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4. सेवा की परीक्षा और गुरू पद मिलना

अमरदास जी गुरू अंगद देव जी शरण में 1598 विक्रमी सम्वत् में आए थे। उस समय उनकी आयु 62 साल की थी। गुरू वाक अनुसारः

गुरमुखि बुढे कदे नाही जिन्हा अंतरि सुरति गिआनु अंग 1418

अमरदास जी ने गुरू जी के अमृत समय के स्नान की सेवा संभाल ली। वह रोज दो बजे उठकर दरिया ब्यास से पानी की गागर लाकर अपने हाथों से से बड़े प्रेम सहित गुरू जी को स्नान कराते थे। चाहे कितनी भी सर्दी तथा बारिश हो रही हो तो भी इस नियम को भँग नहीं होने देते थे। उस समय आपकी आयु 72 साल की थी। एक साल बाद आप गुरू जी के सिर का कपड़ा लेकर अपने सिर पर बांध लेते थे। सँसारी लोग आप पर कई प्रकार की बातें करते थे कि देखों कुड़म के घर टुकड़े तोड़ रहा है, परन्तु आप किसी बात की परवाह नहीं करते थे। एक दिन बहुत जोर की बारिश पड़ रही थी और सब रास्ते पानी और कीचड़ से भरे थे। उधर गुरू जी के स्नान का समय हो रहा था। अमरदास जी जब रास्ते में एक गाँव में एक जुलाहे के घर से गुजरने लगे तो उसकी ताना बुनने वाली वाली खड्डी में गागर समेत गिर पडे। जुलाहे ने अपने पत्नि को कहाः देखो तो कौन गिरा है ? जलाहे की पत्नि ने कहाः कि और कौन है वही अमरू है। जिसका ने कोई घर है न कोई घाट है, जो कुड़म के यहाँ टुकड़े तोड़ रहा है। यह बात सुनते की अमरदास जी ने नम्रता से कहाः अरी पगली ! में घर रहित नहीं हूं। बस गुरू के वाक अनुसार:

साधु का बोलया सहिज सुभा साधु का बोलया बृथा न जा

वह जुलाही उसी समय पागल हो गई और कपड़े फाड़ने लगी। जब गुरू अंगद देव जी ने स्नान करके, दीवान लगाकर अमरदास जी को सबके सामने बुलाकर कहा कि बताओ आपको रास्ते में किसी ने कुछ कहा है। अमरदास जी ने सारी बात सुना दी। गुरू अंगद देव जी ने प्रसन्न होकर अमरदास जी को कई वरदान दियेः

तुं निथावियों का थान, तुं निमानियों का मान, तुं निगतियों की गत
तुं निपतियों की पत तुं सबका स्वामी

गुरू जी के मुख से ये सुनकर सब सगंत को गुरू जी के भाव मालूम हो गये कि अमरदास जी ही अगले गुरू बनेंगे। उधर जुलाही को लेकर उसका पति आ गया और बड़ी विनम्रता से बेनती की और भूल की माफी मांगी, तब गुरू जी ने कृपा दृष्टि से उस जुलाही को ठीक और निरोग कर दिया। गुरू अंगद देव जी के साहिबजादों ने बहुत यत्न किया कि गुरू पद उनको मिले, परन्तु वह सफल न हो सके। गुरू जी, अमरदास जी को, मर्यादा अनुसार पांच पैसे और नारियल का माथा टेक कर सम्वत 1609 विक्रमी, सन 1552 को गुरू पद देकर जोती–जोत समा गये। श्री गुरू अमरदास जी ने गुरू पद मिलने पर कई महत्वपूर्ण कार्य किये। सबसे पहले आप जी ने गुरू अंगद देव जी के होते हुये ही गोइंदवाल नाम का नगर बसाया। इसके पश्चात् गुरू जी ने गुरू के लंगर का काम शुरू किया, गुरू के लंगर के चार नियम कायम किये: 1. "गुरू के लगंर" में विशेष सफाई रखने का हुक्म दिया। "बर्तनों की सफाई", दाल सब्जियों और हर प्रकार के अनाजों की सफाई। खास करके लांगरियों के वस्त्रों की सफाई रखनी आदि। 2. चौबीस घण्टे "लंगर जारी रखने" का हुक्म दिया। कोई पुरूष किसी भी समय आये, उसको ताजा भोजन मिलता था। 3. हर जाति का जैसे की "चूहड़ा, चमार, भील" आदि कोई भी हो, बिना संकोच के लंगर में एक ही संगत पंगत में बैठकर भोजन खाने का हुक्म दिया। 4. लंगर के संबंध में "राजा और भिखारी" एक समान होंगे। आपका हुक्म था कि कोई राजा हो या भिखारी पहले लंगर खायें और बाद में मेरे दर्शन करें, यहाँ तक कि एक समय अकबर बादशाह दिल्ली से चलकर गुरू जी के दर्शन को आया। उसके आने की खबर लेकर सेवादार आये परन्तु गुरू जी ने हुक्म दिया कि क्या हुआ जो अकबर है तो ? पहले गुरू का लंगर खाये, फिर दर्शन करे। ऐसा ही हुआ, अकबर ने पहले लंगर में सब प्रकार के निर्धन लोगों के बराबर बैठकर लंगर खाया और फिर गुरू जी के दर्शन किए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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