21. श्री गोइन्दवाल साहिब जी की बाउली गँगा सम
श्री गुरू अमरदास जी के दरबार में एक दिन उनका पुराना मित्र
मिलने आया। इस व्यक्ति की गुरू जी के साथ मित्रता की स्थापना उन दिनों हुई थी जब आप
प्रतिवर्ष गँगा स्नान के लिए जाया करते थे। प्रायः आप इस मित्र के साथ मिलकर ही
यात्रा पर निकलते थे। यह भक्तजन गुरू जी का वर्तमान वैभव देखकर आश्चर्यचकित हो रहा
था। उसने गुरू जी से आग्रह कियाः कि मैं गँगा स्नान के लिए जा रहा हूँ। आप भी मेरे
साथ चलें क्योंकि हम पुराने तीर्थ यात्री मित्र हैं। उत्तर में गुरू जी ने उस
भक्तगण को बहुत समझायाः कि समय अनुसार व्यक्ति को बदल जाना चाहिए। केवल गँगा स्नान
से कुछ होने वाला नहीं है, वास्तविक स्नान शरीर का नहीं आत्मा का होता है। जब तक
उसकी पवित्रता की ओर ध्यान नहीं दिया जाए तो शरीर का स्नान व्यर्थ हो चला जाता है।
अतः आत्मा की शुद्धि के लिए व्यक्ति भवसागर से पार हो सकता है। किन्तु भक्तगण हठी
था, वह कहने लगाः कि मैं जीवनभर प्रतिवर्ष गँगा स्नान पर जाता रहा हूँ, अब जीवन के
अन्तिम दिनों में यह नियम नहीं तोड़ सकता। इस पर गुरू जी ने कहा कृप्या आप हमारी
तूँबड़ी (कड़वा फल) साथ ले जाए और हमारे स्थान पर सभी तीर्थों पर इसे स्नान करवा कर
लौटा लाएँ। यह गँगा भक्त गुरू जी से तँबूड़ी लेकर तीर्थयात्रा पर चला गया। इस बार
उसने श्रद्धावश बहुत से अन्य तीर्थों की भी यात्रा की और प्रत्येक स्थान पर स्वयँ
स्नान किया और गुरू जी की तँबूड़ी को भी स्नान करवाता रहा। जब लम्बे समय पश्चात वह
घर लौटा। तो रास्ते में श्री गोइंदवाल में उसने तूँबड़ी गुरू जी को लौटा दी और कहाः
कि मैं आपकी आज्ञा अनुसार इसे बहुत से तीर्थों पर स्नान करवा के लाया हूं। गुरू जी
ने कहाः कि आपने बहुत ही परोपकार किया है। हम इसे अभी संगत में प्रसाद रूप में बाँट
देते हैं क्योकि यह तँबूड़ी बहुत से तीर्थों के स्नान के बाद पवित्र हो गई है। गुरू
जी ने आदेश दिया और तूंबड़ी छोटे-छोटे टुकड़ो में काटकर संगत में वितरण कर दी गई,
परन्तु यह क्या ! वो तो वैसी की वैसी कड़वी थी, किसी से नहीं खाई गई और सभी ने थू–थू
करके फैंक दी। अब प्रश्नवाचक दृष्टि से गुरू जी ने उस गंगा भक्त की और देखा और कहाः
आपने तो हमारी तूँबड़ी को अनेक तीर्थों पर स्नान करवाया था, फिर यह कड़वी कैसे रह गई।
इनकी कड़वाहट मिठास में परिवर्तित होनी चाहिए थी। इस पर उस भक्तगण को कोई उत्तर नहीं
सूझा और वह जीवन का रहस्य जानने के लिए उत्सुकता प्रकट करने लगा। गुरू जी ने उसे
अपने प्रवचनों में कहाः केवल शारीरिक स्नान आध्यात्मिक दुनियाँ में कोई महत्व नहीं
रखता, जब तब उसमें हरिनाम रूप अमृत नहीं मिश्रित नहीं किया जाये। कोई भी वस्तु तभी
पवित्र होती है, जब वह हनिनाम के वातावरण में पहुँच जाती है। इसके लिए हमें अपने
दिल रूपी मन्दिर में हरिनाम रूपी जल से स्वच्छ करना ही होगा, नहीं तो हमारे कार्य
केवल कर्मकाण्ड बनकर निष्फल होकर रह जायेंगे और हमारा परिश्रम व्यर्थ नष्ट हो जाएगा।
काइआ हरि मंदरू हरि आपि सवारे ।।
तिसु विचि हरि जीउ वसै मुरारे ।। अंग 1059, राग मारू
इस भक्तगण की जिज्ञास तीव्र हुई और वह गुरू जी के सानिध्य में
रहकर उनके प्रवचनों को श्रवण करने की तीव्र इच्छा से श्री गोइँदवाल साहिब ठहर गया।
अगली प्रभात को जब वह स्नान के लिए बाउली में डुबकी लगा रहा था तो उसने पाया कि उसके
पाँव के नीचे कोई बर्तन आ गया है, जैसे ही उसने बर्तन को बाहर निकाला तो उसक
आश्चर्य का ठिकाना न रहा, वह वही करमण्ड था जो लौटते समय जल भरते हुए गँगा की तीव्र
धारा में हाथ से छूटकर बह गया था। इस पर गँगा भक्त ने उसको ध्यान से देखा उस पर उसी
का नाम लिखा हुआ था। वह गुरू जी के चरणों में लौटा और इस रहस्य को जानने की उत्सुकता
प्रकट की। गुरू जी ने अपने प्रवचनो में स्पष्ट किया कि सभी आध्यात्मिक प्राप्तियाँ
दिल की भावनाओं से संबंध रखती हैं। जो व्यक्ति जिस भावना से आराधना करेगा, प्रभु
अपने भक्त का उसी रूप में प्रकट होकर मिलते हैं। आज आपने बाउली में स्नान करते समय
गँगा जी का ध्यान करके डुबकी लगाई थी तो प्रभु ने आपके लिए बाउली को गँगा बना दिया।
यह सब आपकी भावना का प्रतिफल है।