके हाथ में दे देना। उस सिक्ख ने ऐसा ही किया, हुकुमनामे में हुकुम लिखा था कि इसे देखते ही तुरन्त श्री आंनदपुर साहिब जी की तरफ कुच करो। जोगा सिंघ ने ऐसा ही किया। एक फेरा बीच में ही छोड़कर निकल गया। बाकी एक फेरा उसके कमरबँद से लेकर विवाह पुरा किया गया। रास्ते में जोगा सिंघ के मन में विचार आया कि गुरू की आज्ञा मानने वाला मेरे जैसा कोई विरला सिक्ख ही होगा। जब जोगा सिंघ हशियारपुर पहुँचा, तो एक वेश्या का सुन्दर रूप देखकर काम वासना से व्याकुल हो गया और सिक्ख धर्म के विरूद्ध कूकर्म करने के लिए पक्का सँकल्प करके वेश्या के मकान पर पहुँचा। गुरू जी ने अपने अन्नय सिक्ख को नर्क कुण्ड से बचाने के लिए चौकीदार का रूप धर के सारी रात वेश्या के मकान पर पहरा दिया। जब तीन-चार बार भाई जोगा सिंघ ने चौकीदार को वही खड़ा पाया तो वह अपने मन को धिक्कारता हुआ आनंदपुर की राह चला गया और गुरू जी के दरबार पहुँचकर अपना अपराध कबूल किया। गुरू जी ने उसे माफ कर दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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