15. नथो तथा मुरारी
लाहौर नगर में एक धनाढय परिवार था। इस परिवार का इकलौता पुत्र
प्रेमा जब युवावस्था में पहुँचा तो धन की अधिकता के कारण उसे बहुत से व्यसन लग गये।
वह ऐश्वर्य का जीवन जीने के प्रलोभन में कुसँगत के चक्रव्यूह में ऐसा फँसा कि वहाँ
से उसका निकलना कठिन हो गया। अभिवाहकों ने बहुत प्रयत्न किया कि किसी प्रकार उनका
पुत्र उज्जवल चरित्र का जीवन व्यतीत करे परन्तु सब प्रयास असफल रहे। इसी मानसिक पीड़ा
में उनका देहान्त हो गया। सारी सम्पति युवक प्रेमो के हाथ लग गई। अब उस पर किसी
प्रकार का अँकुश नहीं था, वह बिना विचारे सम्पति का दुरूपयोग करने लगा। कुसँगियों
ने उसे अययाशी तथा जुए की ऐसी दल–दल में धकेल दिया कि वह सारा धन धीरे–धीरे नष्ट
करता चला गया। दूसरी तरफ शरीर को एक भयँकर सँक्रामक रोग सूजाक हो गया। यह रोग
असाध्य माना जाता है। इसका उपचार नहीं हो सकता। इसमें रोगी को पीड़ा और कष्ट भी बहुत
होता है। जब यह यौन रोग चर्म सीमा पर पहुँचा तो सभी कुसँगी सँक्रामक रोग के कारण
निकट नहीं आते थे और वह सदा के लिए साथ छोड़कर भाग गये। धन तो पहले जी नष्ट हो चुका
था। अब युवक प्रेमा न मरों में था न जिवित लोगों में था, उसके निकटवर्ती उसको मुँह
नही लगाते थे। इसलिए वह दर–दर भटकने लगा और भिक्षा माँगकर पेट की आग बुझाने लगा।
समाज के व्यँग सुनने को मिल रहे थे और स्वयँ भी पश्चाताम की आग में जल रहा था परन्तु
समय हाथ से निकल गया था। अब उसके पास सामने एक ही रास्ता था आत्महत्या करने का। उसने
आत्महत्या के भी असफल प्रयास किये, जिससे उसके कष्ट और भी बढ़ गये। अन्त में किसी
दयालु पुरूष ने उसे सुमति दी कि तुम अब किसी महापुरूष की शरण में जाओ और प्रायश्चित
करो तभी तुम्हारा कल्याण होगा। कुष्ठी प्रेमो को इस बात में कुछ सार अनुभव हुआ। वह
लोगों से पूछता फिरता कि वह कौन से पूर्ण पुरूष हैं जिनकी शरण में जाने से मेरा
कल्याण हो सकता है। इतफाक से काबूल की संगत श्री गोइंदवाल साहिब जा रही थी तो उनको
वह प्रेमा कुष्ठी मिल गया। उसका विलाप और कष्ट देखकर संगत में से कुछ सिक्खों को उस
पर दया आ गई। वह उसके एक बैलगाड़ी पर बिठाकर श्री गोइंदवाल साहिब जी ले आये। प्रेमा
कुष्ठी ने मुख्य मार्ग पर जो गुरू दरबार को जाता था, वहाँ एक किनारे पेड़ के नीचे
आसन जमाया और भजन गाने लगा। लोग उस पर दया करते हुए जीवन–निर्वाह करने की आवश्यक
वस्तुएं दे देते। इस प्रकार समय व्यतीत होने लगा। इस बीच कुष्ठी प्रेमा को इस बात
का अहसास हो गया कि कुकर्मों के प्रायश्चित के लिए यही उपयुक्त स्थान है, वह सदैव
गुरू चरणों का ध्यान धर कर भजन–बँदगी में भी व्यस्त रहता और कभी-कभी जब पीड़ा असहाय
हो जाती तो ऊँचे स्वर में गाते हुए कहताः
"मैंने खोया हुआ रतन फिर से पा लिया है"
एक दिन पीड़ा से वह बहुत ऊँचे स्वर में गाने लगा। गुरू जी ने उसकी
पुकार सुनी और सेवकों से कहाः कि जाओ, उस कुष्ठी को बाउली के पवित्र जल से स्नान
करवाकर दरबार में ले आओ। बस फिर क्या था, कुछ सेवक तुरन्त गये और कुष्ठी को स्नान
करवाने के लिए बाउली के जल में डुबकी लगवाई। जब उसे बाहर निकाला गया तो अकस्मात
कुष्ठी निरोग होकर वापस निकला। सभी सिक्खों की गुरू वचनों पर अगाध श्रद्धा और अधिक
बढ़ गई। वे देख रहे थे कि कुष्ठी प्रेमा अब कुष्ठी नहीं है, उसका शरीर सामान्य
स्वस्थ युवक जैसा निरोग है। वे जल्दी ही लाल नये वस्त्रों में प्रेमा को लपेटकर गुरू
जी के समक्ष हाजिर हुए। गुरू जी प्रेमा जी को देखकर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने कहाः
यह युवक तो मुरारी जैसा सुन्दर है और इसे तो आपने दूल्हा बना दिया है। बस उनके मन
में एक लहर उठी और उन्होंने कहाः कि है कोई मेरा प्यारा सिक्ख जो इस मुरारी जैसे
दूल्हे को कन्या वधू रूप में प्रदान करे। यह आदेश सुनते ही एक गुरूसिक्ख भाई शीहाँ
जी संगत में से उठे और विनती करने लगेः कि मेरी सुपुत्री वर के योग्य हो गई है, यदि
आप आज्ञा प्रदान करें तो इस युवक का विवाह सम्पन्न कर दें। गुरू जी ने जोड़ी को
आर्शीवाद दिया और कहाः तुम दोनों की गृहस्थी सफल सिद्ध हो। तभी वधू की माता का सूचना
मिली कि तुम्हारी पुत्री का विवाह उस कुष्ठी के साथ निश्चित कर दिया गया है, जो
गुरूदरबार के बाहर भिक्षा मांगा करता था। बस फिर क्या था, वह जल्दी से गुरू दरबार
में पहुँची। और बहुत गिले–शिकवे भरे अन्दाज में गुरू जी से प्रश्न कियाः कि मेरी
पुत्री ही भिखारी–कोढ़ी के लिए रह गई थी।तब गुरू जी ने उसे धीरज बँधाया और बहुत सहज
भाव से उसे कहाः हमने तुम्हारी पुत्री का विवाह अपने पुत्र मुरारी के साथ निश्चित
किया है, वह भिखारी प्रेमा कुष्ठी नहीं है। जब वधू मथो की माता ने मुरारी को देखा
तो उसकी कायाकल्प हो चुकी थी, वह एक स्वस्थ नवयुवक दुल्हा था। तभी माता को संतोष
हुआ और गुरू आज्ञा के समक्ष सिर झुका दिया। इस जोड़ी को गुरू जी ने गुरमति के प्रचार
के लिए मँजी (प्रतिनिधी) देकर उनके पैतृक गाँव में भेज दिया।