2. राघवानँद जी से मिलना
रामदत्त जी (रामानँद जी) प्रारम्भ में एक सँस्कृत के पंडित से अक्षर ज्ञान, व्याकरण,
पिंगल आदि आधारभूत ग्रँथ पढ़ते थे। पढ़ने में वह अति योग्य थे। तीक्ष्ण बुद्धि के
फलस्वरूप वह कठिन से कठिन पाठ भी सहज से याद कर लेते थे। जब पढ़ते हुए कुछ समय बीत
गया तो वह वाटिका गमन के लिए प्रस्थान कर गए। उसी वाटिका में राघवानँद जी भी अपने
दो शिष्यों की संगति में निकल पड़े। बाल रामदत्त को राघवानँद जी ने अपने समीप बुलाया
और उसके चेहरे के चिन्ह पढ़े। उसकी आकृति देखकर वह बोलेः हे बालक ! क्या तुम्हें
तुम्हारी आयु का ज्ञान है ? रामदत्तः नहीं महाराज ! राघवानंदः तुम्हारी आयु पूर्ण
हो चुकी है, मृत्यु निकट है। रामदत्तः आपको किस प्रकार इस भविष्यकाल की घटना का
आभास हुआ ? राघवानंदः बस तुम्हें सुचित कर रहा हूँ। रामदत्त ने इसके पश्चात कोई
वार्तालाप न किया और उदास होकर अपने विद्या गुरू के समक्ष प्रस्तुत हुआ। उसने उसे
सारी व्यथा सुनाई। विद्या गुरू भी सोच में लीन हो गया। कुछ समय पश्चात वह रामदत्त
को लेकर राघवनँद के द्वार पहुँचा। राघवानँद ने उसे चेतावनी दी कि यह बालक केवल कुछ
दिनों का मेहमान है। जब उसने आयु दीर्घ करने की युक्ति पूछी, तो स्वामी जी ने उत्तर
दिया कि यदि मनुष्य योग साधना की सहायता से दसवें द्वार तक प्राणों का उठान करने
में सक्षम हो जाए ता उसकी आयु दीर्घ हो सकती है। रामदत्त और उसके गुरू ने मिलकर
विनती कीः महाराज ! बालक को दीक्षा जी जाए। उसे अनुयायी बनाकर योग अभ्यास करवाया
जाए। राघवानँद पूर्ण योगी थे, उन्होंने रामदत्त को दीक्षा दी और उसका नाम रामानँद
रख दिया। योग अभ्यास करवाकर प्राण दववें द्वार चढ़ा दिए। इसी भाँति प्राणों को चढ़ाते
उतारते रहे। इसके फलस्वरूप रामानँद जी की आयु दीर्घ हो गई। उसने मृत्यु को पराजित
कर लिया। वह विद्या ग्रहण करने लगा। राघवानँद ने अधिक परिश्रम से रामानँद जी को
सम्पूर्ण शास्त्र ज्ञान प्रदान किया। तीव्र बुद्धि के कारण वे प्रसिद्ध हुए और
मुख्य विद्वान उनके समक्ष ज्ञान चर्चा के उद्देश्य से आने लगे। उनकी सक्रिय बुद्धि
से प्रभावित होकर राघवानँद जी ने मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि वे रामानँद जी को
अपनी गुरू गद्दी प्रदान कर जाएँगे। रामानँद जी ने अपने माता पिता से सन्यास स्वीकृति
की आज्ञा ले ली। रामानँद जी अब स्वामी रामानँद जी बन गए। उन्होंने देश के विभिन्न
तीर्थ स्थानों की यात्रा की। यात्रा के उपरान्त वे काशी प्रतिगमन कर गए। काशी में
उन्होंने स्थायी निवास स्थापित किया क्योंकि काशी उस समय भारत के ज्ञान का
सर्वोत्तम केन्द्र था। काशी के विद्या गुरूओं पर समस्त भारत को अभिमान था। भारत गमन
के फलस्वरूप स्वामी जी को देश की राजनितिक व सामाजिक दशा का पूर्ण रूप से ज्ञान हुआ।
उन्होंने निश्चय किया कि प्रत्येक ब्राहम्ण, वैष्णव, शुद्र व क्षत्रिय को उपदेश
देकर उच्च कोटि का जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करेंगे। ब्रहमचार्य, शारीरिक बल
एवं निरन्तर भक्ति, यह तीन उद्देश्य थे उनके उपदेश के। इन तीन गुणों की नीवं पर
उन्होंने वैरागी दल स्थापित किया। सारे वैरागी आपके अनुयायी हैं। उन्हें जात-पात एवं
छूत-अछूत का कोई भ्रम नहीं होता। कबीर और रविदास जी के गुरू भी रामानँद जी ही हुए।
इनकी कृपा से ही वैष्णव सभ्यता में प्रचलित जातियों के महापुरूषों ने अपने विचारों
को प्रचारित किया। आप सँस्कृत के विद्वान थे। आपने अनेकों ग्रँथों की रचना की जिनमें
से आनन्द भाश्य, भगवत गीता भाश्य, वैष्णव मंतात्त भास्कर एवं श्री रामाचरन धति (पांधी)
प्रसिद्ध ग्रँथ हैं। सम्वत विक्रमी की पंद्रहवीं सदी में जिनते भी भक्त जन काशी या
मध्य भारत में विख्यात हुए, उन सब पर स्वामी जी का प्रभाव था। उनका प्राथमिक धर्म
था भक्त जनों से विचार विमर्श करना। भक्ति भाव वाला मनुष्य चाहे नीच जाति का क्यों
न होता वे उसे स्वीकारते। आपके शिष्यों की सँख्या अनुमानित करना तो सम्भव नहीं
परन्तु उनमें प्रमुख थेः
1. भक्त अनंता नँद
2. भक्त सुरेश्वरा नँद
3. भक्त सुखा नँद
4. भक्त नर हरिदा नँद
5. भक्त योग नँद
6. भक्त धनेश्वर
7. भक्त गालवा नँद
8. भक्त कबीरदास जी
9. भक्त रविदास जी
10. भक्त पीपा जी
11. भक्त सैण जी
12. भक्त भावा नँद जी
13. भक्त धन्ना जी