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12. पेयजल के कारण झगड़े

श्री गुरू अमरदास जी ने गोइंदवाल नगर बसाने में स्थानीय चौधरी मरवाह की हर दृष्टि से सहायता की। उसने गुरू जी को वहीं बसने के लिए स्थान दिया और धर्मशाला आदि बनवाने में सहयोग दिया परन्तु उसके देहान्त के पश्चात उसके दोनों पुत्र उस जैसी विचारधारा तथा दूरदृष्टि वाले न थे। जल्दी की बहकावे में आ जाते थे और थोड़े से स्वार्थ के कारण गुरू तथा संगत से अनबन करने को तत्पर हो जाते थे। जैसे–जैसे नगर का विकास हुआ, नगर की जनसँख्या बढ़ने के कारण पेय जल के अभाव को लोग अनुभव करने लगे। इस भूमि पर केवल एक ही कुँआ था जिससे सभी निवासियों को पेय जल उपलब्ध होता था। दूसरा कुँआ खोदा नहीं जा सकता था क्योंकि नीचे कठोर चटटाने थीं। अतः कुँए पर सदैव भीड़ बनी रहती थी। इसलिए जल के अभाव के कारण स्थानीय लोगों में कहा सुनी होती ही रहती थी, परन्तु कभी लोग गुटबन्दी बनाकर झगड़ा भी करते थे। चौधरी गोइन्दे के लड़के अपने को कुँए का स्वामी बताते थे। अतः वे इस अधिकार वे पानी प्राप्त करने के लिए अनुचित लाभ उठाते थे, जिस कारण गुरू घर के सेवादार जो लंगर के लिए पानी भरने आते थे, लम्बी प्रतीक्षा में खड़े दिखाई देते थे। कुछ सेवादारों ने गुरू जी से निवेदन कियाः कि गोइन्दे मरवाह के परिवार के दुर्व्यवहार से हमें बचाएं। वे लोग हमारे घड़े तोड़ देते हैं और पानी नहीं भरने देते। हमें लम्बी प्रतिक्षा में खड़े रहना पड़ता है। हम आपके आदेश अनुसार झगड़ा भी नहीं कर सकते। गुरू जी ने सेवकों को आदेश दिया और कहाः कि हम जल्दी ही एक ऐसी बाउली यहां तैयार करेंगे जिसमें पानी भरने के लिए लम्बी कतारें ना लगानी पड़ें और उन्होंने बाउली बनाने का निर्णय ले लिया परन्तु बाउली निर्माण में समय लगना था जब तक कि इसी कुएँ पर निर्भर रहना था। मरवाह भाई अपने स्वभाव अनुसार गुरू सेवकों को परेशान करते रहते थे। कभी उनकी मशकों में छेद कर देते तो कभी उनकी गागर अथवा घड़ों को तोड़ने–फोड़ने का प्रयत्न करते किन्तु गुरू सेवक गुरू आज्ञा अनुसार शांतचित बने रहते। उन्हीं दिनों एक शस्त्रधारी सन्यासियों का दल देश पर्यटन करता–करता श्री गोइंदलवाल पड़ाव डालकर रहने लगा। उनका शिविर कुएँ के निकट था, वे लोग शिविर लगाने से पहले ही किसी पेयजल के स्त्रोत को मद्देनजर रखते थे। मरवाह परिवार के सदस्यों ने इस सन्यासियों के साथ भी अभद्र व्यवहार किया। पहले तो वह लोग सहन कर गये परन्तु अति होने पर वे लोग एकत्र होकर अन्याय के विरूद्ध डट गये। अपने स्वभाव अनुसार मरवाह परिवार ने उन लोगों के बर्तन फोड़ दिये। बस फिर क्या था, सन्यासियों ने अपने शस्त्र तथा उठा लिये और मारवाह परिवार और उनके सहायकों लोगों पर टूट पड़े, भंयकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में दोनो पक्षों को क्षति उठानी पड़ी। सन्यासी तो वहाँ से प्रस्थान कर गये, परन्तु मरवाह परिवार को बहुत नीचा देखना पड़ा, इनकी अकड़ टूट गई। इस प्रकार कुछ दिन शाँत निकल गये। किन्तु उनकी पुरानी आदत नहीं जाती थी वे लोग फिर से सिक्खों के साथ दुर्व्यवहार करने लगे। प्रकृति ने एक खेल रचा। एक शाम गोइन्दवाल सरकारी कर्मचारी लाहौर से खजाना लेकर दिल्ली जा रहे थे। उन्होंने रात के लिए पड़ाव श्री गोइंदवाल साहिब में डाला क्योंकि यहाँ पर सभी प्रकार की सुविधाएं थीं। वे लोग विचार कर रहे थे कि प्रातःकाल व्यास नदी पार कर लेगें। परन्तु जब सूर्य उदय हुआ तो उन्होंने पाया कि एक खच्चर जो कि चाँदी के सिक्कों से लदी थी, कम है। बस फिर क्या था, वे लोग नगर का कौना–कौना छानने लगे और पूछताछ करने लगे कि कहीं आप लोगों ने खच्चर तो नहीं देखी। खच्चर खो जाने पर उनका वरिष्ठ अधिकारी बहुत आवेश में था क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हुई थी। अतः वह घर–घर की तलाशी लेने लगे। इस अभियान में उन्होंने खच्चर के हिंकने की ध्वनि सुनी। तुरन्त खच्चर खोज निकाली गई। खच्चर गोइन्दे के बेटों के घर से बरामद कर ली गई। क्रोधित सिपाहियों ने उसी क्षण गोइन्दे के बड़े बेटे को मृत्यु शैया पर सुला दिया किन्तु छोटे बेटे को उसकी माता ने गुरू जी की शरण में भेज दिया, जिससे उसका जीवन बचा लिया गया। इस प्रकार श्री गोइंदवाल साहिब जी में फिर से शान्ति स्थापित हो गई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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