19. सम्राट अकबर को सन्तुष्ट किया
एक बार अकबर के दरबार में कुछ रूढ़िवादी कट्टरपँथियों का
प्रतिनिधिमण्डल पहुँचा और न्याय की पुकार करने लगा कि हम सनातन हिन्दु हैं हमारे
जीवन में कर्मकाण्ड अनिवार्य है, किन्तु गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी एक नई
प्रथा चला रहे हैं, जिससे वह हमारे कर्मकाण्डों पर गहरी चोट कर रहे हैं। उनका कहना
है कि इन कर्मों को करने से समय और धन व्यर्थ नष्ट करना है इससे किसी उद्धेश्य की
पूर्ति नहीं होती, जबकि दिल से किये गये कार्य ही फलीभूत होते हैं। इस प्रकार ये
लोग समाज में पण्डित अथवा पुरोहित के महत्व को समाप्त कर रहे हैं। जिससे हमारी
जीविका में बाधा उत्पन्न हो गई है और हम कहीं के नहीं रहे। अकबर ने सभी आरोप
घ्यानपूर्वक सुने और उसने पाया कि यह आरोप नहीं बल्कि समाज का शोशण करने वालों
द्वारा बनाया गया एक महापुरूष के खिलाफ षड्यन्त्र है, जिससे वे राजबल से सत्य का
दमन करना चाहते हैं। अकबर ने कहा कि हम दोनों पक्षों को सुनने के बाद ही कोई निर्णय
कर पायेंगे। इस प्रकार अकबर ने श्री गुरू अमरदास जी को सन्देश भेजा कि आप दर्शन दें
अथवा अपने किसी प्रतिनिधि को भेजें जिससे पण्डित वर्ग के आरोपों का समाधान किया जा
सके। गुरू जी ने जेठा जी को अपना प्रतिनिधि नियुक्त करके लाहौर नगर भेजा। यह घटना
1566 के लगभग की है। अकबर ने विशेष गोष्टि के विचार से दोनों पक्षों को आमने–सामने
बैठा दिया और पण्डित वर्ग को आरोपों की सूची पढ़ने के लिए कहा। पण्डितों ने पहले
आरोप में कहाः इन लोगों ने मनु स्मृति के बनाये नियम को रद्द किया है और उनके द्वारा
बनाये वर्ण आश्रम को ठुकरा कर समाज को खिचड़ी जैसा बना दिया है। यह लोग पण्डितों को
सामान्य व्यक्ति ही मानते हैं। उनके लिए कोई विशेष आदर सम्मान नहीं देते।उत्तर में
गुरूदेव के प्रतिनिधि भाई जेठा जी ने कहाः हम गुरू नानक देव जी द्वारा दर्शाए मार्ग
पर चलते हैं, उन्होंने समाज का वर्गीकरण नहीं माना उनकी दृष्टि से सभी मानव समानता
का अधिकार रखते हैं। जन्म से कोई छोटा बड़ा नहीं हो सकता बडप्पन व्यक्ति की योग्यता
पर निर्भर करता है, इसी सन्दर्भ में गुरू अमरदास जी का कथन हैः
जाति का गरबु न करीअहु कोई ।। बह्मु बिंदे से ब्राह्मम्ण होई
।।
जाति का गरबु न करि मुरण गवारा ।।
इस गरब से चलहि बहुतु बिकारा ।। रहाउ ।।
चारे वरन आखै सभु कोई ।। ब्रह्म बिदु से सभ ओपति होई ।।
माटी का सगल संसारा ।। बहु बिधि भांडे घड़े कुमारा ।।
अर्थः किसी भी व्यक्ति को स्वर्ण जाति का झूठा अभिमान नहीं करना
चाहिए, क्योंकि ऐसा विचारने से व्यक्ति आधात्मिक प्राप्तियों से वंचित रह जाता है
और समाज में भी विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं। छोटा या बड़ा बनाना यह प्रभु ने अपने
हाथ में रखा है। सम्राट अकबर इस उत्तर से खुश हुआ और कहने लगाः कि मैं भी तो यही
चाहता हुं कि कोई किसी से जाति–पाति के मनधडंत नियमों से घृणा न करें और सभी आपस
में प्रेम से रहें। पण्डितों के पूछा गया कि आपका दूसरा आरोप क्या है ? पण्डितों ने
सोच विचार के बाद कहाः हजूर, यह लोग स्त्रियों को बराबर का सम्मान देते हैं। विधवा
विवाह के लिए आज्ञा देते हैं और कहते हैं कि विधवा का सती नहीं होना चाहिए। ये तो
नवविवाहिता को घूँघट भी नहीं निकालने देते और कहते हैं कि ससुर व जेठ पिता व भाई
समान हैं, उनसे घूँघट कैसा ?उत्तर में भाई जेठा जी ने कहाः हमारे गुरूदेव ने नारी
जाति पर अमानवीय अत्याचारों को देखा है। अतः वह समाज की इस बुराई का कलँक मिटा देना
चाहते हैं। इस बारे में उनका विचार है:
सतिआं एहि ने आखीअनि जो मड़ियां लगि जलनि ।।
नानक सतीआं जाणीअनि जि बिरहे चोट मरनि ।।
भी सो सतीआं जाणीअनि सील संतोखि रहनि ।।
सेवन सोई आपणा नित उठि समालिन ।। राग सूही महला 3 अंग 787
अर्थः विधवा नारी को बलपूर्वक अथवा फुसलाकर पति की चिता पर जला
डालने से वह सती नहीं हो जाती। सती तो वह है जो पति की याद में संजमी, सन्तोशी,
निष्कामी जीवन जी कर चले और पति के वियोग की पीड़ा में सदाचारी जीचन जीते हुए प्रभु
के कार्यों पर सन्तुष्टि व्यक्त करे। अकबर ने यह सुनकर कहा इस बात में भी तथ्य है,
इससे तो समाज में नई क्रांति आयेगी। वह पण्डितों से बोला ओर कोई आरोप है, तो बताओ।
पण्डितो ने कहाः यह लोग शास्त्र तथा वैदिक परम्पराओं को तिलाँजली दे रहे हैं। यह न
मूर्ति की पूजा करते हैं और नाहीं देवी देवताओं की पूजा करते हैं। इन्होंने गायत्री
मँत्र के स्थान पर किसी नये मँत्र की उत्पति कर ली है और तीर्थ यात्राओं को निष्फल
बताते हैं। उत्तर में भाई जेठा जी ने कहाः गुरू नानक देव जी का हमें आदेश है कि
प्रभु अर्थात पारब्रह्म परमेश्वर केवल एक ही है, उसका प्रतिद्वन्द्वी कोई नहीं है,
क्योंकि प्रभु सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक है, इसलिए उसे ही सर्वोत्तम शक्ति के रूप
में बिना मूर्ति के पूजते हैं और उसके बदले में हम किसी देवी–देवताओं की कल्पना भी
नहीं करते। रही बात गायत्री मँत्र की, तो गुरू नानक देव जी के कथन अनुसार गायत्री
केवल सूर्य उपासना का मँत्र है, जो कि केवल एक ग्रह है। उस जैसे करोड़ों सूर्य इस
ब्रह्मण्ड में विद्यमान हैं। अतः हम इन सबके निर्माता जो कि केवल परमात्मा अकाल
पुरख है, हम उसके पूजारी हैं और हमारा मँत्र उस परमेश्वर की स्तुति में, उसकी
परिभाषा के रूप में है, जिसे हम मूलमँत्र कहते हैं:
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं
गुर प्रसादि ॥
ੴ (एक ओअंकार) : अकाल पुरख केवल एक है, उस जैसा और कोई नहीं तथा वह हर जगह एक
रस व्यापक है।
सतिनामु: उसका नाम स्थायी अस्तित्व वाला व सदा के लिए अटल है ।
करता: वह सब कुछ बनाने वाला है।
पुरखु: वह सब कुछ बनाकर उसमें एक रस व्यापक है।
निरभउ: उसे किसी का भी भय नहीं है।
निरवैरु: उसका किसी से भी वैर नहीं है।
अकाल मूरति: वह काल रहित है, उसकी कोई मूर्ति नहीं, वह समय के प्रभाव से मुक्त है।
अजूनी: वह योनियों में नहीं आता, वह न जन्म लेता है व न ही मरता है।
सैभं: उसे किसी ने नहीं बनाया, उसका प्रकाश अपने आप से है।
गुर प्रसादि: ऐसा अकाल पुरख गुरू की कृपा द्वारा मिलता है।
हमारे गुरूदेव के अनुसार तीर्थ स्थान वहीं होता है, जहां संगत
मिलकर प्रभु स्तुति करे अथवा कोई पूर्ण पुरूष मानव कल्याण के कार्य करे। अकबर इन
उत्तरों से बहुत प्रसन्न हुआ और वह कहने लगाः इस्लाम में भी अल्लाह को ही एक मानकर
उसकी बिना मूर्ति के इबादत की जाती है, किसी भी फरिशते इत्यादि पर इमान नहीं लाया
जाता। उसने कहा कि में ऐसे महान गुरू के दीदार करना चाहता हूँ, उसने पण्डितों के
आरोपों को तुरन्त खारिज कर दिया। इस पकार भाई जेठा जी अकबर को सन्तुष्ट करने में
कामयाब रहे और पण्डितों के समस्त आरोप बेबुनियाद साबित हुए।