9. राजा सूरजमल सैन का उद्धार करना
पीपा जी ने जब तीन चार भंडारे किए तो उनकी शोभा बहुत फैल गई। हजारों नर नारी उनके
दर्शन करने के लिए आने लगे। उस नगरी में राजा सूरजमल सैन थे, वह पीपा जी के पासा आए
और दर्शन करके निहाल हो गए। पीपा जी की महिमा को देखकर वह उनसे गुरू दीक्षा लेने के
लिए चाहवान हुए। उनकी प्रबल इच्छा हुई कि वह भक्त पीपा जी से दीक्षा प्राप्त करें।
राजा ने दोनों हाथ जोड़कर कहा: भक्त जी ! आप तो परमात्मा का रूप हो। आप मुझ पर भी
कृपा करें। मैंने राज करते हुए अनेक पाप किए हैं। हरि का सुमिरन नहीं किया। सुमिरन
किए बिना कल्याण नहीं हो सकता। पीपा जी बोले: हे राजन ! भक्ति का मार्ग बहुत कठिन
है। इन्द्रियों को सँयम में रखना पड़ता है। सारे जगत को अपना बनाना पड़ता है तथा स्वयँ
को दुनिया के लिए अर्पित करना पड़ता है। राजा महाराजाओं के लिए यह मार्ग अति कठिन
है। सुख, दुनियावी आराम सब अच्छे लगते हैं, प्रभु की भक्ति कड़वी है। सूरजसैन ने कहा:
भक्त जी ! कुछ भी हो, आप कृपा करें। मुझे दीक्षा अवश्य दीजिए। मैं आपका भक्त बनना
चाहता हूँ। यह सुनकर भक्त पीपा जी ने कहा: यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो तुम इस
प्रकार करो कि अपना राजमहल तथा अपनी रानी को मुझे सौंप दो। तभी तुम्हें दीक्षा
मिलेगी। यह सुनकर राजा राजमहल की तरफ बढ़ा और राजमहल की चाबियाँ और रानी को लेरक
भक्त पीपा जी के चरणों में उपस्थित हुआ और मोहरों और चाबियों को भक्त पीपा जी के
चरणों में रख दिया और रानी को भक्त पीपा जी के निकट ही बिठा दिया। राजा की मनोभावना
को देखकर भक्त पीपा जी दयावान हो गए। उन्होंने गुरू दीक्षा दी। दीक्षा देने के
पश्चात भक्त पीपा जी ने महल के खजाने की चाबी तथा मोहरें और उसकी रानी को लौटा दिया।
भक्त पीपा जी ने कहा: राजन ! आज से तुम राजा नहीं बल्कि परमात्मा को भक्त हो।
अहँकार न करना, किसी के दिल को मत दुखाना, प्रभु का सुमिरन करना तथा संतों की सेवा
करना। राज्य के मालिक हम हैं। अपने आपको राज्य का सेवक समझना। यह कहकर भक्त जी ने
रानी से कहा: हे पुत्री ! आज से तुम मेरी बेटी हो। प्रभु भक्ति तथा पति की सेवा करना।
अपने पति को प्रोत्साहन अवश्य देना। स्त्री की सहायता के बिना पुरूष भक्तिसागर के
पार सहसा नहीं जा सकता। प्रत्येक तरह से सहायता करना। किसी भी चीज का अहँकार न करना।
जाओ संतों की सेवा करो तथा राम नाम का सुमिरन करो। किसी भी बात पर परेशान नहीं करना,
क्योंकि स्त्री की सहायता के बिना पुरूष भक्ति के सागर में से आसानी से नहीं तैर
सकता। हर तरह की सहायता करना। अहँकार मत करना, न ही राज्य का और न ही भक्ति का। जाओ
संतों की सेवा करो, राम नाम का सुमिरन करो। प्रभु तुम्हारा कल्याण करेगा। दीक्षा तथा
उपदेश ग्रहण करके राजा तथा रानी अपने गृह चले गए। अहँकार को त्यागकर निम्रता से रहने
लगे। सुबह उठकर स्नान करते और फिर राम नाम का सुमिरन करते। उनका ऐसा व्यवहार देखकर
उनकी प्रजा बहुत खुश हुई। भक्त पीपा जी को भी राजा ने अपनी नगरी को छोड़कर जाने न
दिया। भक्त पीपा जी ने अनेकों पुरूषों का उद्धार किया है। आखिर के दिनों में वह
पूर्ण ब्रहमज्ञानी बन गए। उनका एक शब्द श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में भी सम्मिलित
किया गया है। आप फरमाते हैं:
कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंगम जाती ।।
काइअउ धूप दीप नईबेदा काइअउ पूजहु पाती ।।
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ।। रहाउ ।।
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै ।।
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरू होइ लखावै ।। अंग 695
अर्थ: (यह तन प्रभु हरि है। इसी को उसका घर और साधुओं की सम्पदा
समझो। जो भी पूजा की सामाग्री, धूप, दीप, भेटा, प्रसाद, फूल आदि हैं वह सब शरीर के
पास हैं। इनसे पूजा कैसे हो सकती है। जिस चीज को देशों में खोजते फिरते हैं, वह इस
तन के अंदर ही है। जो कुछ दृष्टमान ब्रहमाण्ड में है वह शरीर के भीतर है। यदि कोई
खोजे तो मिल जाता है। पीपा जी की प्रार्थना है कि परमात्मा जी इस जगत का मूल है।
स्वयँ ही गुरू बनकर अपनी सच्चाई आप हमें बताता है। हे जिज्ञासु जनों ! हरि भक्ति
में लीन हो जाओ। कलयुग में जीवन कल्याण का केवल यही एक सच्चा साधन है। अन्य सभी
पाखंडों का त्याग करो।)
महत्वपूर्ण नोटः साधसंगत जी भक्त बाणी का विरोधी इस बाणी
के बारे में ऐतराज प्रकट करता है, जो कि कुछ इस प्रकार से हैः
ऐतराज नम्बर (1) इस शबद में वेदांत मत का प्रचार है,
भक्त पीपा जी काया में परमात्मा मानते हैं। यह ‘मैं‘ ब्रहम हूँ का सिद्धान्त है।
ऐतराज नम्बर (2) इस शबद में प्रेम भक्ति बिल्कुल नहीं है।
साधसंगत जी आइऐ अब इन ऐतराजों का सही स्पष्टीकरण भी देख लें।
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः ऐतराज करने वाले विरोधी ने यहाँ पर वेदान्त मत
बताया है। पर बाणी में तो भक्त जी ने अपने परमात्मा के बारे में तीन बातें साफ रूप
में कही हैं। (जो ब्रहमंडे सोई पिंडे) पहलीः परमात्मा शरीर में बसता है। दूसरीः
शरीर के साथ-साथ पूरी सृष्टि में बसता है। और (परम ततु) तीसरीः परम ततु यानि सारी
सृष्टि की रचना का मूल कारण है, वह ब्रहमाण्ड में केवल बसता ही नहीं है, ब्रहमाण्ड
को बनाने वाला भी है। साधसंगत जी लगता है कि भक्त बाणी का विरोधी कुछ ज्यादा ही
जल्दी में है और उसने पूरे शबद को सही तरीके से ना तो पढ़ा है और ना ही इसे विचारा
है। अतः साधसंगत जी यहाँ पर स्पष्ट होता है कि परमात्मा कण-कण में व्याप्त होने के
साथ-साथ हमारे घट में, हमारे शरीर में भी होता है और उसे केवल जप के यानि सिमरन करके
ही पाया जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि यदि परमात्मा हमारे शरीर में ही होता है
? तो फिर उसका नाम जपने की क्या आवश्यकता है ? तो इसका सीधा और साफ उत्तर यही है कि
जिस प्रकार किसी दर्पण (आईना, शीशे) पर धूल जमी हो तो आप उसमें अपना चेहरा साफ तरीके
से नहीं देख सकते। आपको उस दर्पण या आईने को साफ करना होगा। ठीक इसी प्रकार से हमारे
मन में कई जन्मों की मैल जमा है यानि कई जन्मों के पाप आदि हैं और इन पापों, कर्मों
और मैल को धोने के लिए परमात्मा के नाम रूपी जल से धोना होता है, तभी मन साफ और
निरमल होता है। और जब मन नाम जपकर साफ हो जाता है तो फिर उस सर्वशक्तिमान परमात्मा
से मिलन हो जाता है।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः भक्त बाणी के विरोधी ने
कहा है कि इस बाणी में प्रेम भक्ति का प्रकटाव बिल्कुल नहीं है। साधसंगत जी लगता है
कि भक्त बाणी के विरोधी ने यह बात अपनी किताब में लिखने में जल्दबाजी कर दी है। जबकि
साधसंगत जी आप ही शबद को देखें इसमें रहाउ वाली तुक में शबद का मुख्य भाव ही यह कहा
है कि मन्दिर में जाकर मूर्ति पूजा करने के स्थान पर अपने शरीर के अन्दर राम की
दुहाई मचा दो। इतनी तीव्र याद में जुड़ो कि किसी अन्य पूजा का विचार भी ना उठे,
अन्दर राम नाम की लिव बन जाए। साधसंगत जी अब आप ही बताएं कि यहाँ पर प्रेम भक्ति नहीं
तो ओर क्या है ? अतः भक्त बाणी के विरोधी का यह ऐतराज भी गल्त है।
निष्कर्ष या नतीजाः
1. भक्त पीपा जी की बाणी प्रेम भक्ति के परिपूर्ण है।
2. भक्त पीपा जी की बाणी गुरमति के अनुसार ही है।
3. भक्त पीपा जी की बाणी गुरू साहिबानों के आशे से मिलती है।
वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतह।