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1. जन्म और प्रारम्भिक जानकारी
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भक्त रामानन्द जी का पहला नामः रामा दत्त
जन्मः 1366 ईस्वी
पिताः भूरी करमां (भूरे करमां)
माताः श्री सुशील जी
जन्म स्थानः काशी बनारस, (उत्तरप्रदेश)
रचनाः श्री रामा-चरण-पाधी
मुख्य शिष्यः भक्त कबीर जी, भक्त रविदास जी, भक्त पीपा जी, भक्त सैन जी
कुल आयुः 101 वर्ष
महत्वपूर्ण कार्यः भक्ति लहर, जिसे पुरे देश में फैलाया।
आध्यात्मिक शिक्षाः परमात्मा किसी एक या किसी विशेष स्थान पर नहीं रहता, वो तो
हर स्थान पर मौजूद है। परमात्मा गुरू की कृपा दृष्टि से मिलता है और मनुष्य के
शरीर में यानि कि घट में ही होता है।
बाणी में योगदानः एक शबद, राग बसंत, अंग 1195
भक्त रामानन्द जी ने उदारवादी सम्प्रदाय की नींव रखी। आपने शूद्रों भाव तथाकथित
अछूतों व अन्य छोटी जाति के भक्तों को अपने सम्प्रदाय में शामिल किया और उन्हें
हृदय से लगाकर भक्ति मार्ग में उनकी अगुवाई की।
सबसे खूबसूरत पहलूः रामानन्द जी का सबसे खूबसूरत पहलू यह था कि आपने सँस्कृत का
त्याग करके लोक-भाषा में अपने विचार पेश किए, बेशक सँस्कृत में भी इनके कुछ
ग्रँथ मिलते हैं।
देह त्यागने का समयः 1467 ईस्वी
अन्तिम स्थानः पँजंग घाट, बनारस
भक्त दर्शन
स्वामी रामानंद जी का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) के ब्राहम्ण भूरी करमां के घर सम्वत
1423 विक्रमी में माता सुशीला जी की कोख से हुआ। माता-पिता ने बालक का नाम रामदत्त
रखा। रामदत्त पाँच वर्ष तक माँ-बाप के पाल पले। उन्होंने बालक के पालन-पोषण में कोई
कमी नहीं छोड़ी। उसे योग्य समझते हुए भूरी करमां जी ने उन्हें जनेऊ धारण करवाया।
जनेऊ की रस्म पूर्ण करने के पश्चात वे बालक को काशी, बनारस ले आए। काशी उस समय
विद्या का महान केन्द्र थी। ज्योतिष, वैदिक एवँ शास्त्रों की विद्या पूर्ण रूप से
प्रदान की जाती थी। वैष्णव मत का गम्भीर प्रभाव था। वैष्णव सन्यासी भारी सँख्या में
होते थे। साथ ही वह भक्तिकाल था। उस समय विद्या ग्रहण करके भक्ति की ओर बहुत लोग
जुड़ते थे। प्रभु को याद किया एवँ पाया जाता था। परमात्मा भी उस समय कलयुगी जीवों के
उद्धार के लिए महापुरूषों को जगत में भेजते थे। काशी में वैष्णव मत प्रधान था। इस
मत की शाखाएँ थीः माधव, विष्णु, निंबारक एवँ रामानुजी। सम्वत विक्रमी की पन्द्रहवीं
सदी में रामानुजी समुदाय था जिसे स्त्री समुदाय भी कहा जाता था क्योंकि इसकी
प्रारम्भिक माता सीता जी मानी जाती हैं। श्री राम मँत्र का जाप इस समुदाय का मुख्य
प्रयोजन समझा जाता है। इस समुदाय की रामानुजी शाखा के चौथे गुरू रामानँद जी थे।
स्वामी रामानँद जी किसी भी बात पर हमेशा बेटा राम बोलो कहते थे, उनके कितने ही
शिष्य हुए हैं और उनका श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में एक शबद भी श्री गुरू अरजन देव
साहिब जी ने श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी की रचना करते समय शामिल किया था। पहले यह
मूर्ति पूजक अवश्य थे किन्तु बाद में इन्हें अपने ही शिष्य भक्त रविदास जी के द्वारा
एक ऐसे ज्ञान की प्राप्ति हुई कि उन्होंने हमेशा के लिए मूर्ति पूजा को छोड़ दिया और
हमेशा के लिए उस परमात्मा से ही एकमिक हो गए। इस घटना का जिक्र आगे किया जाएगा। उनके
एक ओर प्रसिद्ध शिष्य भक्त कबीरदास जी भी थे। कबीरदास जी भी अपने गुरू से एक कदम आगे
ही थे, वह भी अपने गुरू जी को कभी-कभी शिक्षा दे देते थे।
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