7. पुत्री भानी के लिए वर का चयन
एक दिन गुरू अमरदास जी की पत्नि ने अपनी बेटी कुमारी भानी के
विवाह का सुझाव रखा और किसी योग्य वर की तलाश पर बल दिया। गुरू जी ने पुछाः कि आपको
किस प्रकार का वर चाहिए। मन्सा देवी जी ने कहाः जेठा जैसा कोई युवक (भाई जेठा जी
गुरू जी के अनन्य सेवक जो कि बाद में चौथे गुरू रामदास जी बने) होना चाहिए जो सेवा
में सदैव तत्पर रहता है। इस पर उत्तर में गुरू जी ने कहाः जेठा जैसा तो अन्य कोई
युवक हो ही नहीं सकता यदि जेठे जैसा दामाद चाहिए तो उसके लिए एक मात्र उसे ही
स्वीकार करना होगा। इस पर मन्सा देवी जी ने कहाः लेकिन बेटी भानी जी से भी पुछना
होगा। जब बेटी भानी जी से पुछा गया तो वह बोलीः आप जो उचित समझें, मुझे स्वीकार है।
गुरू जी ने भाई जेठा जी को बुलवा कर उनसे कहाः कि हम आपको अपना दामाद बनाना चाहते
है क्या तुम्हे यह रिश्ता स्वीकार है। जेठा जी यह बात सुनकर आवाक रह गये उनके
आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं था। जेठा जी गुरू जी के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने लगे
और कहाः हे गुरूदेव ! मैं तो अनाथ गलियों में ठोकरे खाने वाला एक मामूली आदमी हुं
आप के चरणों की धूल समान, आप मुझे इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं। गुरू जी ने कहाः
तेरी सेवा का मेवा और आदेश दिया कि जाओ बारात ले कर आओ ताकि विवाह सम्पन्न कर दिया
जाए। घर आकर जेठा जी ने अपनी नानी को खुशखबरी दी और बतायाः कि गुरूदेव जी ने आदेश
दिया है कि लाहौर जाकर बारात बनाकर लाओ। जेठा जी लाहौर से बारात लेकर आये तो श्री
गुरू अमरदास जी ने बारात का भव्य स्वागत करते हुए सन् 1553 तदानुसार संवत् 1610, 22
फाल्गुन को अपनी सुपुत्री कुमारी भानी जी का विवाह उनके साथ समपन्न कर दिया। जेठा
जी अब और भी उत्साह से सेवा करने लगे। अब उन्हें पूर्ण गुरू के साथ माता पिता का
स्नेह भी प्राप्त हो रहा था। जहां जेठा जी गुरमति-–गुणों से परिपूर्ण थे वही श्रीमती
भानी जी भी गुरू उपदेशों पर चलने वाली थीं। गुरू अमरदास जी का दामाद होना बड़े गर्व
की बात थी, इसके बावजूद जेठा जी को कभी अभिमान नहीं हुआ, बक्लि वह तो बड़-चड़कर सेवा
करने लगे और गुरू कार्यों में हिस्सा लेने लगे। इस प्रकार जेठा जी जहां संगतों के
लिए सुखद अनुभव का कारण थे, वहीं दूसरी ओर वह गुरू जी की दृष्टि में अपने लिए स्थान
बना रहे थे। गोइंदवाल में जब गुरू अमरदास जी ने श्री बाउली साहिब जी का निर्माण
प्रारम्भ करवाया तो जेठा जी ने अपनी प्रवृति अनुसार कर्तव्य निष्ठा की सीमाएँ पार
करते हुए सब से आगे आकर खुदाई का काम प्रारम्भ कर दिया और सिर पर मिट्टी का टोकरा
उठाकर बाउली से बाहर आने लगे। उन्होने न दिन देखा न रात बस मिट्टी खोद–खोदकर टोकरी
में भरते और दूर फेंक आते। उनकी सेवा अन्य सिक्खों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गई और
बाउली का निर्माण तीव्र गति से होने लगा।