1701. गुरूद्वारा श्री पातशाही छेवीं जी, बस्ती शेख, जालँधर
का क्या इतिहास है ?
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इस पवित्र स्थान को छठवें गुरू हरगोबिन्द साहिब जी की चरण
घूल प्राप्त है। गुरू जी यहाँ पर संमत् 1691 बिक्रमी (सन् 1634) में करतारपुर
की जँग में पैंदे खाँ पर जीत हासिल करके गाँव अठोला होते हुए यहाँ पधारे। इस
स्थान पर तीन दिन तक रहे। इसी स्थान पर सूफी फकीर दरवेश ने आखों पर पट्टी
बाँधकर गुरू जी के साथ बचन-बिलास किये। महानकोश के करता भाई कान सिंह जी ने अपने
महानकोश, जो 1930 में छपा था, उसके पन्ने 617 पर इस पावन पवित्र स्थान के बारे
में जिक्र किया है।
1702. गुरूद्वारा श्री थम जी साहिब किस स्थान पर सुशोभित है
?
1703. गुरूद्वारा श्री थम जी साहिब किस गुरू साहिबान से
संबंध रखता है ?
1704. गुरूद्वारा श्री थम जी साहिब वाला स्थान किस मुगल
बादशाह ने श्री गुरू अरजन देव जी को भेंट किया था ?
1705. गुरूद्वारा श्री थम जी साहिब पर, सात मँजिल इमारत की
सेवा किसने करवाई थी ?
1706. गुरूद्वारा श्री थम जी साहिब का क्या इतिहास है ?
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गुरू जी ने 1594 में इस नगर की नींव रखी थी, गुरू जी ने यहाँ
एक मोटी टाहली (टेहनी) का खम्बा गाड़कर इस शहर की नींव रखी। गुरू जी ने इस थम्म
को वर दिये, कि ये दुखों को थामने वाला होगा। संगत के बैठने के लिए थम्म के
आसपास दीवान बनाया गया। यह पवित्र थम्म सन् 1594 से लेकर सन् 1756 तक 162 साल
कायम रहा। सन् 1756 को जालँधर के जालिम सुबेदार नामर अली ने करतारपुर पर धावा
बोलकर पवित्र थम्म को जला दिया और ऐतिहासिक वस्तुओं की बे-अदबी की। बागी अदीना
बेग की सलाह से बाबा वडभाग सिंघ ने इस बे-अदबी का बदला लेने के लिए, सिंघों के
पास विनती भेजी। खालसे ने विनती परवान करके सन् 1757 को जालँघर शहर पर हल्ला
बोल दिया। धमासान का युद्ध हुआ, तुरक फौजें हार गयी। नासर अली जँग छोड़कर भाग रहा
था, लेकिन खियाला सिंघ सूरमें ने उसे पकड़कर बन्दी बनाकर सिंघ सरदारों के आगें
पेश किया। सिंघ सरदारों ने हुक्म दिया, जिस प्रकार से इसने पवित्र थम्म जलाया
था, वैसे ही इसे भी जिन्दा जला दिया जाए। जालिम सुबेदार नासर अली को जिन्दा
जलाकर करतारपुर की तबाही का बदला लिया गया।
1707. गुरूद्वारा श्री निवास और विवाह स्थान माता गुजरी
साहिब जी, किस स्थान पर सुशोभित है ?
1708. सँसार में केवल एक ही स्त्री ऐसी है, जिसका पति शहीद,
पुत्र शहीद, पौतरे शहीद और आप भी शहीद, ऐसी जगत माता कौन है ?
1709. माता गुजरी जी के पिता जी का क्या नाम था ?
1710. माता गुजरी जी की माता जी का क्या नाम था ?
1711. माता गुजरी जी का विवाह नौवें गुरू, श्री "गुरू तेग
बहादर" जी से कब हुआ था ?
1712. गुरूद्वारा श्री अर्न्तयामता साहिब जी किस स्थान पर
सुशोभित है ?
1713. गुरूद्वारा श्री अर्न्तयामता साहिब जी किस गुरू
साहिबान से संबंधित है ?
1714. गुरूद्वारा श्री अर्न्तयामता साहिब जी का नाम
अर्न्तयामता कैसे पड़ा ?
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पहले गुरू, श्री गुरू नानक देव जी से मुसलमानों ने पुछा कि
आप हिन्दूओं के गुरू हो, तब गुरू जी दे कहा कि हम तो सबके हैं। मुसलमानों ने कहा
कि अगर सबके हो, तो हमारे साथ चलकर नमाज अदा करो। गुरू जी उनके साथ आ गये।
मस्जिद में सभी नमाज अदा करने लगे, लेकिन गुरू जी सीघे खड़े रहे। सबने पुछा कि
आपने नमाज क्यों नहीं पड़ी, तो गुरू जी ने कहा, आपने भी नहीं पड़ी। नवाब बोले हमने
तो पड़ी है, तो गुरू जी बोले कि आपका मन तो कँधार में घोड़े खरीदने गया हुआ था।
शरीरक तौर पर तुम भी हाजिर थे, हम भी हाजिर थे, पर ध्यान कहीं और था। ये सुनकर
खान ने कहा कि आप काजी के साथ नमाज पड़ लेते, तो गुरू जी बोले इनका मन तो अभी-अभी
जन्मे बछड़े में था कि कहीं वो कुँए में न गिर जाए। सभी के शीश गुरू जी के चरणों
में झुक गये और कहने लगे कि ये तो अर्न्तयामी है। इसलिए इस गुरूद्वारे का नाम
श्री अर्न्तयामता साहिब है।
1715. गुरूद्वारा श्री बेबे नानकी जी साहिब किस स्थान पर
सुशोभित है ?
1716. गुरूद्वारा श्री बेबे नानकी जी साहिब, बेबे नानकी जी
से किस प्रकार से इतिहासिक संबंध रखता है ?
1717. गुरूद्वारा श्री बेर साहिब, सुल्तानपुर लोघी टाउन, जिला
कपुरथल्ला किस गुरू से और किस प्रकार संबंध रखता है ?
1718. गुरूद्वारा श्री बेर साहिब जी, सुल्तानपुर लोघी टाउन,
जिला कपुरथल्ला, किस नदी के किनारे सुशोभित है ?
1719. गुरूद्वारा श्री चौड़ा खूह साहिब जी किस स्थान पर
सुशोभित है ?
1720. गुरूद्वारा श्री चौड़ा खूह साहिब जी किस गुरू साहिबान
से और किस प्रकार से संबंधित है ?
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इस स्थान को छठवें गुरू हरगोबिन्द साहिब जी की चरन धूल
प्राप्त है। संमत् 1691 बिक्रमी (सन् 1634) को श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी
करतारपुर से मुगलों से जँग करने के बाद पलाही साहिब पहुँचे और मुगलों से जँग
की, मुगल फौजें हार के भाग गईं। गुरू जी को फग्गू नामक सेवक याद किया करता था।
गुरू जी ने सोचा कि पहले फग्गू चौधरी के घर जाकर आराम किया जाए। फग्गू को जब ये
मालूम हुआ कि गुरू जी मुगलों से युद्ध करके आ रहे हैं, तो वो डर गया, उसने गुरू
जी की सेवा नहीं की। गुरू जी समझ गये कि यह डर गया है। स्वभाविक ही गुरू जी ने
कहा– फग्गू का बाड़ा बाहरो मीठा अंदरों खारा। इसके बाद गुरू जी ने जँगल में एक
बेरी के नीचे आराम किया और सुखचैन प्राप्त किया, इस स्थान गुरूद्वारा श्री
सुखचैनआणा साहिब है।