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47. बंदा सिंघ बहादुर साहिब जी को यातनाएँ और उनकी शहीदी

दल खालसा के सिपाहियों की 12 मार्च 1716 ई0 तक सामूहिक हत्या का काम समाप्त हो गया था। परन्तु बंदा सिंघ और उसके सहायक अधिकारियों को कई प्रकार की यातनाएँ दी गईं। उनसे बार-बार पूछा जाता था कि तुम्हारी सहायता करने वाले कौन लोग हैं और तुमने विशाल धन सम्पदा कहाँ छुपा कर रखी है ? इस कार्य में मुग़ल प्रशासन ने तीन माह लगा दिए। परन्तु इसका परिणाम कुछ न निकला। सत्ताधिकारियों को इन लोगों से किसी प्रकार की कोई गुप्त सूचना न मिली। अंत में 9 जून सन् 1716 ई0 को सूर्योदय के समय ही बंदा सिंघ उसके चार वर्षीय पुत्र अजय सिंह, सरदार बाज सिंह, भाई फतह सिंह, आली सिंह, बख्शी गुलाब सिंघ इत्यादि को जो दिल्ली के किले में बंदी थे। उन्हें सरवहार खान कोलवाल और इब्राहीमुदीन खान मीर-ए-आतिश की देखरेख में जुलूस के रूप में किले से बाहर निकाला गया। जिस प्रकार इन्हें दिल्ली लाते समय किया गया था। उस दिन भी बेडियों में जकड़े हुए बंदा सिंघ जी को तिल्ले की कढाई वाली लाल पगड़ी और तिल्लेदार पोशाक पहनाई गई और हाथी पर बैठाया हुआ था। अन्य 26 सिक्ख जँजीरों से जकड़े हुए उनके पीछे चल रहे थे। इस प्रकार इन्हें पुराने नगर की गलियों में से कुतुबमीनार के समीप भूतपूर्व बादशाह बहादुरशाह की कब्र की परिक्रमा करवाई गई। बंदा सिंघ जी को हाथी से उतारकर धरती पर बैठाया गया और उन्हें कहा गया कि या तो वह इस्लाम स्वीकार करले अथवा मरने के लिए तैयार हो जाओ। परन्तु बंदा सिंघ जी ने बहुत धैर्य से मृत्यु को स्वीकार करके इस्लाम को ठुकरा दिया। इस पर जल्लाद ने उसके पुत्र को उसकी गोदी में डाल दिया और कहा कि लो इसकी हत्या करो। परन्तु क्या कोई पिता कभी अपने पुत्र की हत्या कर सकता है ? उन्होंने न कर दी। बस फिर क्या था जल्लाद ने एक बड़ी कटार से बच्चे के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और उसका तड़पता हुआ दिल निकालकर बंदा सिंघ जी के मुँह में ठूँस दिया। धन्य था वह गुरु का सिक्ख जो प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा मानकर पत्थर की मूर्ति की भाँति दृढ़ खड़ा रहा। जब बंदा सिंघ विचलित न हुआ। समीप में खड़े मुहम्मद अमीन खान ने जब बंदा सिंघ जी की आँखों में झाँका तो उसके चेहरे की आभा किसी अदृश्य दिव्यशक्ति से जगमगा रही थी। वह इस रहस्य को देखकर हैरान रह गया।

उसने कोतुहलवश बंदा सिंघ जी से साहस बटोरकर पूछ ही लिया: आप पर मुग़ल प्रशासन की तरफ से भयानक रकतपात करने का दोष है जो अपराध अक्षम्य है। परन्तु मेरे विचारों के विपरीत ऐसे दुष्टकर्मों वाले के मुखमण्डल पर इतनी ज्ञान तेजोमय ज्योति क्यों झलकती है ? तब बंदा सिंघ जी ने धैर्य के साथ उत्तर दिया: कि जब मनुष्य अथवा कोई शासन पापी और दुष्ट हो जाए और न्याय का मार्ग छोड़कर अनेक प्रकार के अत्याचार करने लग जाए, तो वह सच्चा ईश्वर अपने विधान अनुसार उन्हें दण्ड देने के लिए मेरे जैसे व्यक्ति उत्पन्न करता रहता है। जो दुष्टों का सँहार करें और जब उनका दण्ड पूरा हो जाए तो वह तुम्हारे जैसे व्यक्ति खड़े कर देता है ताकि उन्हें दण्डित कर दें। इस्लाम न कबूल करने पर जल्लाद ने पहले कटार से बंदा सिंघ जी की दाई आँख निकाल दी और फिर बाईं आँख। इसके पश्चात् गर्म लाल लोह की सँडासी (चिमटियों) से उनके शरीर के माँस की बोटियाँ खींच-खींचकर नोचता रहा, जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो गई। इन सब यातनाओं में बंदा सिंघ ईश्वर और गुरु को समर्पित रहे। वह पूर्णतः सन्तुष्ट थे। उन्होंने पूर्ण शाँतचित, अडिग तथा स्थिर रहकर प्राण त्यागे। बाकी के सिक्ख अधिकारियों के साथ भी इसी प्रकार का क्रूर व्यवहार किया गया और सबकी हत्या कर दी गई।

तत्कालीन इतिहासकारों के एक लिखित प्रसँग के अनुसार बादशाह फर्रूखसियार ने बंदा सिंघ व उसके साथियों से पूछताछ के मध्य कहा: तुम लोगों में कोई बाज सिंघ नाम का व्यक्ति है जिसकी वीरता के बहुत किस्से सुनने को मिलते हैं ?

इस पर बेडियों और हाथकड़ियों में जकड़े बाज सिंघ ने कहा कि: मुझे बाज सिंघ कहते है।

यह सुनते ही बादशाह ने कहा: अरे ! तुम तो बड़े बहादुर आदमी जाने जाते थे। परन्तु अब तुमसे कुछ भी नहीं हो सकता।

इस पर बाज सिंह ने उत्तर दिया: यदि आप मेरा करतब देखना चाहते है तो मेरी बेड़ियाँ खुलवा दें तो मैं अब भी आपको तमाशा दिखा सकता हूँ।

इस चुनौती पर बादशाह ने आज्ञा दे दी: इसकी बेड़ियाँ खोल दी जाएँ। बाज सिंघ हिलने डुलने योग्य ही हुआ था कि उसने बाज की भाँति लपककर बादशाह के दो कर्मचारियों को अपनी लपेट में ले लिया और उन्हें अपनी हथकड़ियों से ही चित्त कर दिया और वह एक शाही अधिकारी की ओर झपटा परन्तु तब तक उसे शाही सेवकों ने पकड़ लिया और फिर से बेड़ियों में जकड़ दिया गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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