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2. भाई धर्म सिंघ जी

  • असली नाम: भाई धर्म दास जी
    1999 में अमृतपान करने के बाद नाम: भाई धर्म सिंघ जी
    पिता का नाम: भाई संतराम जी
    माता का नाम: माता माई साबो जी
    कुल आयु: 42 साल
    अमृतपान करते समय भाई जी की आयु: 33 वर्ष
    यह अमृतपान करने वाले पाँच प्यारों में से दुसरे प्यारे थे।
    यह औरंगजेब के पास जाफरनामा लेकर भाई दया सिंघ जी के साध गए थे।
    7 या 8 दिसम्बर की रात को गुरू गोबिन्द सिंघ जी के साथ चमकौर की गढ़ी का त्याग करते समय भाई दया सिंध जी के साथ यह भी थे।
    चलाना 1708 श्री नान्देड़ साहिब जी
    यादगार भाई दया सिंध और भाई धर्म सिंघ जी की याद में एक गुरूद्वारा साहिब, श्री नान्देड़ साहिब जी में सुशोभित है।

भाई धर्म सिंघ जी (1666-1708) एक किसान थे और वह गुरू गोबिन्द सिंघ जी द्वारा सजाए गए पाँच प्यारों में से एक थे। वह अमृतपान करने के बाद खालसा पंथ में शामिल हो गए। यह भाई संतराम और माता साबो जी के पुत्र थे। यह हस्तिनापुर, जो कि मेरठ से 35 किलोमीटर उत्तरपूर्व में (29°N, 77° 45'E) आधुनिक दिल्ली के पास है के निवासी थे। दसवें गुरू साहिबान से जुड़नाः जब यह 30 साल के थे तब वह गुरू के सिक्ख बन गए थे। इनका और गुरू गोबिन्द सिंघ जी के जन्म का वर्ष (1666) एक ही है। सिर की आहुति देनाः बैखाखी को गुरू जी ने एक विशेष स्थल में मुख्य समारोह का प्रारम्भ प्रातःकाल आसा की वार कीर्तन से किया। गुरू शब्द, गुरू उपदेशों पर विचार हुआ। दीवान की समाप्ति के समय गुरू जी मँच पर हाथ में नँगी तलवार लिए हुए पधारे और उन्होंने वीर रस में प्रवचन करते हुए कहादृ मुगलों के अत्याचार निरन्तर बढते जा रहे हैं। हमारी बहू.बेटियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं रही। अतः हमें अकालपुरूख परमात्मा की आज्ञा हुई है कि अत्याचार पीड़ित धर्म की रक्षा हेतु ऐसे वीर योद्धाओं की आवश्यकता है। जो भी अपने प्राणों की आहुति देकर दुष्टों का दमन करना चाहते हैं वह अपना शीश मेरी इस रणचण्डी (तलवार) को भेंट करें। तभी उन्होंने अपनी म्यान में से कृपाण (श्री साहिब) निकाली और ललकारते हुए सिंह गर्जना में कहा, है कोई मेरा प्यारा सिक्ख जो आज मेरी इस तलवार की प्यास अपने रक्त से बुझा सके, इस प्रश्न को सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। परन्तु गुरू जी के दोबारा चुनौती देने पर एक निष्ठावान व्यक्ति हाथ जोड़कर उठा और बोला, मैं हाजिर हूंए गुरू जी ! यह लाहौर निवासी दयाराम था। वह कहने लगाद, मेरी अवज्ञा पर क्षमा कर देंए मैंने देर कर दी। मेरा सिर आपकी ही अमानत है, मैं आपको यह सिर भेंट में देकर अपना जन्म सफल करना चाहता हूँ कृप्या इसको स्वीकार करें। गुरू जी उसको एक विशेष तम्बू में ले गये। कुछ ही क्षणों में वहां से खून से सनी हुई तलवार लिए हुए गुरू जी लौट आए तथा पुनः अपने शिष्यों या सिक्खों को ललकारा। यह एक नये प्रकार का दृश्य थाए जो सिक्ख संगत को प्रथम बार दृष्टिगोचर हुआ। अतः समस्त सभा में भय की लहर दौड़ गई। वे लोग गुरू जी की कला से परिचित नहीं थे। विश्वास.अविश्वास की मन ही मन में लड़ाई लड़ने लगे। इस प्रकार वे दुविधा में श्रद्धा भक्ति खो बैठे। इनमे से कई तो केवल मसँद प्रवृति के थेए जो जल्दी ही मानसिक सन्तुलन भी खो बैठे ओर लगे कानाफूसी करने कि पता नहीं आज गुरू जी का क्या हो गया है, सिक्खों की ही हत्या करने लगे हैं। इनमें से कुछ एकत्र होकर माता गुजरी के पास शिकायत करने जा पहुँचे और कहने लगे पता नहीं गुरू जी को क्या हो गया है ! वह अपने सिक्खों को मौत के घाट उतार रहे हैं। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो सिक्खी समाप्त होते देर नहीं लगेगी। यह सुनकर माता जी ने उन्हें साँत्वना दी अपनी छोटी बहु साहिब (कौर) जी को गुरू जी के दरबार की सुध लेने भेजा। माता साहिब (कौर) जी ने घर से चलते समय बताशे पल्लू में बाँध लिये और दर्शनों को चल पड़ीं। उधर दूसरी बार ललकारने पर श्रद्धावान सिक्खों में से दिल्ली निवासी धर्मदास जाट उठा। जाफरनाम लेकर जानाः गुरू जी के आहवान पर भाई दया सिंघ और भाई धर्म सिंघ जी अपने प्राणों को हथेली पर रखकर पत्र ले जाने को तत्पर हुए। उन्हें पत्र केवल औरँगजेब के हाथों में सौंपने का आदेश देकर गुरू जी ने विदा किया। प्रिंस मुअजम की सहायता करनीः 20 फरवरी सन 1707 को औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल तखत के लिए गुरू जी की और से मुअजम की सहायता के लिए भाई धर्म सिंघ जी को ही भेजा गया था। मैदान सिक्खों के हाथ रहा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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