SHARE  

 
jquery lightbox div contentby VisualLightBox.com v6.1
 
     
             
   

 

 

 

1. भाई दया सिंघ जी

  • जन्म: 1961, सोबती खत्री परिवार में, लाहौर
    पिता का नाम: भाई सुधा जी
    माता का नाम: माता माई दिआली जी
    असली नाम: दयाराम जी
    अमृतपान करने के बाद नाम: भाई दया सिंघ जी
    श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की आवाज पर कि उन्हें एक सिर चाहिए, सबसे पहले उठने वाले पाँच प्यारों में से एक।
    सबसे पहले पाँच प्यारे।
    सबसे पहले अमृतपान करने वाले सिक्ख, इस समय उनकी आयु 38 वर्ष थी।
    7 या 8 दिसम्बर की रात को गुरू गोबिन्द सिंघ जी के साथ चमकौर की गढ़ी का त्याग करते समय गुरू जी के साथ थे।
    यह भाई धर्म सिंघ जी के साथ जाफरनामा लेकर औरंगजेब के पास गए थे।
    अकाल चलाना: नान्देड़, 1708

यादगार: भाई दया सिंध और भाई धर्म सिंघ जी की याद में एक गुरूद्वारा साहिब, श्री नान्देड़ साहिब जी में सुशोभित है।
भाई दया सिंघ जी (26 अगस्त, 1661-1708) यह पाँच प्यारों में से सबसे पहले पाँच प्यारे हैं। इन्होंने सबसे पहले अमृतपान किया था। यह भाई सुधा जी के पुत्र थे। यह सोबती खत्री और लाहौर से थे। इनकी माता जी का नाम माता दिआली जी था। इनका असली नाम भाई दया राम था। इनका नाम गुरू जी के पाँच परम प्यारे सिक्खों में आता है और अरदास करते समय भी हम रोज कहते हैं कि पाँच प्यारे। भाई सुधा जी एक पक्के गुरूसिक्ख और गुरू तेग बहादर साहिब जी के श्रद्वालू सिक्ख थे और वह कई बार श्री आनन्दपुर साहिब जी दर्शन करने आए थे। एक बार वह अपनी बीमारी की दशा में स्वास्थ लाभ प्राप्त करके गए थे। सन 1677 में एक बार वह अपने परिवार और अपने पुत्र दयाराम के साथ आनंदपुर साहिब जी आए और दया राम जी यहाँ पर गुरू गोबिन्द सिंघ जी की छत्रछाया में रह गए और यही बस गए। दयाराम जी को पँजाबी और परशियन भाषा आ अच्छा ज्ञान था। यहीं पर उन्होंने गुरूबाणी का ज्ञान प्राप्त किया और अस्त्र शस्त्र की विद्या ग्रहण की। श्री आनंदपुर साहिब, 30 मार्च 1999: बैखाखी को गुरू जी ने एक विशेष स्थल में मुख्य समारोह का प्रारम्भ प्रातःकाल आसा की वार कीर्तन से किया। गुरू शब्द, गुरू उपदेशों पर विचार हुआ। दीवान की समाप्ति के समय गुरू जी मँच पर हाथ में नँगी तलवार लिए हुए पधारे और उन्होंने वीर रस में प्रवचन करते हुए कहा, मुगलों के अत्याचार निरन्तर बढते जा रहे हैं। हमारी बहू.बेटियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं रही। अतः हमें अकालपुरूख परमात्मा की आज्ञा हुई है कि अत्याचार पीड़ित धर्म की रक्षा हेतु ऐसे वीर योद्धाओं की आवश्यकता है। जो भी अपने प्राणों की आहुति देकर दुष्टों का दमन करना चाहते हैं वह अपना शीश मेरी इस रणचण्डी (तलवार) को भेंट करें। तभी उन्होंने अपनी म्यान में से कृपाण (श्री साहिब) निकाली और ललकारते हुए सिंह गर्जना में कहा, है कोई मेरा प्यारा सिक्ख जो आज मेरी इस तलवार की प्यास अपने रक्त से बुझा सके, इस प्रश्न को सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। परन्तु गुरू जी के दोबारा चुनौती देने पर एक निष्ठावान व्यक्ति हाथ जोड़कर उठा और बोला, मैं हाजिर हूँ गुरू जी ! यह लाहौर निवासी दयाराम था। जाफरनाम लेकर जाना: गुरू जी के आहवान पर भाई दया सिंघ अपने प्राणों को हथेली पर रखकर पत्र ले जाने को तत्पर हुए। उन्हें पत्र केवल औरँगजेब के हाथों में सौंपने का आदेश देकर गुरू जी ने विदा किया। जफरनामा को पढ़कर सम्राट औरंगजेब काँप गया। वह मानसिक रूप से इतना तनाव में आ गया कि वह बीमार पड़ गया। यही बीमारी औरँगजेब का काल बनी और वह सदा के लिए अपने झूठ के साथ ही दफन हो गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
            SHARE  
          
 
     
 

 

     

 

This Web Site Material Use Only Gurbaani Parchaar & Parsaar & This Web Site is Advertistment Free Web Site, So Please Don,t Contact me For Add.