8. दासू जी द्वारा गुरू कहलवाने का
असफल प्रयास
श्री गुरू अंगद देव जी ने जब गुरू अमरदास जी को अपना
उत्तराधिकारी घोषित किया तभी उन्होंने आदेश दिया कि अब आप गोइन्दवाल में ही रहेंगे
और वहीं से गुरूमति प्रचार–प्रसार करेंगे। अतः गुरू अमरदास जी ने गुरू जी के आदेश
अनुसार ही गोइन्दवाल साहिब जी को अपना मुख्यालय बनाया परन्तु दूर से आने वाली संगत
को इस बात का ज्ञान न था। वे लोग अन्जाने में खडूर साहिब पहुँच जाते थे। जब उन्हें
मालूम हुआ कि गुरू जी परमज्योति में विलीन हो गये हैं और उनके पश्चात नये गुरू उनके
सेवक अमरदास जी हैं तो उनमें से कई लोग गोइंदवाल पहुँच जाते, परन्तु कुछ लोग वहीं
रूककर गुरू अंगद देव जी के लड़कों को शीश झुकाकर नमस्कार करते और उनसे आर्शीवाद
प्राप्त करने की चेष्टा करते तथा कुछ भेंट में धन अथवा बहुमूल्य वस्तुएं दे जाते।
यह सब देखकर गुरू जी की पत्नी माता खीवी जी ने दासू जी को सावधान किया और फटकारते
हुए कहाः माना कि तुम गुरू के अँश हो परन्तु तुम्हें कोई अधिकार नहीं है भोले तथा
अन्जान लोगों से पूजा करवाने का क्योंकि यह अलौकिक दात केवल श्री गुरू अमरदास जी को
ही मिली है। यदि तुम नही मानोगे तो प्रकृति की तरफ से इसका उत्तरदायी होना पड़ेगा।
जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। परन्तु दासू जी को एक तरफ धन का मोह तथा दूसरी तरफ
प्रतिष्ठा, मान–सम्मान का मोह था, अतः माता खीवी जी का बात को उन्होंने नहीं माना।
एक बार फिर माता जी ने दासू जी को समझाने का असफल प्रयास किया और कहाः गुरूगद्दी
कोई विरासत नहीं है, वह तो प्रभु कृपा तथा विवेकी गुणों से प्राप्त होती है। यदि ऐसा
न होता तो श्री गुरू नानक देव जी के बाद उनके बेटे गुरू बनते जो कि हर दृष्टि से
योग्य भी थे परन्तु नहीं। उन्होंने बहुत परीक्षाओं के बाद तुम्हारे पिता जी को चुना
था। अतः फिर उन्होंने उसी विधि और उसी प्रथा अनूसार अमरदास जी का चयन किया है। अतः
तुम जानबुझ कर भूल मत करो नहीं तो लेने के देने पड़ सकते हैं। परन्त दासू जी एक कान
से सुनते और दूसरे से निकाल देते क्योंकि उनको गुरू कहलवाना बहुत प्यारा लगता था
इसलिए वह इस पद से मोह भंग नहीं कर पाये। प्रकृति ने खेल रचा जैसे–जैसे दासू जी लोगों
को वर अथवा शाप देते उसी प्रकार उनके सिर में पीड़ा रहने लगी। एक समय ऐसा आया उनको
मिरगी जैसे दौरे पड़ने लगे और दासू जी छटपटान लगे। माता जी से उनकी यह दशा नहीं देखी
गई, वह उनको लेकर गुरू अमरदास जी के पास क्षमा याचना करने पहुंची। जैसे जी गुरू जी
को मालूम हुआ कि माता खीवी जी उनसे भेंट करने आई हैं तो वह अगवानी करने के लिए
पहुंचे। और उन्होंने कहाः मुझे सन्देश भेजा होता, मैं ही आपके चरणों में उपस्थित हो
जाता।परन्तु माता खीवी जी ने उत्तर दियाः कि जरूरतमंद मैं हूं मुझे ही आना चाहिए था
और उन्होंने दासू जी को गुरू चरणों में दण्डवत प्रणाम करने को कहा। मरता क्या नही
करता परन्तु दासू जी ने अपने स्वास्थय लाभ के लिए वह सब कुछ किया जो वह नहीं चाहते
थे। परन्तु गुरू जी ने उन्हें उठाकर अपने कंठ से लगा लिया और कहाः आप हमारे आदरणीय
हैं, आप तो मेरे गुरू जी के जेठे सुपुत्र हैं। गुरू जी के स्पर्श मात्र से उनके
मस्तिष्क का भारीपन जाता रहा। इस प्रकार माता खीवी जी ने अपने पुत्र को क्षमा
दिलवाकर पुनः स्वास्थ्य लाभ लेकर वापिस घर आ गए।