13. भाई लंगह जी
श्री गुरू अमरदास जी सुबह का नाश्ता दही के साथ करते थे। दही
लाने की सेवा एक सिक्ख करता था। इस व्यक्ति का गाँव श्री गोइंदवाल साहिब जी से दो
कोस की दूरी पर स्थित था। इस व्यक्ति की बाल्यकाल से एक टाँग पोलियो द्वारा
क्षतिग्रस्त थी, जिस कारण वह लंगड़ाकर चलता था और उसे बैसाखी का सहारा लेना पड़ता था।
यह सेवा वह कई वर्षों से गुरू जी का भक्त होने के नाते करता चला आ रहा था। रास्तें
में उसे स्थानीय चौधरी प्रायः मिल जाता था। जब वह चौधरी, भाई लंगह जी को देखता था
तो उससे हंसी ठिठोली करता और कहताः तूँ प्रतिदिन इतने दूर दही ढोने का कार्य करता
है और लंगड़ा होने के नाते कष्ट भोगता है। क्या तेरा गुरू तेरी टाँग ठीक नहीं कर सकता
? भाई जी उसका व्यँग सुनते और शांत बने रहते परन्तु वह कभी उत्तर नहीं देने के लिए
बाध्य भी करता। इस पर भाई लंगाह जी केवल यही उत्तर देतेः कि मैं तो निष्काम सेवा
करता हूँ। मुझे अपने लिए गुरू जी से कुछ नहीं चाहिए। किन्तु चौधरी कहताः वह तो ठीक
है फिर सेवा करने का तुझे क्या लाभ हुआ ? उत्तर में भाई जी कहतेः मैं तो सेवा
प्रेमवश करता हूं, इसमे लाभ–हानि नहीं देखी जाती। चौधरी इन उत्तरों से सन्तुष्ट नहीं
होता और फिर कहताः हमें तेरे पर बहुत दया आती है क्या तुम्हारे गुरू को तुम पर दया
नहीं आती। उत्तर में भाई जी कहतेः कि गुरू समर्थ है और पिता स्वरूप हैं, वह अपने
बच्चों की आवश्यकताएँ जानते हैं। वह उचित समझेंगे तो सभी प्रकार की बख्शीशें करेंगे।
इस प्रकार समय व्यतीत हो रहा था। वास्तव में धन की अधिकता के कारण चौधरी एक मनचला
नास्तिक किस्म का व्यक्ति था, जिसे धर्म कर्म पर कोई विश्वास नहीं था। एक दिन चौधरी
ने भाई लंगह जी को रास्ते में घेर लिया और अपने मित्रों सहित पेरशान करने लगा। और
साथ में उनकी बैसाखी भी छीन ली और कहने लगाः यह बताओ तुमने गुरू से कहा कि नहीं कि
मेरी टाँग ठीक कर दो। भाई लंगह जी बहुत धैर्य से बोलेः कि मुझे इसकी आवश्यकता ही
अनुभव नही हुई। इस पर चौधरी ने कहाः तो ठीक है, आज हम तुम्हे वह बैसाखी नहीं देते,
अब बताओ तुम्हें टाँग ठीक करवाने की आवश्यकता है कि नहीं। भाई जी ने विनम्र भाव से
चौधरी को निवेदन कियाः मुझे जाने दो परन्तु चौधरी कहाँ मानने वाला था। बस उनको भाई
लंगह जी का परिहास करने का जुनून था। वह कहताः कि तुझे वर्षों व्यतीत हो गये सेवा
करते करते। ऐसी सेवा का क्या लाभ, जिससे थोड़ा सा शरीर का कष्ट भी नहीं हटता ? किन्तु
भाई लंगह जी शाँतचित अडोल केवल नम्रतापूर्वक विनती करते रहेः कि चौधरी जी मुझे जाने
दो। अन्त में चौधरी ने अपना मन बदलकर बैसाखी लौटा दी परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी
थी। जब भाई लंगह जी दही लेकर गुरू जी के पास पहुँचे तो उन्होंने देर से आने का कारण
पूछा। उत्तर में भाई लंगह जी ने कहाः आप सर्वज्ञ हैं, अतः मैं क्या आपको बताऊं। गुरू
जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहाः करतार भली करेगा। आप लाहौर चले जाएँ। वहां पर सूफी
सँत शाह हूसैन जी हैं। उनको कहो कि मुझे अमरदास जी ने आपके पास भेजा है और निवेदन
करना कि आप मेरी टाँग ठीक कर दें। भाई लंगह जी ने आज्ञा पाकर ऐसा ही किया। बैलगाड़ी
की यात्रा करके वह लाहौर पहुंच गए। उन्होंने शाह हुसैन जी के दरबार में प्रार्थना
कीः कि आप मेरी टाँग ठीक कर दें। शाह हुसैन जी ने सारी वार्ता ध्यान से सुनी और कहाः
गुरू अमरदास जी पूर्ण पुरूष हैं, तूं उनका दर छोड़कर यहां क्या लेने आया है। आप
तुरन्त लौट जाओ और वहीं उनके पास फिर से मेरी ओर से विनती करना कि मैं तो एक अदना
सा सेवक हूं। मेरे पास ऐसी सर्मथता कहां से जो में चमत्कार दिखा सकूं। किन्तु भाई
लंगह जी नहीं माने। वह कहने लगेः मुझे गुरू जी ने ही आपके पास भेजा है, वैसे मैं
आपके पास कभी भी आने वाला नहीं था। इस पर दोनों तरफ से दबाव पड़ने लगा। पीर जी कहतेः
तुम वापस जाओ क्योंकि गुरू जी समर्थ हैं। भाई लंगाह जी कहतेः कि उन्होंने ही आप के
पास भेजा है। अतः कहा सुनी हो गई। अन्त में आवेश में आकर एक लटठ लेकर पीर जी भाई
लंगह को मार भगाने दौड़ पड़े और कहने लगेः जाता है कि नही ! अभी तेरी टाँग ठीक किये
देता हूं। मार के भय से भयभीत भाई लंगह अपनी बैसाखी वही छोड़कर भाग खड़ा हुआ। देखता
क्या है कि उसकी टाँग ठीक हो गई है। अब उसे बैसाखी की आवश्यकता नहीं है। वह खुशी–खुशी
मन ही मन गुरू जी का धन्यवाद करता हुआ वापस लौट आया। जब उस गाँव में चौधरी ने भाई
लंगह जी को बिलकुल ठीक पाया तो वह अपनी मूर्खता पर प्रायश्चित करने गुरू जी के
समक्ष उपस्थित हुआ और क्षमा याचना करने लगा।