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1. विद्याध्ययन

(इन्सान की उम्र छोटी हो या बड़ी हो, अगर ज्ञान है तो इसमें उम्र वाली काई बात नहीं और यदि परमात्मिक ज्ञान छोटी सी उम्र में ही है तो आप पर परमात्मा की बहुत कृपा हुई है। परमात्मा अगर कृपा कर दे तो विद्यार्थी अपने अध्यापक को भी शिक्षा दे सकता है। अगर परमात्मा कृपा कर दे तो पत्थर भी बोलने लग जाते हैं। अगर परमात्मा कृपा कर दे तो कुछ भी असम्भव नहीं होता और अगर परमात्मा कृपा कर दे तो छोटी उम्र का बच्चा एक बड़ी उम्र के पढ़े लिखे आदमी को भी पढ़ा सकता है।)

1. कबीरदास जी
नबी इब्राहिम की चलाई हुइ मर्यादा सुन्नत हर एक मुस्लमान को करनी जरूरी है शरहा अनुसार जब तक सुन्नत न हो कोई मुस्लमान नहीं गिना जाता। कबीर जी आठ साल के हो गए। नीरो जी को उनके जान-पहचान वालों ने कहना शुरू कर दिया कि सुन्नत करवाई जाये। सुन्नत पर काफी खर्च किया जाता है। सभी के जोर देने पर आखिर सुन्नत की मर्यादा को पुरा करने के लिए उन्होंने खुले हाथों से सभी सामग्री खरीदी। सभी को खाने का निमँत्रण भेजा। निश्चित दिन पर इस्लाम के मुखी मौलवी और काजी भी एकत्रित हुए। रिश्तेदार और आस पड़ौस के लोग भी हाजिर हुए। सभी की हाजिरी में कबीर जी को काजी के पास लाया गया। काजी कुरान शरीफ की आयतों का उच्चारण अरबी भाषा में करता हुआ उस्तरे को धार लगाने लगा। उसकी हरकतें देखकर कबीर जी ने किसी स्याने की भांति उससे पूछा– यह उस्तरा किस लिए है ? आप क्या करने जा रहे हो ? तो काजी बोला– कबीर ! तेरी सुन्नत होने जा रही है। सुन्नत के बाद तुझे मीठे चावल मिलेंगे और नये कपड़े पहनने को मिलेंगे। पर कबीर जी ने फिर काजी से पूछा। अब मासूम बालक के मुँह से कैसे और क्यों सुनकर काजी का दिल धड़का। क्योंकि उसने कई बालकों की सुन्नत की थी परन्तु प्रश्न तो किसी ने भी नहीं किया, जिस प्रकार से बालक कबीर जी कर रहे थे। काजी ने प्यार से उत्तर दिया– बड़ों द्वारा चलाई गई मर्यादा पर सभी को चलना होता है। सवाल नहीं करते। अगर सुन्नत न हो तो वह मुस्लमान नहीं बनता। जो मुस्लमान नहीं बनता उसे काफिर कहते हैं और काफिर को बहिशत में स्थान नहीं मिलता और वह दोजक की आग में जलता है। दोजक (नरक) की आग से बचने के लिए यह सुन्नत की जाती है यह सुनकर कबीर जी ने एक और सवाल किया– काजी जी ! केवल सुन्नत करने से ही मुस्लमान बहिश्त (स्वर्ग) में चले जाते हैं ? क्या उनको नेक काम करने की जरूरत नहीं ? यह बात सुनकर सभी मुस्लमान चुप्पी साधकर कर कभी कबीर जी की तरफ और कभी काजी की तरफ देखने लगे। काजी ने अपने ज्ञान से कबीर जी को बहुत समझाने की कोशिश की, परन्तु कबीर जी ने सुन्नत करने से साफ इन्कार कर दिया। इन्कार को सुनकर लोगों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। काजी गुस्से से आग-बबुला हो गया। काजी आखों में गुस्से के अँगारे निकालता हुआ बोला– कबीर ! जरूर करनी होगी, राजा का हुक्म है, नहीं तो कौड़े मारे जायेंगे। कबीर जी कुछ नहीं बोले, उन्होंने आँखें बन्द कर लीं और समाधि लगा ली। उनकी समाधि तोड़ने और उन्हें बुलाने का किसी का हौंसला नहीं हुआ, धीरे-धीरे उनके होंठ हिलने लगे और वह बोलने लगे– राम ! राम ! और बाणी उच्चारण की–

हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अर्ध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥    अंग 477

समझदारों ने समझ लिया कि बालक कबीर जी काजी से कह रहे हैं कि हे काजी– जरा समझ तो सही कि हिन्दू और मुस्लमान कहाँ से आए हैं ? हे काजी तुने कभी यह नहीं सोचा जी स्वर्ग और नरक में कौन जायेगा ? कौनसी किताब तुने पढ़ी है, तेरे जैसे काजी पढ़ते-पढ़ते हुए ही मर गए पर राम के दर्शन उन्हें नहीं हुए। रिशतेदारों को इक्कठे करके सुन्नत करना चाहते हो, मैंने कभी भी सुन्नत नहीं करवानी। अगर मेरे खुदा को मुझे मुस्लमान बनाना होगा तो मेरी सुन्नत अपने आप हो जायेगी। अगर काजी तेरी बात मान ली जाये कि मर्द ने सुन्नत कर ली और वह स्वर्ग में चला गया तो स्त्री का क्या करोगे। अगर स्त्री यानि जीवन साथी ने काफिर ही रहना है तो हिन्दू ही रहना चाहिए। मैं तो तुझे कहता हूँ कि यह किताबे आदि छोड़कर केवल राम नाम का सिमरन कर। मैंने तो राम का आसरा लिया है इसलिए मुझे कोई चिन्ता फिक्र नहीं। कबीर जी जब राम नाम का सिमरन कर रहे थे तो उनके मुखमण्डल पर निराला ही जलाल था, उस जलाल को देखकर काजी की आँखें चौंधियां गई। काजी आपे से बाहर हो गया और कड़कती आवाज में बोला– कि मैं कोई बात नहीं सुनना चाहता, सुन्नत करवानी ही पड़ेगी। वह बोला कि यह बालक काफिर हो गया है। इसे पकड़ो। काजी ने अपना हाथ कबीर जी को पकड़ने के लिए बढ़ाया तो उसे ऐसा लगा जैसे उसने बिजली की नँगी तार को छू लिया हो। उसने डर के मारे हाथ पिछे हटा लिया। नीरो और नीमा हैरान हुये और डर भी गये क्योंकि बनारस का मुस्लमान हाकिम बहुत सख्त और जालिम स्वभाव का था। अगर उसको पता लग गया तो वह सजा देगा। सारे जुलाहे एक दूसरे की तरफ देखकर बातें करने लगे। नीरो ने आगे आकर कबीर जी को समझाने का प्रयास किया पर समझे हुए को कौन समझाए ? प्रहलाद की तरह कबीर जी की रग-रग में राम बस चुका था। वह तो इन्सान को इन्सान बनाने आए थे। जब बहुत बात बढ़ गई तो काजी और मुल्ला के हुक्म से जबरदस्ती सुन्नत करने की सलाह की गई। यहाँ पर एक और कौतुक हुआ। काजी ने जब कबीर जी की बाँह पकड़ी तो बाँह उनके हाथ में न आई, जैसे काजी ने किसी परछाई की बाँह पकड़ ली हो। इतना कुछ होने पर भी काजी उस परमात्मा की शक्ति को नहीं पहचान पाया क्योंकि वह झूठ का पैरेकार था। वह शर्मिन्दा हुआ और बोला– कबीर कहाँ गया ? उसको कौन उठाकर ले गया ? मैं अँघा तो नहीं हो रहा ? वह इधर-उधर देखने लगा, क्योंकि लोगों को कबीर की परछाई प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे रही थी। वह सारे हँस पड़े, जो कबीर जी को राम भक्त समझते थे, उन्हें आभास हो गया था कि राम शक्ति ने काजी को अँधा कर दिया है। घीरे-धीरे कबीर जी की परछाई गायब हो गई। घर के और बाहर के लोग हैरानी के गहरे सागर में गोते खाने लगे। काजी अपना पल्ला झाड़ के निकल गया और जाते-जाते कह गया कि वह हाकिम से इसकी शिकायत करेगा कि उसका निरादर हुआ है। काजी के जाने की देर थी कि कबीर जी फिर से लोगों के बीच प्रकट हुए। उन्होंने सभी की तरफ देखकर कहा– सारे खुशियां मनाओ ! जो कुछ पकाया है उसे खाओ, सुन्नत और हाकिम का ख्याल न करो। राम भली करेगा।


2. रविदास जी
रविदास जी पाँच साल के हो गए तो पिता सँतोखदास जी ने रविदास जी को पढ़वाने के लिए पण्डित शारदानँद जी के पास बताशे और रूपये लेकर हाजिर हुए। पण्डित जी ने रूपये ले लिए और बताशे बालकों मे बाँट दिए और कहा कि आप चिन्ता न करें, मैं आपके पुत्र रविदास जी को शिक्षा में निपुण कर दूँगा। पिता सँतोखदास जी बालक रविदास जी को दाखिला दिलवाकर वापिस आ गए। पण्डित जी ने रविदास जी को क, ख, ग आदि अक्षर पढ़ने और सीखने के लिए दिए पर रविदास जी चुपचाप बैठे रहे। यह देखकर पाठशाला के सारे विद्वान पण्डित आ गए और कहने लगे परन्तु बालक रविदास जी मस्त बैठे रहे। सब कहने लगे– देखो भाई ! इस नीच कुल के बालक के भाग्य में कहाँ विद्या है और इसे विद्या की सार ही क्या है ? और हँसने लग पड़े। परन्तु वह यह नहीं जानते थे कि श्री रविदास जी तो कुदरती विद्या पढ़े हुए थे इनके मन में कूट-कूटकर ज्ञान भरा हुआ था। रविदास जी ने सबसे पहला शब्द उच्चारण किया। यह आपकी बाणी का पहला शब्द है, जो कि पाठशाला में उच्चारण हुआ–

राग रामकली बाणी रविदास जी की
पड़ीऐ गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभउ भाउ न दरसै ॥
लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥१॥
देव संसै गांठि न छूटै ॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहु मिलि लूटे ॥१॥ रहाउ ॥
हम बड कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी ॥
गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥२॥
कहु रविदास सभै नही समझसि भूलि परे जैसे बउरे ॥
मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥३॥१॥  अंग 973

अर्थ– हे भाई ! वेदों, शास्त्रों, पुराणों को आप कितना भी पढ़ो और उसके दिए नामों को विचारों और सुनो तो भी असली ज्ञान नहीं हो सकता। जिस प्रकार लोहे को भट्टी में कितना भी गर्म कर लो, तपा लो तब भी वह सोना नहीं बन सकता, जब तक कि वह पारस के साथ न लगे। जन्मों-जन्मान्तर कि जो दुनियावी गाँठ दिलों में बँधी हुई है वह पढ़ने और सुनने से नहीं खुलती। काम, क्रोध आदि पाँच विषयों ने मनुष्य को लूट लिया है। यह बहुत भारी डाकू हैं। आपको यह अहँकार है कि आप बड़े कवि हो, ऊँचीं जाति के पण्डित हो, बहुत भारी जोगी और सन्यासी हो। आपने सारे वेद पढ़ लिए परन्तु कुमति यानि कि अहँकार रूपी बुद्धि दूर नहीं हुई। आपको अहँकार का डाकू लूटे जा रहा है। रविदास जी कहते हैं आप सब मूर्खों की तरह भूले हुए हों। उस परमात्मा के ठीक रास्ते और ज्ञान को नहीं समझते। मुझे केवल एक नारायण यानि कि परमात्मा के नाम का ही आसरा है वो ही मेरे प्राणों को कायम रखने वाला है। केवल विद्या पढ़कर ही परमात्मा की प्राप्ति नहीं समझ लेनी चाहिए। बालक रविदास जी के मुख से यह परमात्मिक उपदेश सुनकर सभी उनके आगे झुक गए और सभी एक साथ बोले कि यह बालक तो परमात्मा की और से ही सभी शिक्षा लेकर आया है। पढ़े हुए को कौन पढ़ाए ? तब पण्डित जी ने एक नौकर को भेजकर पिता सँतोखदास जी को बुलाया और उसे सारी जानकारी दी और कहा कि यह तो पहले से ही सब कुछ पढ़ा हुआ है। इसकी बुद्धि तो ऐसी है कि बड़े-बड़े ज्ञानी विज्ञानी भी जहाँ नहीं पहुँच सकते। इसलिए इस बालक को पढ़ाने का हममें सामर्थ नहीं है। यह बालक आने वाले समय में सँसार का उद्धार करेगा।

3. श्री गुरू नानक देव साहिब जी
जब नानक जी सात वर्ष के हुए तो पिता कालू जी ने उनकी शिक्षा का प्रबँध पण्डित गोपाल दास की पाठशाला में कर दिया। नानक जी अपने सहपाठियों के साथ प्रतिदिन देवनागरी की वर्णमाला सीखने लगे। आप एक बार में ही वह सभी कुछ कण्ठस्थ कर लेते। दूसरे बच्चों को एक-एक अक्षर सीखने में कई-कई दिन लगते। यह क्रम चलता रहा, जिससे पण्डित जी, नानक देव जी की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। एक दिन नानक जी ने अध्यापक गोपाल दास जी से प्रश्न किया– आप ने जो मुझे अक्षर सिखाए हैं उनका अर्थ भी सिखाएं। यह सुनकर पंडित जी चकित हो गये तथा सोचने लगे कि मुझसे ऐसा प्रश्न आज तक किसी विद्यार्थी ने नहीं किया। पण्डित ने कहा– नानक ! यह तो अक्षर मात्र हैं, जो कि दूसरे अक्षरों से योग कर, किसी वाक्य की उत्पत्ति करते हैं। हां अगर तुम्हें वर्णमाला के अर्थ आते हों तो मुझे भी बताओ ? नानक जी– ‘क’ अक्षर हमें ज्ञान देता है कि–

ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ।।
जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ।।
रागु आसा, पृष्ठ 432

अर्थ– जब मनुष्य के केश बुढ़ापे के कारण बिना साबुन प्रयोग किये सफेद होते हैं तो मानो यमराज का संदेश मिल रहा है। परन्तु व्यक्ति प्रभु का चिन्तन न कर माया के बन्धनों में बँधा रहता है। गोपाल पण्डित चकित होकर– बेटा नानक क्या तुम वर्णमाला के सभी अक्षरों के अर्थ जानते हो ? हाँ पण्डित जी, मैं आपको सभी अक्षरों का आध्यात्मिक अर्थ बता सकता हूँ कि यह हमें क्या ज्ञान देना चाहते हैं, नानक जी ने कहा। इस प्रकार नानक जी ने समस्त वर्णमाला के आध्यात्मिक अर्थ कर दिये। तब गोपाल दास पण्डित नानक जी से बहुत प्रभावित हुए तथा उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने नानक जी से पूछा– बेटा यह विद्या तुमने कहाँ से सीखी है ? तब नानक जी चुप्पी साधे रहे। इस पर पण्डित जी ने कहा– बेटा नानक कल तुम अपने साथ अपने पिता जी को मेरे पास ले आना। जब पिता कालू जी पण्डित गोपाल दास जी के पास पहुँचे तो उन्होंने उनका भव्य स्वागत किया तथा आदर सत्कार के पश्चात् कहा, मेहता कल्याण चन्द जी, तुम्हारा होनहार बालक मेरे पास पढ़ रहा है। इस लिए मैं गौरव अनुभव करता हूँ। पण्डित जी ने कहा मैं तो चाहता हूँ कि इसे किसी ज्ञानी पुरुष से शिक्षा दिलवाई जाती तो अच्छा था। क्योंकि यह बहुत ऊँची प्रकृति का स्वामी है। लेकिन मेहता कालू जी ने बार बार जोर देकर कहा कि आप ही इसे पढ़ाये, तब पण्डित जी का उनकी बात मानना पड़ी। उस दिन के पश्चात् पण्डित जी तथा नानक जी के बीच में अध्यापक-विद्यार्थी का रिश्ता समाप्त होकर, मित्रता तथा समानता के नये नाते ने जन्म लिया। अब नानक जी तथा पण्डित जी में आध्यात्मिक चर्चा होती। दस वर्ष की आयु होते-होते नानक जी ने पण्डित जी से पूरी तरह विद्या प्राप्त कर ली। गुरू नानक देव जी ने पाठशाला में तीन वर्ष के भीतर ही अपनी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर ली। गुरू नानक देव जी की आगे की शिक्षा पण्डित बृज लाल जी के यहाँ प्रारम्भ हो गई तथा नानक जी संस्कृत का अध्ययन करने लगे। दो वर्ष की अल्प अवधि में ही नानक जी ने सभी प्रकार के ग्रंथों का अध्ययन किया तथा शास्त्रार्थ भी सीख लिया। पण्डित बृज लाल जी को नानक जी की प्रतिभा पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने पण्डित गोपाल दास तथा पण्डित हरिदयाल जी से नानक जी के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था। अतः वह अति प्रसन्न थे कि यह लड़का उनका नाम रोशन करेगा।
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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