19. शेर का शिकार (श्री गुरू गोबिन्द
सिंघ साहिब जी)
(आदमी को हमेशा निडर रहना चाहिए। पूरी तरह से निडर तो केवल
परमात्मा ही है, इसलिए उस निडर को जपो और आप भी निडर बन जाओ।)
एक बार श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी ने अपने महमान राजा
भीमचन्द को शिकार के लिए आमँत्रित किया। राजा तो अपनी वीरता की धाक बिठाने के लिए
ही आया था। उधर सम्पन्नता प्रदर्शन में तो वह उन्नीस रहा था, इसलिए अब वीरता दिखाने
का उसे चाव था। उसने निमँत्रण स्वीकार कर लिया। भीमचँद के चुने हुए वीर जो उसके सँग
आए थे, शिकार में भी साथ हो लिए। गुरू जी के पाँच सिक्ख भाले-तलवारें लिए साथ-साथ
चले। कुछ सिक्खों ने आगे-आगे जँगल में हाँका किया। किन्तु जिस सिँह की तलाश में
शिकार दल आया था, उसका पता न चला। साँझ ढल आई। राजा भीमचँद थकावट महसूस करने लगा
था। लौटने की बात होने लगी। गुरू जी अभी सिँह की टोह में थे, वे शिकार करके लक्ष्य
पूरा किए बिना लौटना नहीं चाहते थे। शेर ने उस प्रदेश में कई हत्याएँ कर दी थी,
ग्रामीणों ने गुरू जी के पास शिकायत की थी। भीमचँद भीतर से घबरा रहा था। रात्रि के
समय, बिना मचान बाँधे शेर से टक्कर लेना अपनी मौत को आमँत्रित करने के समान था।
किन्तु यह बात गुरू जी को बताने में राजा भीमचँद हेठी समझता था, इसलिए चुप था। गुरू
जी सबको लेकर और भी बीहड़ में घुस गए। राजा भीमचँद रोकता ही रहा, किन्तु गुरू जी को
तो उसका घमण्ड तोड़ना था। वे अर्न्तयामी थे और भीमचँद के मन को समझते थे। तलाश सफल
हुई। बीहड़ झाड़ियों में एक जगह शेर बड़े मजे से विश्राम कर रहा था। उसकी लम्बी दूम
झाड़ियों से बाहर दिखाई दे रही थी। दूम की लम्बाई और मोटाई से सहज ही अनुमान होता था
कि शेर भीमकाय और बड़ा शक्तिशाली है। जंगल का एकमात्र सम्राट होने के नाते वह सबकी
उपेक्षा करता हुआ लेटा था। उसका पूरा विश्वास था कि उसके विश्राम में हस्तक्षेप का
साहस किसी को भी नहीं हो सकता। गुरू जी ने झाड़ी के निकट आकर शेर को ललकारना चाहा,
किन्तु भीमचँद ने ऐसा कदम उठाने से उनका निषेध किया। ऐसे में शेर की झपट जानलेवा हो
सकती है, हम सब बिना किसी सुरक्षा साधन के धरती पर खड़े हैं। उसका एक ही वार धातक
सिद्ध होगा। ऐसी बातें भीमचँद के मुख से सुनकर गुरू जी को हंसी आ गई। वीरता की धाक
बिठाने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति अचानक कायरता की बातें करने लगा था। गुरू जी ने
राजा के वीर सैनिकों को साथ आने का आहवान किया। उस समय सँध्या में शेर के निकट जाने
का किसी को साहस नहीं हुआ। सच है सिँहों के दल नहीं होते। शिकारी दल में एक ही सिँह
था और वह जँगल के सिँह से भिड़ने को उतावला था। गुरू जी ने दूर से बन्दूक द्वारा
सिंह पर गोली चलाना अनुचित समझा। राजा और उसका दल तो गुरू जी की उतावली देखकर
शीघ्रता से पेड़ों के पीछे सुरक्षा ढूँढने लगा, उधर गुरू जी ने खड़ग लेकर उस घनी झाड़ी
की ओर चले, जिसमें से सिँह की दूम दिखाई पड़ रही थी। गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने शेर के
निकट पहुँचकर एक बड़ा पत्थर झाड़ी में लुढ़का दिया।
शेर ने अपने विश्राम में खलल महसूस किया और गम्भीर आवाज में
गर्जन किया, किन्तु यहाँ से हिला नहीं। उसका दिल दहला देने वाला घोर-गर्जन सुनकर
राजा दल के रौंगटे खड़े हो गए। गुरू जी ने पुनः झाड़ियों को पकड़कर जोर से हिलाया। शेर
को अचम्भा हो रहा था कि यह किसकी मौत आई है, जो उसके साथ मजाक कर रहा है। आखिर उठना
ही पड़ा उसे। शेर विश्राम मुद्रा से क्रोध की मुद्रा में आ गया और उठकर झाड़ी से बाहर
आ खड़ा हुआ। लम्बी अँगड़ाई ली, इतने भँयकर ढँग से उसने मुँह खोला कि गुरू जी के सहयोगी
सिक्ख बिखरने लगे, किन्तु गुरू गोबिन्द सिंघ जी अपलक दृष्टि शेर की दुष्टि से ऐसी
मिली थी कि दोनो पुतली को भी नहीं हिला रहे थे। शेर शायद सोच रहा था कि वह कौन साहसी
युवक हो सकता है जो अपने कदमों पर ऐसा डटा है कि आँख झपकने तक का नाम नहीं लेता। वह
क्रोध में गुर्राया और उसने जोर से पूँछ को फटकारा। गुरू जी ने भी उसे पुनः ललकारा
और वह अब लपकने को तैयार था। गुरू जी उसका वार सम्भालने को दृढ़ सँकल्पित थे। शेर
उछला और गर्जना करता हुआ श्री गुरू गाबिन्द सिंघ जी पर झपटा। भीमचँद और उसके दल के
वीरों की आखें बन्द हो गई। लेकिन गुरू जी ने अपने दादा श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब
जी की तरह शेर के अगले पँजों और मुख का वार अपने सिर के निकट ढाल पर रोका। पैरों को
मजबुत रखते हुए अपनी तलवार का एक भरपूर वार शेर के शरीर पर किया। इससे पूर्व कि शेर
पीछे हटकर दोबारा लपकता उसका शरीर बीच में से कटकर लटक गया और वह वहीं हवा से धरती
पर आ गिरा। पाँच सात क्षण उसके आगे के पँजे हिले, मुख से गम्भीर और भयावह स्वर निकला
तथा उसका शरीर अडोल हो गया। शेर मर चुका था, उसका विशाल शरीर रक्त-रँजित घरती पर
बेसुध पड़ा था। राजा भीमचँद ने सारी घटना अपनी आँखों से देखी थी। उसे विश्वास नहीं
हो रहा था कि कोई पुरूष इतने बड़े शेर को केवल ढाल-तलवार की सहायता से मार सकता है।
वह तो गुरू जी पर अपनी शूरवीरता बिठाने आया था, किन्तु गुरू जी की शेर से हुई
मुठभेड़ को देखकर वह विचलित था। वह गुरू जी की वीरता को मानना नहीं चाहता था परन्तु
प्रत्यक्ष घटना को नकार भी नहीं सकता था। अतः चुपचाप, बिना गुरू जी के शौर्य की
प्रशँसा में एक भी शब्द बोले, वह गुरू जी के निकट चला गया। सेवकों ने शेर के मृत
शरीर को सम्भाला और शिकारी दल जँगल से लौट पड़ा। वन में अन्धेरा गहराने लगा।