14. गँगू शाह
श्री गुरू अमरदास जी के दरबार में दर्शनार्थियों की सदैव भीड़ बनी
रहती थी। एक दिन लाहौर नगर का एक व्यापारी आपके समक्ष उपस्थित हुआ और विनती करने लगा
कि गुरू जी मेरे व्यापार में स्थिरता नहीं रहती। मैंने बहुत घाटे खाये हैं। कृप्या
कोई ऐसी युक्ति बताएं कि जिससे बरकत बनी रहे। उत्तर में गुरू जी ने कहाः गँगू शाह !
तेरे व्यापार में प्रभु ने चाहा तो बहुत लाभ होगा। यदि अपनी आय में से प्रभु के नाम
से दसवंत यानि कि अपनी आय का दसवाँ भाग निकालकर जरूरतमंदों की सहायता करने में खर्च
करने लग जाओगे तो। गुरू जी इस व्यापारी को पहले से ही जानते थे। कभी समय था जब आप
व्यापार के विषय में बासरके से इस साहूकार के लाहौर में सहयोगी हुआ करते थे।गंगू
शाह ने वचन दिया और कहाः कि आपका आर्शीवाद प्राप्त होना चाहिए। मैं दसवंत की राशि
धर्मार्थ कार्य पर खर्च किया करूँगा। वह गुरू जी से आज्ञा लेकर दिल्ली नगर चला गया।
वहा उसने नये सिरे से व्यापार प्रारम्भ किया। धीरे–धीरे व्यापार फलीभूत होने लगा।
कुछ समय में ही गंगूशाह बड़े साहूकारों में गिना जाने लगा। एक बार प्रशासन को एक लाख
रूपये की लाहौर नगर के लिए हुँडी की आवश्यकता पड़ गई। कोई भी व्यापारी इतनी बड़ी राशि
की हुँडी बनाने की क्षमता नहीं रखता थ। परन्तु गँगूशाह ने यह हुंडी तुरन्त तैयार कर
दी। इतनी बड़ी क्षमता वाला व्यापारी जानकर सरकारी दरबार में उसका सम्मान बढ़ने लगा।
एक अभयागत एक दिन श्री गोइंदवाल साहिब जी मे उपस्थित हुआ और विनम्र विनती करने लगाः
हे गुरू जी ! मैं आर्थिक तंगी में हूं। मेरी बेटी का विवाह तय हो गया है परन्तु मेरे
पास धन नहीं है, जिससे मैं उसका विवाह सम्पन्न कर सकूँ। अतः आप मेरी सहायता करें।
गुरू जी ने उसको एक हुँडी पाँच सौ रूपये की दी और कहाः कि यह हमारे सिक्ख गँगूशाह
के नाम से है, आप इसे लेकर उनके पास दिल्ली जाये, वह यह राशि आपको तुरन्त दे देगा।
जब वह व्यक्ति हुँडी लेकर गँगू शाह के पास उपस्थित हुआ तो वह विचारों में खो गया और
सोचने लगाः कि हुँडी का रूपया भुगतान करने में मुझे कोई मुश्किल नहीं है। यदि मैं
आज यह रूपये सिक्ख को दे देता हूं तो कल गुरू जी के पास से अन्य लोग भी आ सकते हैं
क्योंकि गुरू जी के पास ऐसे लोगों का तांता लगा रहता है ओर मैं किस किस की हुण्डी
अदा करता फिरूंगा। बस इस विचार से वह मुकर और बोलाः भाई साहिब ! मैंने समस्त खाते
देख लिए हैं, मेरे पास गुरू जी का कोई खाता नहीं है। अतः मैंने उनका कुछ देना नहीं
है। सिक्ख ने बहुत ही नम्रतापूर्वक आग्रह कियाः गुरू जी, मुझे कभी गलत हुँडी नहीं
दे सकते। आप मुझे निराश मत लौटाएं क्योंकि मेरा निराश लौटना गुरू जी का अपमान है,
किन्तु गँगूशाह माया के अभिमान में मस्त कुछ सुनने को तैयार नहीं हुआ। सिक्ख गुरू
जी के पास लौट आया और हुंडी लौटा दी। इस बात पर गुरू जी का मन बहुत खिन्न हुआ।
उन्होंने कहाः अच्छा यदि गँगू शाह के खाते में हमारा नाम नहीं है तो हमने भी उसका
नाम अपने खाते से काट दिया है और उस अभ्यागत सिक्ख को आवश्यकता अनुसार धन देकर
प्रेम से विदा किया। उधर दिल्ली में गँगूशाह का कुछ ही दिनों में दिवाला निकल गया
और वह दिल्ली से कर्जदार होकर भागा। परन्तु जब उसे भागने के लिए ठिकाना दिखाई नहीं
दे रहा था तो आखिरकार वह ठोकरें खाता हुआ फिर से श्री गोइंदवाल साहिब पहुँचा परन्तु
उसको साहस नहीं हुआ कि वह गुरू जी के समक्ष उपस्थित होता। अतः वह लंगर में सेवा करने
लगा। सेवा करते–करते कई माह व्यतीत हो गये। इस बार की सेवा से उसके अहँ भाव की मैल
धूल गई। वह प्रतिक्षण प्रायश्चित की आग में जलता हुआ हरिनाम का सुमिरन भी करता रहता।
एक दिन गुरू जी लंगर के विशेष कक्ष, जहाँ भोजन तैयार करने की प्रारम्भिक व्यवस्था
की जाती थी, वहाँ आये। इस शुभ अवसर का लाभ उठाकर गँगूशाह गुरू जी के चरणों में
दण्डवत प्रणाम करने लगा। गुरू जी दया के पूंज थे। उन्होंने उसे उठाकर फिर से कँठ से
लगा लिया और कहा कि तुम क्षमा के पात्र तो नहीं थे परन्तु तेरी सेवा और प्रायश्चित
ने हमें विवश कर किया है। अब वापस जाओ और फिर से व्यापार करो किन्तु धर्म–कर्म नहीं
भूलना।