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1761. गुरूद्वारा श्री नाभा साहिब जी, मोहाली में किस स्थान
पर सुशोभित है ?
1762. गुरूद्वारा "श्री नाभा साहिब जी" जिला मोहाली, किन 4
प्रसिद्ध साखियों से संबंधित है ?
1763. गुरूद्वारा श्री नाभा साहिब, जिला मोहाली का भाई जैता
जी (भाई जीवन जी) से क्या संबंध है ?
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जिस समय नौंवें गुरू तेग बहादर जी को दिल्ली में शहीद किया
गया तो परमात्मा की रजा से बहुत तेज आँघी-तुफान चला, जिसका फायदा उठाकर भाई जैता
जी ने गुरू जी का शीश सम्भाला और शीश श्री अंनन्दपुर साहिब जी में पहुँचाने की
सेवा करने के लिए चल पड़े। दिल्ली से पैदल चलते-चलते 1732 बिक्रमी (सन् 1675) 12
मघर को भाई जैता जी इस इलाके में पहुँचे। ये बहुत बड़ा जँगल था और सारा इलाका
मुसलमानों का था। गुरू जी के शीश का सत्कार जरूरी था, इसलिए भाई जैता जी
विश्राम करने के लिए जँगल में आ गए। भाई जैता जी को एक कुटिया दिखाई दी, जो
दरगाही शाह फकीर की थी, जो गुरू घर का श्रद्धालू था। उन्होंने इतनी रात को जँगल
में आने का कारण पुछा, तो भाई जैता जी बोले कि मेरे पास गुरू जी का शीश है,
जिन्हें दिल्ली में शहीद कर दिया गया है। मेरी सेवा इस शीश को आन्नदपुर साहिब
पहुँचाने की है। पीर जी के नैन भर आए, तो वो बोले पैदल चलने से आप थक गये होंगे।
रास्ता बहुत लम्बा है, आप गुरू जी का शीश साहिब मुझे दे दो, आप स्नान करके कुछ
खा पी लो, शीश की रखवाली में करूँगा। मेरे धन्य भाग है, जिसकी कुटिया में गुरू
जी का शीश पहुँचा है। भाई जैता जी ने स्नान करके भोजन ग्रहण किया। पीर जी ने
मिटटी का एक ऊँचा टिल्ला बनाकर, गुरू जी का शीश उसपर रखकर सारी रात उसके दर्शन
करके ईश्वरीय रँग में खोया रहा। अमृत वेले (ब्रहम् समय) में भाई जैता ही उठे और
इस्नान पानी करके पीर जी से शीश लेकर आन्नदपुर साहिब की और जाने लगे, तो पीर जी
के नैन भर आए और भाई जैता जी से विनती की, कि मेरा शरीर बहुत बुड़ा हो चुका है।
मेरी आयु 240 साल हो चुकी है। गुरू जी के दर्शन को नहीं जा सकता, लेकिन मन में
दर्शनों की बहुत प्यास है। अगर गुरू जी अपने श्रद्धालूओं से प्यार करते हैं, तो
वो आप आकर दर्शन दें। भाई जैता जी शीश साहिब लेकर श्री आन्नदपुर साहिब जी पहुँचे
तो दसवें गुरू गोबिन्द सिंह जी ने खुश होकर उनको अपनी छाती से लगाकर "रंगरेटा
गुरू का बेटा" नाम दिया और उनका नाम भाई जीवन सिंघ रखा। गुरू जी ने रास्ते में
आयी मुश्किलों के बारे में पुछा, तो भाई जैता जी ने इस स्थान पर पीर जी के बारे
में बताया और उनके द्वारा की गयी मदद के बारे में बताया। गुरू जी ने कहा पीर जी
के स्थान के आसपास पड़ाव लगे, तो आप याद दिलवाना।
1764. गुरूद्वारा श्री नाभा साहिब, जिला मोहाली का श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी से क्या संबंध है ?
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गुरू जी ने नाहण के राजा मेदनीप्रकाश के प्रेम के कारण जब
श्री पाऊँटा साहिब जी आबाद किया और भँगाणी की जँग जीतकर वापिस नाडा साहिब जी और
वहाँ से ढकौली गाँव के पास आए, तो गुरू जी ने पानी की इच्छा जताई, तो सेवक ने
कहा सारी जमीन पथरीली होने के कारण पानी की बहुत दिक्कत है, यहाँ आसपास पानी नहीं
मिलता। गुरू जी ने अर्न्तध्यान होकर जमीन में अपना बरछा मारा, तो निर्मल जल की
धारा फूट पड़ी, जो यहाँ से 6 किलोमीटर की दूरी पर गुरूद्वारा श्री बाउली साहिब
जी के नाम से मशहुर है और 84 सीढ़ियों वाली बाउली बनी है। इसी समय भाई जैता जी
ने याद करवाया कि इसी इलाके में पीर दरगाही शाह फकीर रहते हैं, जो आप जी के
दर्शन करना चाहते हैं। गुरू जी वहाँ से चलकर लौहगढ़ साहिब पहुँचे और घोड़े से
उतरकर नँगे पैर इस स्थान पर संगत समेत पहुँचे। पीर जी से मिले और उनकी इच्छा के
बारे में पुछा। पीर जी ने कहा कि अब मुक्ति बख्शो। गुरू जी ने 40 दिन और सिमरन
करने के लिए कहा। और 40 दिन बाद परलोक ध्यान करके सचखण्ड में निवास करने का वर
दिया। 21 और 22 असू बिक्रमी 1745 (सन् 1688) की रात को गुरू जी यहाँ ठहरे और
पीर जी और भाई जैता जी से उस जगह के बारे में पुछा जिस स्थान पर गुरू जी का शीश
रखा गया था। गुरू जी ने बड़े सत्कार के साथ इस स्थान का पूजन किया, यहाँ अब
सुन्दर गुरूद्वारा साहिब जी बना हुआ है।
1765. गुरूद्वारा श्री नाभा साहिब जी, जिला मोहाली का बाबा
बन्दा सिंघ बहादुर जी से क्या संबंध है ?
1766. गुरूद्वारा श्री बाउली साहिब जी, जिला मोहाली में किस
स्थान पर सुशोभित है ?
1767. गुरूद्वारा श्री बाउली साहिब जी, जिला मोहाली का
इतिहास क्या है ?
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भँगाणी (पऊँटा साहिब जी) की जँग जीत के दसवें गुरू, श्री
गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने इस स्थान पर चरण डाले। यहाँ पर चौधरी ईशरदास के घर पर
रूके। संगत और गाँव के लोग दर्शन करने के लिए आने लग गये। चौधरी ईशरदास ने गुरू
जी से विनती की, कि इलाके में पानी की बहुत कमी है और सुखना नदी से पानी लाना
पड़ता है। गुरू साहिब जी ने तीर, अपने हाथ में लेकर धरती पर मारा, तो धरती से
निर्मल पानी निकलने लग गया। गुरू जी ने चौधरी ईशरदास को इस स्थान को पक्का
करवाने का हुकम दिया और इसका नाम श्री बाउली साहिब जी रखा। इस बाउली साहिब जी
में स्नान करने से असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं और बाँझों की गोद भर जाती है। इस
स्थान से गुरू साहिब जी पँचकुला चले गये, वहाँ पर गुरूद्वारा श्री नाडा साहिब
सुशोभित है।
1768. गुरूद्वारा श्री बाबा बन्दा सिंघ बहादुर साहिब जी किस
स्थान पर सुशोभित है ?
1769. गुरूद्वारा श्री बाबा बन्दा सिंघ बहादुर साहिब जी का
इतिहास क्या है ?
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1. सरहंद पर हमले की तैयारी : हम यहाँ उन सिंघों का जिकर कर
रहे हैं, जो कीरतपुर साहिब एकत्रित हो रहे थे। इनके इक्टठे होने और सरहंद की
तरफ हमला करने की तैयारी ने वजीर खान की नींद हराम कर दी थी। उसने सिक्खों के
दोनों पक्षों को मिलने से रोकने के लिए जी-तोड़ यत्न किये। मलेरकोट के नवाब शेर
मुहम्मद खान को कीरतपुर वाले सिक्खों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भेजा। नवाब
के साथ उसका भाई खिजार खान और दो भतीजे और वली मुहम्मद भी थे। मलोरकोटियां के
अलावा उसके पास रोपड़ के रँघण और सरहंद के कुछ फौजी दस्ते भी थे। दुसरी तरफ "सिक्खों
की गिनती तो बहुत कम थी"। उनके पास तो बन्दूकें भी पुरी नहीं थी। रोपड़ के पास
दोनों फौजों की टक्कर हुयी। दिनभर घमासान का युद्ध हुआ। सिंघ बहुत बहादुरी से
लड़े। पर शाम को ऐसा लगा कि शेर मुहम्मद खान जीत जायेगा। रात को एक और सिक्खों
का दस्ता आ गया। दुसरे दिन सुबह शाह खिजर खान ने हमला किया। वो आगे बढ़ता चला गया।
दोनों फौजें इतनी पास आ गयीं कि हाथों-हाथ लड़ाई शुरू हो गयी। सिक्खों ने खुब
तलवारबाजी की। खिजर खान ने सिक्खों को हथियार फैंकने के लिए कहा, तभी एक गोली
उसकी छाती में लगी, जिससे उसकी मौत हो गयी। सारे पठान भाग खड़े हुये। शेर
मुहम्मद खान आगे आया, उसके भतीजे भी साथ थे, जो अपने पिता की लाश उठाना चाहते
थे। पर सिक्खों ने उन दोनों को ही जहन्नुम पहुँचा दिया। शेर मुहम्मद खान भी भाग
गया। मुगल फौजें सिर पर पैर रखकर भागी। इस तरह मैदान सिंघों के हाथ रहा। सिक्खों
ने एक भी पल गवाँना व्यर्थ समझा, वो बाबा बन्दा सिंघ बहादुर के दस्ते में मिलने
के लिए आगे बढ़े। बाबा जी ने उस समय खनूँड़ पर जीत हासिल की थी। वहीं से उन्हें
कीरतपुर वाले सिघों की जीत की खबर मिली। वो स्वागत के लिए आगे बढ़े। रोपड़ की और
जा रही सड़क पर, खड़क और खनूँड़ के बीच सिंघों के दोनों दल इक्टठे हुये, खुशियाँ
मनाई गईं। खुला कड़ाह-प्रशाद बाँटा गया। अब सारे सरहंद की तरफ बढ़े। दसवें गुरू,
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी का भयानक नजारा एक बार
फिर उनके आगे आ गया। सिक्खों की तैयारी देखकर वजीर खान की कँपकपी छुट गई। उसे
प्रतीत होने लग गया कि सारी फौजें भी सरहंद को नहीं बचा सकतीं। उसने पापी
सुच्चानँद के भतीजे को एक हजार आदमी देकर कहा कि वो सिक्खों में जाकर मिल जाएँ।
जब लड़ाई शुरू हो जाए, तो हमारी शाही फौजों में आकर मिल जाएँ, जिससे सिक्खों के
हौंसले पस्त हो जाएँगें।
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2. वजीर खान की तैयारी : वजीर खान ने जँग की तैयारी करने के
सारे यत्न जुटा लिये। अपने मौजुदा मित्र-राजे, राजवाड़ों को बुला लिया। जिसके
फलस्वरूप दूर-पास से आ रही सरकारी फौजों के साथ राजाओं के झुरमुट के झुरमुट खान
के पास आ गये। उसने सिक्के और बारूद के कोठे भर लिये। कई तोपें और हाथी ले आया।
इस तरह 1 लाख फौज और राजाओं समेत सिंघों का रास्ता रोकने के लिए चल पड़ा। दुसरी
तरफ सिक्खों की गिनती बहुत कम थी, उनके पास जँगे-हथियार तोपें भी नहीं थी और
घोड़े भी कम ही थे। पर उनमें परमात्मा का अटल विश्वास कुट-कुटकर भरा हुआ था। छोटे
साहिबजादों की शहीदी उनके अन्दर धर्मयुद्ध की चाह पैदा कर रही थी। बाबा बन्दा
सिंघ जी ने सरदार बाज सिंघ, सरदार फतेह सिंघ आदि को हुक्म दिया कि जैसे भी हो
सके, वजीर खान को पकड़ लिया जाए। अगर मुस्लमान हार मान लें और हिन्दु राजाओं में
से कोई पीठ दिखा दे, तो उन पर वार न किया जाऐ। बाकी जो अड़े उसे कुपाण की भेंट
किया जाए। 12 मई 1710 को चप्पड़चिड़ी के मैदान में दोनों फौजें आ भिड़ी। सिक्खों
की जीत हुई। 14 मई 1710 को सिंघों ने सरहंद पर कब्जा किया।
1770. गुरूद्वारा श्री पातशाही नवीं और दसवीं मोहाली में किस
स्थान पर सुशोभित है ?
1771. गुरूद्वारा श्री पातशाही नवीं और दसवीं ग्राम
हुमाँयुपुर मोहाली का इतिहास क्या है ?
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इस नगर में श्री गुरू तेग बहादर जी ने जब बँगाल के राजा
बिशनदास और आसाम के राजा रामप्रकाश (राम सिंह) की सुलह करवाकर श्री अंनदपुर
साहिब जी आते हुए अपने सेवक गाँव हमायूँपुर तंसिबली के वासी संत सिवचरन दास की
विनती को मानते हुए, अपने चरण डाले और अपने सेवक के पास रात को रूके। संत
सिवचरन दास और नगर निवासियों ने मिलकर गुरू जी और उनके सेवकों की बहुत सेवा की।
गुरू जी ने खुश होकर संत सिवचरन दास को चौरासी के जँजाल से मुक्त किया और नगर
को फलने-फुलने का वर दिया और कहा कि यहाँ पर एक सुन्दर स्थान बनेगा और गुरबाणी
का प्रवाह चलेगा। जो इस स्थान पर आकर दर्शन करेगा, उसकी मनोकामना पुरी होगी।
इसके बाद गांग लखनोर साहिब से होते हुऐ दसवें गुरू गोबिन्द सिंघ जी ने भी इस
नगर में आकर संत सिवचरन दास से मिले और रात को उनके साथ ठहरे। गुरू जी ने भी वर
दिया कि जो भी इस स्थान के दर्शन करेगा, उसकी मनोकामना पुरी होगी।
1772. गुरूद्वारा माता सुन्दर कौर जी मोहाली में कहाँ पर है
?
1773. गुरूद्वारा माता सुन्दर कौर जी का इतिहास क्या है ?
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इस स्थान का इतिहास से बहुत गहरा संबंध है। माता सुन्दर कौर
जी और माता साहिब कौर जी दसवें गुरू गोबिन्द सिंघ जी से सरसा नदी के किनारे से
बिछुड़कर, भाई मनी सिंघ जी शहीद समेत यहाँ पर पहुँचे और आराम किया। जब बाबा बन्दा
सिंघ बहादर जी ने चप्पड़चिड़ी की जँग फतेह की, तब खालसा-दल के फौज की कैंप छावनी
इस स्थान पर थी और इस स्थान से सिंघों के लिऐ लँगर तैयार होकर जाता था।
1774. गुरूद्वारा श्री दातन्सर साहिब किस स्थान पर है ?
1775 गुरूद्वारा श्री दातन्सर साहिब का इतिहास से क्या संबंध
है ?
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दसवें गुरू, श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी महाराज गुरूद्वारा
टिब्बी साहिब के स्थान से आकर अमृत समय (ब्रहम समय) में दातुन कुल्ला कर रहे थे
कि अचानक एक मुसलमान जो सिक्ख के भेष में था उसने पिछे से आकर तलवार का वार किया,
गुरू जी ने बड़ी फुर्ती से बचाकर जल वाला सरब-लौह का गडवा मारकर उसे चित कर दिया,
जिसकी कब्र गुरूद्वारा साहिब जी में चढ़ते समय बाहर की तरफ बनी हुई है। गुरू जी
के हुक्म अनुसार यात्री कब्र पर पाँच-पाँच जुतियाँ मारते हैं। यहाँ पर मांघी
मेले पर निहंग सिंघ घुड़-दौड़ और नेजे-बाजी के जौहर दिखाते हैं।
1776. गुरूद्वारा श्री जन्म स्थान श्री गुरू अंगद देव जी किस
स्थान पर सुशोभित है ?
1777. गुरूद्वारा श्री जन्म स्थान श्री गुरू अंगद देव जी का
इतिहास से क्या संबंध है ?
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मालवे की पवित्र धरती (मत्ते की सरां) जिसका नाम सराऐं नांगा
है, जो पहले जिला फिरोजपुर, जिला फरीदकोट और अब जिला मुक्तसर में है। ये दुसरे
गुरू, साहिब श्री गुरू अंगद देव जी का जन्म स्थान है, जब दसवें गुरू गोबिन्द
सिंह जी मुक्तसर की जँग लड़कर इस स्थान पर आए, तो नांगे साधू से मिले। गुरू जी
के मुख से जो शब्द निकले, तो उसके फलस्वरूप इस स्थान का नाम सराये नांगा पड़ गया।
इस स्थान पर दुसरे गुरू अंगद देव जी का जन्म 31 मार्च 1504 ई0 में हुआ। गुरू जी
का 11 साल का बचपन यहाँ पर बीता। फिर गुरू जी अपने माता-पिता के साथ श्री खडूर
साहिब जी चले गए, क्योंकि पठानों ने हमला किया और चौधरी तखतमल्ल मारा गया और
लोग उजड़ गऐ। गुरू जी के पिता जी का नाम भाई फेरूमल्ल और माता का नाम निहाल दई
था। गुरू जी की पत्नि माता खीवी जी और दो लड़के दातू जी और दासू जी, दो लडकियाँ
बीबी अमरो और बीबी अनोखी जी थी। जन्मसाखी मुताबिक जब पहले गुरू नानक देव जी
मालवे की धरती पर आए, तो करमू कोहड़ी को तारने के लिए मत्ते की सरां पहुँचे।
चौधरी तखतमल्ल 10 गाँवों पर राज करता था। श्री गुरू अंगद देव जी के पिता भाई
फेरूमम्ल जी चौधरी तखतमल्ल के मुनीम थे और सारा हिसाब-किताब इनके पास था। श्री
गुरू नानक देव जी इस गाँव में 6-7 दिन ठहरे।
1778. गुरूद्वारा पातशाही पहली ओर दसवीं साहिब जी, जिला
मुक्तसर साहिब जी में किस स्थान पर सुशोभित है ?
1779. गुरूद्वारा पातशाही पहली ओर दसवीं साहिब जी, ग्राम
सरायं नागां (मत्ते दी सरां), जिला मुक्तसर साहिब जी का इतिहास क्या है ?
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इस पावन पवित्र स्थान पर पहले गुरू श्री गुरू नानक देव जी,
फेरूमल्ल (दुसरे गुरू अंगद देव जी के पिता जी) के पास रबाब लेने आए थे। ये रबाब
गुरू जी ने मरदाना जी को दी थी। गुरू जी इस स्थान पर 6 दिन रूके। उन दिनों इस
स्थान पर एक सुफी संत रहता था, लोग उन्हे नांगा कहते थे। दसवें गुरू, श्री गुरू
गोबिन्द सिंह जी भी मुक्तसर की जँग के बाद यहाँ पर आए थे और एक रात रूके थे।
गुरू जी नांगा साधू से मिले, जिसकी आयु इतिहास अनुसार तकरीबन 1700 साल थी। गुरू
जी ने उनसे कहा कि आपने सिद्धी से अपनी आयु बढ़ाई है, जो कि ठीक नहीं है। साधू
ने कहा कि मेरी मौत के बाद कोई मुझे याद नहीं करेगा, इसलिए मैंने आयु बढ़ाई है,
तो गुरू जी ने आर्शीवाद दिया कि उसका उसका नाम अमर रहेगा, इसलिए मत्ते की सरां
का नाम सराई नांगा पड़ा।
1780. गुरूद्वारा श्री रकाबसर साहिब जी, जिला मुक्तसर साहिब
जी में कहां सुशोभित है ?
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