7. ब्राहम्णों द्वारा विरोध करना
जब भक्त रामानँद जी ने रविदास जी की आत्मिक दशा देखी और उनके मुख से बाणी सुनी तो
जैसे वह स्तबध से ही रहे गए और घर पर वापिस आकर उन्होंने भी मूर्ति पूजा और सभी
प्रकार के करमकाँड आदि छोड़ दिए और केवल राम नाम में ही रम गए, हालांकि वह राम नाम
तो पहले भी जपते थे, किन्तु साथ ही वह मूर्ति पूजा और अन्य ब्राहम्णों वाले
कर्मकाण्ड आदि भी किया करते थे। (नोटः रामानँद जी केवल परमात्मा का नाम ही जपते थे
और जपवाते थे, वो तो अपने समाज और ब्राहम्णों के दिखाने के लिए कभी-कभी मन्दिर में
होने वाले कार्यक्रमों में चले जाते थे। परन्तु जब उन्होंने मन्दिर जाना बन्द कर
दिया तो ब्राहम्णों को विरोध तो करना ही था, यहाँ पर यह बात भी बता दें कि सारे के
सारे 15 भक्त जिनकी बाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में सम्मिलित हैं, वो चाहे किसी
भी धर्म या जाति के थे, वो सभी मूर्ति उपासक नहीं थे और केवल एक राम का नाम ही यानि
परमात्मा का नाम ही जपते थे। इसके बाद रामानँद जी ने बाणी की रचना की। उनका एक शब्द
जो नीचे दिया जा रहा है, उसमें किसी भी प्रकार के वैष्णव या वेदान्त मत का प्रचार
नहीं है और वो गुरमति के अनुकुल है और गुरू साहिबानों जी के आशे के अनुसार ही है।
आजकल भक्त बाणी के कुछ विरोधी सज्जन उनकी बाणी पर भी विरोध में कुछ अनापशनाप लिखते
हैं, किन्तु यहाँ पर हमने उनकी बाणी और उसके अर्थ और उन विरोधी लोगों की विरोधता पर
स्पष्टीकरण देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि वो लोग सही नहीं हैं।) जब ब्राहम्णों को
इस बात का पता चला तो उन्होंने हल्ला मचा दिया कि देखो, चेले रविदास को गुरू
रामानँद के पीछे होना था लेकिन यहाँ पर तो गुरू जी चेले के पीछे है। रामानँद जी ने
तो वेद रहित कर्मकाण्ड करने त्याग दिए हैं और मन्दिरों में जाना भी त्याग दिया है।
पण्डितों का यह शोरशराबा सुनकर रामानँद जी ने एक राग बसंत में बाणी उच्चारण कीः
कत जाईऐ रे घर लागो रंगु ॥
मेरा चितु न चलै मनु भइओ पंगु ॥१॥ रहाउ ॥
एक दिवस मन भई उमंग ॥
घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥
पूजन चाली ब्रह्म ठाइ ॥
सो ब्रह्मु बताइओ गुर मन ही माहि ॥१॥
जहा जाईऐ तह जल पखान ॥
तू पूरि रहिओ है सभ समान ॥
बेद पुरान सभ देखे जोइ ॥
ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ॥२॥
सतिगुर मै बलिहारी तोर ॥
जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ॥
रामानंद सुआमी रमत ब्रह्म ॥
गुर का सबदु काटै कोटि करम ॥३॥१॥ अंग 1195
अर्थ– "(हे भाई जनों ! परमात्मा को बाहर ढूँढने क्यों जाएँ जबकि
वह तो शरीर में ही दिल में ही रह रहा है यानि कि मन में ही रँग लगा हुआ है। मेरा
चित अब चल नहीं सकता क्योंकि मन रूपी कर्म पिंगल हो गए हैं। एक दिन मेरे मन में एक
इच्छा पैदा हुई और मैंने चन्दन रगड़कर माथे पर तिलक लगाकर सुगँधी लेकर ठाकुर के
द्वारे पर ठाकुर पूजन के लिए चला परन्तु सतगुरू ने कृपा कर दी और ठाकुर मन में ही
मिल गया। जैसे भी जानो पानी और पदार्थों आदि में तूँ समा रहा है, तेरी कुदरत दोनों
में एक जैसा खेल कर रही है। सारे वेद पुरान आदि पढ़कर विचार किया है, परन्तु परमात्मा
को बाहर (जँगलों में) ढूँढने के लिए तो जाएँ अगर वो दिल में ना हो। मैं सतगुरू पर
कुर्बान जाता हूँ, जिसने मेरे सारे भ्रम काट दिए हैं। रामानँद जी अब केवल एक ईश्वर
को सिमरते हैं, क्योंकि गुरू के शब्द ने करोड़ों कूकर्म दूर कर दिए हैं यानि करोड़ों
जन्म के किलविख काटकर परमात्मा के नाम से जोड़ दिया है।)" इस बाणी को सुनकर सभी चुप
हो गए। नोटः इस शब्द का भाव पूरी तरह से गुरमति से मिलता है। पर फिर भी भक्त बाणी
के विरोधी अपनी किताब में लिखते हैं कि रामानँद जी वेदान्त मत के पक्के श्रद्धालू
और पक्के मूर्तिपूजक थे। भक्त बाणी के विरोधी ऊपर लिखी बाणी के बारे में कहते हैं
कि इस शबद में वेदांत मत की झलक है।
भक्त बाणी के विरोधी के ऐतराजः
ऐतराज नम्बर (1) उक्त शबद में वेदान्त की झलक है।
ऐतराज नम्बर (2) मन्दिर की पूजा का जिक्र उल्टा है, इससे हैरानी होती है कि यह शबद
आपके मत के विरूद्ध क्यों है।
ऐतराज नम्बर (3) भक्त जी ने अपने आपको स्वामी कहकर लिखा है, पता नहीं, किस ख्याल से
? हो सकता है कि यह शबद उनके किसी चेले की रचना हो।
ऐतराज नम्बर (4) क्या सारी आयु में रामानंद जी ने केवल एक ही शब्द उच्चारण किया।
इन ऐतराजों पर विचार और स्पष्टीकरणः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः विरोधी जी, अगर इस शबद में वेदांत की झलक है, तो
नीचे लिखी तुकें देखकर साधसंगत जी बताए कि इनमें कौनसा ख्याल गुरमति के उलट हैः
अ. सो ब्रहमु बताइओ गुर मन ही माहि।
ब. तू पूरि रहिओ है सभ समान।
स. रामानंद सुवामी रमत ब्रहम।
अब साधसंगत जी आप ही ईमानदारी से बताईए कि क्या इन तूकों में
कुछ गुरमति के उल्ट है। जी नहीं, बिल्कुल नहीं है। यह तुकें गुरमति के अनुरूप हैं
और गुरू साहिबान के आशे से भी मिलती हैं।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः विरोधी सज्जन जी, लगता है आपने इस शबद को
ध्यान से विचारा ही नहीं। इस शबद में भक्त रामानँद जी अपना मत यह बता रहे हैं कि
तीर्थों पर स्नान और मूर्ति पूजा से मन के भ्रम काटे नहीं जा सकते। पर जिन विरोधी
लोगों ने भक्त बाणी का विरोध करना ही करना है, उनको इस प्रकार के स्पष्टीकरण देने
का क्या लाभ। हाँ लाभ यह है कि साधसंगत इन भक्त बाणी के विरोधी लोगों की किताबें न
पढ़ें, अगर आपके पास ऐसी कोई किताब है, जिसमें भक्तों की बाणी या उनके खिलाफ कोई बात
की गई है, तो आप उस किताब पर विश्वास न करें।
ऐतराज नम्बर (3) का स्पष्टीकरणः ऊपर दी गई बाणी में दी गई तुकः रामानंद सुआमी
रमत ब्रहम। इस पर ऐतराज करने वाले विरोधी ने समझा है कि भक्त रामानँद जी ने अपने
आपको स्वामी कहा है। फिर विरोधी अपने आप ही अन्दाजा लगाता है कि यह शबद उनके किसी
चेले का होगा। अगर यह विरोधी सज्जन जानबूझकर भोले नहीं बन रहे हैं, तो इस तुक का
अर्थ ऐसे हैः रामानँद का स्वामी ब्रहम हर स्थान पर रमा हुआ और व्यापक है। इसी
प्रकार पाँचवें गुरू साहिब श्री गुरू अरजन देव जी ने भी सारंग राग शबद नम्बर 136
में परमात्मा के दर्शन की तांघ करते हुए कहा हैः
नानक सुआमी गहि मिले, हउ गुर मनाउगी।
नानक सुआमी यानि नानक का स्वामी, इसी प्रकार रामानंद सुआमी यानि
रामानंद का स्वामी। गुरूबाणी का थोड़ा सा व्याकरण जानने वाला यह समझ लेगा कि यहाँ पर
लफ्ज़ ‘नानक‘ संबंध कारण एकवचन है। इसी प्रकार धनासरी राग के छंत में श्री गुरू नानक
देव जी कहते हैः
नानक साहिबु अगम अगोचरू, जीवा सची नाई ।।
नानक साहिबु अवर न दूजा, नामि तेरै वडिआई ।।
यहाँ पर दोनों तुकों में नानक साहिबु का अर्थ है नानक का साहिब
यानि नानक का परमात्मा। इसे पढ़कर तो सिक्ख धर्म का कोई भी विरोधी यह समझ लेगा कि
श्री गुरू नानक देव जी ने अपने आपको साहिब यानि परमात्मा कहा है। जिस प्रकार से
भक्त बाणी के विरोधी ने कहा है कि रामानँद जी ने अपने आपको बाणी में स्वामी कहा है।
ऐतराज नम्बर (4) का स्पष्टीकरणः यह कोई वजनदार ऐतराज प्रतीत नहीं होता। अगर
रामानँद जी ने सारी उम्र में केवल एक ही शबद उचारा है, तो ऐसा कहने से इस शबद ही
सच्चाई कम नहीं हो जाएगी। हो सकता है कि उन्होंने सारी उम्र उतने की प्रचार पर जोर
दिया हो जिसका कि शबद में जिक्र है। बाणी में दिए गए तीन बंद छोटे से प्रतीत होते
हैं, पर ध्यान देकर देखो इनमें कितनी सच्चाई भरी हुई हैः
अ. मन्दिर में जाकर किसी पत्थर की मूर्ति को चोआ चंदन लगाकर
पूजने की जरूरत नहीं।
ब. तीर्थों पर स्नान करने से मन के भ्रम नहीं काटे जा सकते।
स. गुरू की शरण में आओ। गुरू ही बताता है कि परमात्मा हिरदे रूपी मन्दिर में बस रहा
है और परमात्मा हर स्थान पर बस रहा है। गुरू का शब्द ही करोड़ों कर्मों के सँस्कार
नाश करने में समर्थ है, जो कि बन्धन का और बार-बार जन्म लेने का कारण होते हैं।
अगर भक्त जी बाणी नहीं उचारते तो क्या उनकी आत्मिक उच्चता कम हो
जाती। छठवें गुरू साहिब श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी, सातवें गुरू श्री गुरू
हरिराए साहिब जी और आठवें गुरू श्री गुरू हरिक्रिशन साहिब जी ने कोई शबद नही उचारा
था। दूसरे गुरू श्री गुरू अंगद देव साहिब जी सन 1539 से लेकर 1552 तक 13 साल के
करीब गुरू पद पर आसीन रहे, 150 महीनों से अधिक समय तक। पर उनके सलोक 150 भी नहीं
हैं। भक्त रामानँद जी पर यह विरोध करना कि उन्होंने पूरे जीवन में केवल एक ही शबद
उचारा। इस बात का विरोध करना और भक्त जी पर छिंटाकशी करना उचित नहीं है। कम बाणी
उचारने के कारण हम भक्त रामानँद जी और श्री गुरू नानक देव जी में कोई फर्क नहीं मान
सकते, दोनों बराबर ही हैं। भक्त बाणी के विरोधी सज्जन को इस शबद में कोई खास ऐतराज
करने वाली बात नहीं मिल सकी तो वो विरोधी इसी बात पर जोर दे रहे हैं कि रामानंद जी
वैरागी थे, तिलक जनेऊ पहनते थे, छुत छात के हामी थे, पीले वस्त्र पहनते थे इत्यादि।
पर सिक्ख इतिहास अनुसार भाई लहणा जी जो कि बाद में दूसरे गुरू अंगद देव जी बने, देवी
के भक्त थे और हर साल पैरों में घूँघरू बाँधकर देवी के दर्शनों को जाते थे, देवी के
भक्त के लिए छूतछात का हामी होना अति आवश्यक है, भाई लहणा जी (गुरू अंगद जी)
नवरात्रों में कंजकें भी बिठाते थे। इसी प्रकार देखा जाए तो तीसरे गुरू श्री गुरू
अमरदास जी भी 19 साल तक हर साल तीर्थ पर जाते रहे, ब्राहम्णों के बताए गए करमकांड
करते रहे। तो क्या सिक्ख धर्म के विरोधी हमको यही सुना-सुनाकर बोलते रहेंगे और क्या
हम यह मान लेंगे कि इन गुरू साहिबानों की बाणी इन के जीवन के उलट थी ? जी नहीं
साधसंगत जी, हम कभी भी नहीं मानेंगे, क्योंकि आप जानते हैं कि जीवन में पलटा तब आता
है, जब एक सम्पूर्ण गुरू मिल जाता है। गुरू अंगद देव जी और गुरू अमरदास जी के जीवन
में भी इसी प्रकार का बदलाव गुरू के मिलने के बाद ही आया था।
अगर रामानँद जी कभी वैरागी मत के थे और तिलक जनेऊ पहनते थे या
ओर भी बातें कही जा सकती हैं। पर हमने यह देखना है कि भक्त रामानँद जी क्या बन गए।
वो आप ही कहते हैः
अ. सो ब्रहम बताइओ गुरू मन ही माहि।
ब. जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर।
स. गुर का सबदु काटै कोटि करम।
इसलिए जिस प्रकार भाई लहणा जी (गुरू अंगद देव जी) और गुरू
अमरदास जी का जीवन गुरू के दर पर आकर गुरमति के अनुकुल हो गया, वैसे ही रामानँद जी
का जीवन भी गुरू के पास जाकर गुरमति के अनुसार हो गया।