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1881. गुरूद्वारा श्री सोहिला घोड़ा साहिब जी का क्या इतिहास है ?

  • एक काबुल का रहने वाला सिक्ख करोड़ीमल था। जो गुरू जी का बहुत श्रद्धालू सिक्ख था। संमत् 1691 (सन् 1634) में इस सिक्ख ने दो घोड़े गुरू जी को भेंट किये, जिनके नाम दिलबाग और गुलबाग थे। बाद में गुरू जी ने उनके नाम जान भाई और सुहेला घोड़ा रखे। माता सुलखनी को पुत्र का वर देते समय गुरू जी सुहेले घोड़े पर ही सवार थे, गुरू जी ने सुहेले घोड़े पर ही श्री करतारपुर साहिब जी की जँग लड़ी, जँग में सुहेला जख्मी हो गया। करतारपुर की जँग जीतने के बाद गुरू जी कीरतपुर जा रहे थे, रास्ते में घोड़े ने शरीर त्याग दिया। घोड़े के शरीर में 600 गोलियाँ लगी थीं और सँस्कार के समय उसके शरीर से 125 किलो कास्ट मेटल निकला। छठवें गुरू, श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने अपने सिक्खों को साथ लेकर अरदास करके अपने हाथों से सुहेले घोड़े का सँस्कार किया और यह स्थान सुहेला घोड़ा जी के नाम से प्रसिद्ध है।

1882. गुरूद्वारा श्री ताड़ी साहिब जी, किस स्थान पर सुशोभित है ?

  • श्री चमकौर साहिब जी, जिला रोपड़

1883. गुरूद्वारा श्री ताड़ी साहिब जी का क्या इतिहास है ?

  • दसवें गुरू गोबिन्द सिंघ जी 20 दिसम्बर की अर्धरात्री को श्री अनंदपुर साहिब से चले। सरसा नदी पर कुछ परिवार बिछुड़ गया। रास्ते में बेअंत कौतुक करते हुए बड़े साहिबजादों और 40 सिक्खों समेत श्री चमकौर साहिब गढ़ी में आकर मोरचे सम्भाले। औरँगजेब का भेजा हुआ जनरैल ख्वाजा मुहम्मद ने दस लाख फौज से चारों और घेरा डाल लिया। जँग शुरू हो गयी। गुरू जी के साहिबजादे और कुछ सिंघ-सूरमें इस धर्मयुद्ध में लाखों को मौत के घाट उतारकर शहीद हो गए और सवा लाख से एक लड़ाऊँ वाला कथन श्री चमकौर साहिब जी में पुरा किया। पाँच प्यारों की विनती प्रवान करते हुए गुरू जी ने गढ़ी को छोड़ दिया और इस स्थान पर आ गए। उस समय इस स्थान पर पीपल का बहुत बड़ा पेड़ था। बाद में राजपुतों ने इस जमीन पर जबरन कब्जा करके पीपल का पेड़ काटा था। उस पीपल के पीचे जरनैल ख्वाजा मुहम्मद अपनी सैनिकों द्वारा गुरू जी को शहीद करने या जिन्दा पकड़कर औरँगजेब के दरबार में ले जाने का दावा करके अपना डेरा लगा कर बैठा था। लेकिन दुसरी तरफ धर्म के रक्षक साहिब श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने अहँकारी ख्वाजा मुहम्मद को तीन बार ताड़ी (ताली) मार कर ललकारा। इस तरह गुरू जी ने अपना जाना प्रकट किया। इसी के साथ मुगलों की फौज में आपस में मारामारी मच गयी। यह कौतक करने के बाद गुरू जी, जंड साहिब, झाड़ साहिब से होते हुये माछीवाड़े जा विराजे। वहीं पर भाई दया सिंघ, धर्म सिंघ, और मान सिंघ गुरू जी से मिले। औरँगजेब के किए हुए जुल्म के खिलाफ लड़े गये धर्मयुद्ध के समय श्री चमकौर साहिब के अन्दर गुरू की का यह आखिरी गुरूद्वारा साहिब है। इस स्थान पर दशहरा और 7, 8 पोह को भारी जोड़ मेला लगता है।

1884. गुरूद्वारा श्री टिब्बी साहिब, जो कि भाई उदय सिंघ जी का शहीदी स्थान है, किस स्थान पर सुशोभित है ?

  • कीरतपुर साहिब-भरतगढ़ रोड, जिला रोपड़

1885. गुरूद्वारा श्री टिब्बी साहिब, जो कि भाई उदय सिंघ जी का शहीदी स्थान है, का क्या इतिहास है ?

  • यह शहीदी स्थान दसवें गुरू, श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की फौज के महान जनरैल भाई उदय सिंघ जी का शहीदी स्थान है। गुरू जी ने श्री आनंदपुर साहिब जी छोड़ा, तो मुगलों ने गुरू जी को निरमोहगढ़ आ घेरा। यहाँ पर घमासान का युद्ध हुआ। सिक्ख लड़ते-लड़ते शाही टिब्बी आ गये। यहाँ पर बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंघ जी को मुगल फौजों ने घेर लिया। जब भाई उदय सिंघ जी ने देखा कि बाबा अजीत सिंघ जी जालिमों के घेरे में है, तो भाई उदय सिंघ जी ने अपना घोड़ा मुगल फौजों के घेरे के पास लाकर मुगलों को ललकारा और बाबा अजीत सिंघ जी को कहा कि आप यहाँ से निकल जाओ, मैं कमान सम्भालता हुँ। साहिबजादा अजीत सिंघ जी मुगल फौजों का घेरा तोड़कर निकल गए। भाई साहिब भाई उदय सिंघ जी ने तलवार के ऐसे जौहर दिखाए कि जालिम अली-अली करने लगे। भाई साहिब जी ने अनेकों मुगलों को मौत के घाट उतार दिया। अचानक भाई उदय सिंघ जख्मी हो गए और फिर आपका सीस धड़ से अलग हो गया। आप जी बिना सिर के लड़ते हुए, इस स्थान पर पहुँच गए। आप जी का धड़ इस स्थान पर आ गिरा और सीस शाही टिब्बी में गिरा। इस तरह भाई उदय सिंघ जी ने शहीदी प्राप्त की। इस स्थान की एक और महानता है कि यहाँ पर एक कलप वृक्ष सुशोभित है, जो कि पुरातन समय से ही मौजुद है, इसी के नीचे घड़ गिरा था।

1886. गुरूद्वारा श्री पातशाही नवीं साहिब, भवानीगढ़ टाउन, जिला सँगरूर, जो कि श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी से संबंधित है, का इतिहास क्या है ?

  • इस पवित्र स्थान पर नवें गुरू तेग बहादर साहिब जी आए थे। जब गुरू जी आसाम के राजा की विनती मानकर श्री आनंदपुर साहिब जी से 300 संगतों की गिनती में 3 साल का प्रोगाम बनाकर हाँडियों में जरूरी सामान लादकर हाथियों और घोड़ों पर सवार होकर मालवे के बीच में से होते हुए, गाँव खूही रामगढ़, बौंड़ां गड़ीके और आलोअरख से होए हुये संमत् 1722 बिक्रमी (सन् 1665) को इस धरती पर चरण डालकर 19 और 20 कतक के दिन रूककर पवित्र किया और संगतों को निहाल किया।

1887. गुरूद्वारा श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी, मूनक, ग्राम मुनक, जिला सँगरूर का इतिहास क्या है ?

  • मूनक स्थान पर यह गुरूद्वारा नवें गुरू, श्री गुरू तेग बहादर साहिब की याद में है। गुरू साहिब इस स्थान पर संमत् 1723 बिक्रमी को बिहार की और यात्रा के समय पधारे थे। यहाँ पर एक बहुत बड़ी झिड़ी थी, गुरू जी यहाँ पर ठहर गए, यहाँ पर कच्चा मन्जी साहिब गुरूद्वारा बना हुआ था, इसके पिछे एक पानी की छपड़ी बनी हुई थी। यहाँ पर गुरू की सेवा अड़क के वंश में से मल्ल सिंह ने की। गुरू जी ने खुश होकर कहा कि जो इस छपड़ी में श्रद्धा से स्नान करेगा, उसके सारे रोग दूर होंगे।

1888. गुरूद्वारा श्री अकाल चलाना स्थान भाई गुरदास जी साहिब किस स्थान पर सुशोभित है ?

  • श्री गोइँदवाल साहिब सिटी, जिला तरनतारन साहिब

1889. गुरूद्वारा श्री अकाल चलाना स्थान भाई गुरदास जी साहिब का इतिहास क्या है ?

  • यह पावन पवित्र स्थान श्री गोइँदवाल साहिब जी में सुशोभित है। भाई साहिब भाई गुरदास जी इसी स्थान पर अकाल चलाना कर गए थे। यह गुरूद्वारा साहिब श्री गोइँदवाल साहिब जी के मुख्य गुरूद्वारे के बाईं और मौजुद है।

1890. गुरूद्वारा श्री अम्ब साहिब जी भैरोवाल, किस स्थान पर सुशोभित है ?

  • ग्राम भैरोवाल, जिला तरनतारन साहिब

1891. गुरूद्वारा श्री अम्ब साहिब भैरोवाल का इतिहास से क्या संबंध है ?

  • एक बार भाई जेठा जी (चौथे गुरू रामदास जी) लाहौर से श्री गोइँदवाल साहिब जी आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने बिना मौसम के आम देखे। उन्होंने तीसरे गुरू, श्री गुरू अमरदास जी के लिए आम ले लिए। सफर लम्बा होने के कारण जब भाई जेठा जी भैरोवल साहिब यानि इस स्थान पर पहुँचे तो आमों में से रस टपकने लगा था। तो उन्होंने सोचा कि ये तो रास्ते में ही खराब हो जाएँगे, तो उन्होंने हाथ जोड़कर आँखें बन्द करके श्री गुरू अमरदास जी से अरदास की, कि आप ये आम स्वीकार करो। भाई जेठा जी ने अरदास के बाद आम खाना शुरू किँ, दुसरी तरफ श्री गोइँदवाल साहिब जी में गुरू अमरदास जी ने विनती परवान करते हुये आम खाए। भाई जेठा जी जब श्री गोइँदवाल साहिब जी पहुँचे तो, गुरू जी ने कहा कि हमारे लिए क्या लेकर आए हो। भाई जेठा जी ने जब खाली हाथ दिखाए, तो गुरू जी बोले कि आपने आम हमारे साथ बाँटकर खाए थे। श्री गुरू अमरदास जी ने खिड़की में रखी आम की गुठलियाँ दिखाईं तो सारी संगत हैरान रह गई।

  • दुसरे गुरू, श्री गुरू अंगद देव जी भी इस स्थान पर आए थे, उनके साथ भाई गुरदास जी, बाबा बुड्डा जी और कई सिक्ख थे। एक 70 साल के सिक्ख को, जिसका नाम भाई खेमा जी था, उसकी सेवा से खुश होकर, पुत्र की प्राप्ति का वरदान दिया था।

1892. गुरूद्वारा श्री बीबी वीरो जी साहिब किस स्थान पर सुशोभित है ?

  • ग्राम चाबल, जिला तरनतारन

1893. गुरूद्वारा श्री बीबी वीरो जी साहिब का इतिहास क्या है ?

  • यह पवित्र स्थान बीबी वीरो जी की याद में सुशोभित है। बीबी वीरो छठवें गुरू, श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी की पुत्री थी। यह गुरूद्वारा साहिब श्री माई भागों जी के पिछली तरफ सुशोभित है।

1894. गुरूद्वारा श्री छापड़ी साहिब किस स्थान पर सुशोभित है ?

  • ग्राम छापड़ी, जिला तरनतारन साहिब

1895. गुरूद्वारा श्री छापड़ी साहिब का इतिहास क्या है ?

  • छापड़ी साहिब वो पवित्र स्थान है, जहाँ पर दुसरे गुरू, श्री गुरू अंगद देव जी, तीसरे गुरू, श्री गुरू अमरदास जी, पाँचवें गुरू, श्री गुरू अरजन देव जी, छठवें गुरू, श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी, नवें गुरू, श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी और मक्खन शाह लुभाणा, सच और भक्ति का सन्देश देते हुए यहाँ पर पधारे थे। यहाँ पर आठ गुठा कुँआ भी छठवें गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने बनवाया और वर दिया कि किसी को अठारह की बीमारी हो तो यहाँ पर रविवार निश्चय के साथ स्नान करे, तो उसकी आशा, मुराद पूरी होगी।

1896. गुरूद्वारा श्री चौबारा साहिब, जो गुरूद्वारा श्री बाउली साहिब जी के पास है और जो श्री गोइंदवाल साहिब जी में है, से क्या महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं ?

  • 1. निवास स्थानः यहाँ तीसरे गुरू अमरदास का निवास स्थान है। यहाँ पर गुरू जी ने बीबी भानी जी की सेवा से खुश होकर गुरगद्दी सोडी वँश के पास रहने कर वर दिया था और चौथे गुरू रामदास जी को गुरू घर की अटूट सेवा की दात बक्शी।
    2. किल्ली साहिबः इसको पकड़कर श्री गुरू अमरदास जी बिरध अवस्था में सिमरन करते थे।
    3. गुरगद्दी स्थानः यहाँ पर श्री गुरू अमरदास जी ने श्री गुरू रामदास जी को गुरगद्दी बख्शी और सिक्ख धर्म के प्रचार के लिए 22 मन्जियाँ अथवा गद्दीयाँ बख्शी।
    4. जोती-जोत स्थानः श्री गुरू अमरदास जी और श्री गुरू रामदास जी।
    5. खम्ब साहिब और चुल्हा चौका बीबी भानी जीः यहाँ पर एक खम्बा है, जिससे पाँचवें गुरू, श्री गुरू अरजन देव जी खेला करते थे और बीबी भानी जी यहाँ लँगर तैयार करके संगतों को खिलाती थीं।
    6. श्री पालकी साहिब जीः श्री गुरू अरजन देव जी, श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी की सैंचियाँ (पहले, दुसरे, तीसरे और चौथे गुरू जी की बाणी) यहाँ जो श्री पालकी साहिब जी है, उस पर रखकर ले गए थे।
    7. इस स्थान पर श्री गुरू अमरदास जी के पवित्र केश और चोला साहिब जी भी है।
    8. इस स्थान पर बाबा मोहन जी का गुरूद्वारा भी है, श्री गुरू अरजन देव जी इन्हीं से गुरबाणी की सैंचियाँ लेने आये थे।
    9. यह स्थान श्री गुरू अरजन देव जी का जन्म स्थान है।
    10. इस स्थान पर श्री गुरू रामदास जी का खुह साहिब भी है। यहाँ पर जोती-जोत स्थान भाई गुरदास जी का भी है।

1897. गुरूद्वारा श्री चोल्हा साहिब, जो ग्राम चोल्हा में है और सिरहाली कलां से 5 किलोमीटर की दूरी पर है, जिला तरनतारन साहिब। इस गुरूद्वारे साहिब का इतिहास क्या है ?

  • पँचम पिता साहिब श्री गुरू अरजन देव जी जब 4 हाड़ संमत् 1648 (सन् 1591) को गाँव सरहाली से होते हुए गाँव भैणी पहुँचे तो, गुरू जी इस स्थान पर विराजमान होकर संगतों को उपदेश दे रहे थे, तो एक माई ने गुरू जी को चुरी कुटकर बहुत सारा मक्खन डालकर खाने को दी। तो गुरू जी ने कहा कि माईं तूँ हमारे लिए यह चोला तैयार करके लाई है। तब गुरू जी ने यह शबद् उच्चारण कियेः
    हरि हरि नाम अमोला...............अलख लिखाइआ गुर ते पाइआ।। नानक इह हरि का चोला।। (आसा महला 5 अंग 407)
    सीतल सांति महा सुख पाइआ...............।।.........हरि धन संचन हरि नाम भोजन इहु नानक कीनो चोला।। (धनासरी महला 5 अंग 672)।
    तब से इस नगर का नाम श्री चोला साहिब जी पड़ गया, यहाँ पर यह श्री गुरूद्वारा साहिब जी सुशोभित है। श्री गुरू अरजन देव की यहाँ पर कोठड़ी में परिवार समेत 2 साल 5 महीने 13 दिन रहे।

1898. गुरूद्वारा श्री दमदमा साहिब जी, जो कि श्री खडुर साहिब में है, का इतिहास क्या है ?

  • खहिरा चक्क, जिसे अब खडूर साहिब कहते हैं, यहाँ पर दुसरे गुरू अंगद देव जी संगत में सुभाएमान थे और गुरबाणी का जस-गान हो रहा था। बीबी अमरो जी और बाबा अमरदास जी नमस्कार करके बैठ गए। गुरू जी ने कहा बताओ पुत्री, तो बीबी अमरो जी ने कहा कि बाबा अमरदास जी आपसे सेवा की दात माँगते हैं। उन्हें लँगर और पानी की सेवा दी गई। बाबा अमरदास जी गुरू जी के स्नान की गागर अमृत वेले (ब्रहम समय) ब्यास दरिया से लेकर आते थे और रास्ते में एक टिब्बे, जिसके पास एक पेड़ था, जिसके नीचे गागर रखकर विश्राम किया करते थे। इसलिए यह गुरूद्वारा श्री दमदमा साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरूद्वारे के सामने चारदिवारी में एक सरोवर है और एक ओर, एक ढाब भी होती थी। इस सरोवर में जो भी श्रद्धा से पाँच रविवार सच्चे मुँह स्नान करता है, उसके सारे दुख दुर हो जाते हैं।

1899. सिक्ख इतिहास में गुरूद्वारों का सबसे बड़ा सरोवर कौन सा है ?

  • श्री दरबार साहिब, तरनतारन साहिब

1900. श्री दरबार साहिब, तरनतारन साहिब का क्या इतिहास है ?

  • पँचम पिता श्री गुरू अरजन देव जी ने सन् 1590 में रावी और ब्यास दरिया के बीच के स्थानों की यात्रा की। गुरू जी ने कुछ जमीनें खरीदीं, ताकि गुरूद्वारों का निर्माण करवाया जा सके। गुरू जी ने इस स्थान पर एक बहुत ही बड़े सरोवर का निर्माण करवाया, जो कि श्री "अमृतसर साहिब" जी के सरोवर से काफी बड़ा था। इस सरोवर को पक्का करवाकर मार्बल लगवाया गया। गुरू जी ने इस सरोवर का निर्माण करवाकर बता दिया कि वो गुरूद्वारों का दुनियाँ में सबसे बड़ा सरोवर है। इस सरोवर साहिब के किनारे पर श्री गुरूद्वारा साहिब जी सुशोभित है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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