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17. भाई पारो जुल्का जी

भाई पारो जुल्का जी डला नगर के निवासी थे। आपने श्री गुरू अंगद देव जी से दीक्षा प्राप्त की थी। जिससे आप नाम अभ्यासी पुरूष बन गये। आप कोई भी क्षण व्यर्थ नहीं जाने देते थे। आपके दिल में सदैव प्रभु चिन्तन–मनन चलता रहता था। नाम की कमाई से आपकी आत्मा निर्मल हो गई और वह अभय होकर साँसारिक कार–व्यवहार में भी यथायोग्य भाग लेते रहते थे। आप अपने क्षेत्र में गुरमति का प्रचार–प्रसार भी करते। कई भूले–भटकों को गुरू जी की शरण में पहुँचाते। आपका जीवन जन–साधारण के लिए प्रेरणा स्त्रोत होता। आप दीन–दुखियों की निष्काम सेवा में जुटे रहते। आपके लिए समस्त जीव मानव जाति एक प्रभु की सन्तान थी। आपने किसी को भेदभाव से देखा ही नहीं, बस एक ही लक्ष्य सभी का कल्याण हो। आप एक कुलीन परिवार के जमींदार थे, परन्तु मिलनसार इतने कि गरीब मजदूरों को भी आदर सम्मान देकर बुलाते। अभिमान तो आप में लेशमात्र भी न था। जब भी अवकाश मिलता गुरू दर्शनों के लिए श्री गोइन्दवाल साहिब चले जाते थे। एक दिन जब आप गुरू जी के दर्शन की अभिलाषा लेकर व्यासा नदी के किनारे पहुँचे तो नदी में बाढ़ के कारण पानी कुछ अधिक था। नदी के किनारे सैनिकों की एक टुकड़ी प्रतिक्षा में खड़ी थी कि बाढ़ का पानी कम हो जाये तो हम नावों द्वारा नदी पार करके लाहौर के लिए प्रस्थान करें। तभी पारो जी ने एक उचित स्थान देखकर बिना भय के गुरू को मन में ध्यान करके घोड़ा नदी में प्रवेश करवा दिया और देखते ही देखते बाढ़ के रहते नदी पार कर गये। यह सब दृश्य वहां पर खड़ा सैनिक टुकड़ी का अधिकारी अब्दुल्ला देख रहा था, वह बहुत आश्चर्य चकित हुआ, उसने भी पारो जी की नकल करने का प्रयास किया परन्तु वह बुरी तरह असफल रहा, क्योंकि पानी का बहाव बहुत तीव्र गति में था। सँध्या के समय गुरू जी से विदा लेकर जब उसी विधि अनुसार नदी पार करके भाई पारो जी लौट रहे थे। तो सैनिक टुकड़ी के अधिकारी अब्दुल्ला ने उन्हें पूछाः कि आपने नदी दो बार पार की है, ऐसी कौनसी बात थी जिसके लिए आपने अपने जीवन को सँकट में डालकर नदी को पार करना आवश्यक समझा। उत्तर में भाई पारो जी ने कहाः मैं अपने गुरू के दिदार के लिए अक्सर जाता रहता हूँ। मेरे गुरू और मेरे बीच यह नदी नाले कभी भी रूकावट नहीं बने। हमारी मुहब्बत हमें अपने आप रास्ता देती है। मैं तो केवल उनका ध्यान करके अल्लाह का नाम लेता रहता हूं।इस पर अब्दुल्ला खान ने इच्छा प्रकट कीः मैं उनके दिदार करना चाहता हूं। मुझे भी उनसे मिलाओ। इस पर भाई पारो जी ने उसे समझायाः वहाँ इस रूप में जाने का कोई लाभ नहीं होगा। उसके लिए आपको एक सैनिक अधिकारी से एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण करना होगा क्योंकि नम्र बनकर और झुककर जाने से प्राप्तियाँ होती हैं। अब्दुल्ला ने बात को धैर्य से समझा और कहाः ठीक है, आप जब कल गुरू जी के दर्शन को जाओगे तो मुझे भी साथ लेकर जाना। दूसरे दिन भी बाढ़ की स्थिति वैसी की वैसी थी। जब भाई पारो जी आये तो अब्दुल्ला ने अपनी सेना की रहनुमाई अपने बेटे को सौंप दी और स्वयँ भाई पारो जुल्का जी के साथ उसी विधि अनुसार नदी में उतर गये और देखते ही देखते सहज में ही पार करके श्री गोइंदवाल साहिब में गुरू जी के पास पहुँच गये। पारो जी ने गुरू जी से हाकिम अब्दुल्ला का परिचय कराया। उन्होंने उसकी जिज्ञासा तथा श्रद्धा देखकर उसे कँठ से लगाया और आध्यात्मिक उपदेश दिया। अब्दुल्ला भी गुरू जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ और गुरू जी के चरणों में रहने की इच्छा प्रकट की। गुरू जी ने सहर्ष उनको अपने सानिध्य में रहने की अनुमति दे दी। इस प्रकार हाकिम अब्दुल्ला गुरू जी की छत्रछाया में बँदगी करने में जुट गया। वह धीरे–धीरे नाम अभ्यासी बन गया और लगा अल्लाह–अल्लाह करने। लोगों ने जब उसके अगाध प्रेम को देखा तो उसे अल्लाह का यार कहना शुरू कर दिया जो बाद में उनके नाम में बदल गया और उनका नाम अल्लाह यार खान हो गया।गुरू जी भाई पारो जुल्का जी की निष्ठा भक्ति से इतने प्रभावित हुए कि एक दिन उनको कहाः मैं तुम्हें अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता हूँ। मेरे बाद अगले गुरू आप होंगे। यह सुनकर भाई पारो जी ने बहुत ही विनम्र भाव से गुरू जी के चरणों में प्रार्थना कीः मुझे आप सेवक ही रहने दें। यह भारी उत्तरदायित्व सम्भालना मेरे बस की बात नहीं। इस पर गुरू जी ने उनको परम हँस के अलँकार से सम्मानित किया और उनके साथ हाकिम अब्दुल्ला जी को भी अपना प्रतिनिधि बनाकर उन्हें उनके पैतृक गाँव में गुरमति प्रचार के लिए भेज दिया अथवा मँजीदार नियुक्त किया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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