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27. जोती-जोत समाना

श्री गुरू अमरदास जी ने परम ज्योति में विलीन होने से पहले अपने परिवार के सभी सदस्यों को तथा संगत को एकत्रित किया और कुछ विशेष उपदेश दिये। इन उपदेशों को उनके पड़पौते सुन्दर जी ने राग रामकली में सदु के शीर्षक से एक रचना द्वारा बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है। श्री सुन्दर जी, श्री आनन्द जी के सुपुत्र तथा बाबा मोहर जी के पौते थे। यह बाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में सँकलित है। गुरू जी ने अपने प्रवचनों में कहाः मेरे "देहान्त" के बाद किसी का भी वियोग में रोना बिल्कुल उचित नहीं होगा क्योंकि मुझे ऐसे रोने वाल व्यक्ति अच्छे नहीं लगते। मैं परम पिता परमेश्वर की दिव्य ज्योति में विलीन होने जा रहा हूं। अतः आपको मेरे लिए एक स्नेही होने के नाते प्रसन्नता होनी चाहिए। गुरू जी ने कहाः सँसार को सभी ने त्यागना ही है, ऐसी प्रथा प्रभु ने बनाई है। कोई भी यहाँ स्थाई नहीं रह सकता, ऐसा प्रकृति का अटल नियम है। अतः हमें उस प्रभु के नियमों को समझना चाहिए और सदैव इस मानव जन्म को सफल करने के प्रयत्नों में वयस्त रहना चाहिए ताकि यह मनुष्य जीवन व्यर्थ न चला जाए।गुरू जी ने कहाः मेरी अँत्येष्टि क्रिया के समय किसी भी प्रचलित कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। मेरे लिए केवल प्रभु चरणों में प्रार्थना करना और समस्त संगत मिलकर हरि कीर्तन करना और सुनना। कथा केवल प्रभु मिलन की ही की जाए। इस कार्य के लिए भी संगत में से कोई गुरूमति ज्ञान का व्यक्ति चुन लेना, तात्पर्य यह है कि अन्य मति का प्रभाव नहीं होना चाहिए। केवल और केवल हरिनाम की ही स्तुति होनी चाहिए। आज्ञा देकर आप जी एक सफेद चादर तान कर लेट गए और शरीर त्याग दिया। आप एक सितम्बर 1574 को दिव्य ज्योति में विलीन हो गये।

सतिगुरि भाणै आपणै बहि परवारू सदाइआ ।।
मत मै पिछै कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ ।।

यथाः

अंते सतिगुरू बोलिआ मैं पिछै कीरतनु करिअहु निरबाणु जीउ।। अंग 923

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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