16. श्री गुरू हरिकिशन जी का दिल्ली
जाना
(परमात्मा का जिस पर हाथ हो, वह चाहे उम्र में छोटा हो, परन्तु
परमात्मिक शक्ति के कारण समस्त कार्य सम्पूर्ण हो जाया करते हैं।)
दिल्ली में रामराय जी ने अफवाह उड़ा रखी थी कि श्री गुरू हरिकिशन
अभी नन्हें बालक ही तो हैं, उससे गुरू गद्दी का कार्यभार नहीं सम्भाला जायेगा।
किन्तु कीरतपुर पँजाब से आने वाले समाचार इस भ्रम के विपरीत संदेश दे रहे थे। यद्यपि
श्री हरिकिशन जी केवल पाँच साल के ही थे तदापि उन्होंने अपनी पूर्ण विवेक बुद्वि का
परिचय दिया और संगत का उचित मार्ग दर्शन किया। परिणामस्वरूप रामराय की अफवाह बुरी
तरह विफल रही और श्री गुरू श्री हरिकिशन जी का तेज प्रताप बढ़ता ही चला गया। इस बात
से तँग आकर रामराय ने सम्राट औरँगजेब को उकसाया कि वह श्री हरिकिशन जी से उनके
आत्मिक बल के चमत्कार देखे। किन्तु बादशाह को इस बात में कोई विशेष रूचि नहीं थी।
वह पहले रामराय जी से बहुत से चमत्कार जो कि उन्होंने एक मदारी की तरह दिखाये थे,
देख चुका था। अतः बात आई गई हो गई। किन्तु रामराय को ईर्ष्यावश शाँति कहाँ ? वह किसी
न किसी बहाने अपने छोटे भाई के मुकाबले बड़प्पन दर्शाना चाहता था। अवसर मिलते ही एक
दिन रामराय ने बादशाह औरँगजेब को पुनः उकसाया कि मेरा छोटा भाई गुरू नानकदेव की
गद्दी का आठवाँ उत्तराधिकारी है, स्वाभाविक ही है कि वह सर्वकला समर्थ होना चाहिए
क्योंकि उसे गुरू ज्योति प्राप्त हुई है। अतः वह जो चाहे कर सकता है किन्तु अभी
अल्प आयु का बालक है, इसलिए आपको उसे दिल्ली बुलवाकर अपने हित में कर लेना चाहिए,
जिससे प्रशासन के मामले में आपको लाभ हो सकता है। सम्राट को यह बात बहुत युक्तिसंगत
लगी। वह सोचने लगा कि जिस प्रकार रामराय मेरा मित्र बन गया है। यदि श्री हरिकिशन जी
से मेरी मित्रता हो जाए तो कुछ असम्भव बातें सम्भव हो सकती हैं जो बाद में प्रशासन
के हित में हो सकती हैं क्योंकि इन गुरू लोगों की देश भर में बहुत मान्यता है। अब
प्रश्न यह था कि श्री गुरू हरिकिशन जी को दिल्ली कैसे बुलवाया जाये। इस समस्या का
समाधान भी कर लिया गया कि हिन्दू को हिन्दू द्वारा आदरणीय निमन्त्रण भेजा जाए, शायद
बात बन जायेगी। इस युक्ति को किर्याविंत करने के लिए उसने मिरज़ा राजा जयसिँह को
आदेश दिया कि तुम गुरू घर के सेवक हो। अतः कीरतपुर से श्री गुरू हरिकिशन साहिब जी
को हमारा निमँत्रण देकर दिल्ली ले आओ।
मिरज़ा राजा जय सिँह ने सम्राट को आश्वासन दिया कि वह यह कार्य
सफलतापूर्वक कर देगा और उसने इस कार्य को अपने विश्वास पात्र दीवान परसराम को सौंपा।
वह बहुत योग्य और बुद्विमान पुरूष था। इस प्रकार राजा जयसिँह ने अपने दीवान परसराम
को पचास घुड़सवार दिये और कहा कि मेरी तरफ से कीरतपुर में श्री गुरू हरिकिशन को
दिल्ली आने के लिए निवेदन करें और उन्हें बहुत आदर से पालकी में बैठाकर पूर्ण
सुरक्षा प्रदान करते हुए लायें। जैसे कि 1660 ईस्वी में औरँगजेब ने श्री गुरू
हरिराय जी को दिल्ली आने के लिए आमँत्रित किया था वैसे ही अब 1664 ईस्वी में दूसरी
बार श्री गुरू हरिकिशन जी को निमँत्रण भेजा गया। सिक्ख सम्प्रदाय के लिए यह परीक्षा
का समय था। श्री गुरू अर्जुन देव भी जहाँगीर के राज्यकाल में लाहौर गये थे और श्री
गुरू हरिगोविद साहब भी ग्वालियर में गये थे। विवेक बुद्वि से श्री गुरू हरिकिशन जी
ने सभी तथ्यों पर विचारविमर्श किया। उन दिनों आपकी आयु 7 वर्ष की हो चुकी थी। माता
किशनकौर जी ने दिल्ली के निमँत्रण को बहुत गम्भीर रूप में लिया। उन्होंने सभी
प्रमुख सेवकों को सत्तर्क किया कि निर्णय लेने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए।
गुरूदेव ने दीवान परसराम के समक्ष एक शर्त रखी कि वह सम्राट औरँगजेब से कभी नहीं
मिलेंगे और उनको कोई भी बाध्य नहीं करेगा कि उनके बीच कोई विचारगोष्टि का आयोजन हो।
परसराम को जो काम सौंपा गया था, वह केवल गुरूदेव को दिल्ली ले जाने का कार्य था, अतः
यह शर्त स्वीकार कर ली गई। दीवान परसराम ने माता किशनकौर को साँत्वना दी और कहा कि
आप चिंता न करें। मैं स्वयँ गुरूदेव की पूर्ण सुरक्षा के लिए तैनात रहूँगा।
तत्पश्चात् दिल्ली जाने की तैयारियाँ होने लगी। जिसने भी सुना कि गुरू श्री हरिकिशन
जी को औरँगजेब ने दिल्ली बुलवाया है, वही उदास हो गया। गुरूदेव की अनुपस्थिति सभी
को असहाय थी किन्तु सभी विवश थे। विदाई के समय अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। गुरूदेव ने सभी
श्रद्वालुओं को अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ किया और दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गये।