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6. किस अवस्था में परमात्मा मन में आ टिकता है ?

अगर कोई पूछे कि किस अवस्था में परमात्मा मन में आ टिकता है और उसकी निशानियाँ क्या हैं, तो उत्तर यह है कि उस अवस्था में गुरू का शब्द यानि प्रभु की सिफत सलाह अर्थात परमात्मा की तारीफ के शब्द मनुष्य के दिल में हुलारा पैदा करते हैं। जगत के अंधेरे को दूर करने के लिए चन्द्रमाँ और सूर्य उतने सम्रथ नहीं हैं जितना वो हुलारा मन के अंधेरे को दूर करने के लिए होता है। पवन और पानी आदि तत्व जगत को उतना सुख नहीं दे सकते, जितना सुख यह हुलारा मनुष्य के मन को देता है। नीचे लिखी बाणी और उसके अर्थ देखिएः

इड़ा पिंगुला अउर सुखमना तीनि बसहि इक ठाई ॥
बेणी संगमु तह पिरागु मनु मजनु करे तिथाई ॥१॥
संतहु तहा निरंजन रामु है ॥ गुर गमि चीनै बिरला कोइ ॥
तहां निरंजनु रमईआ होइ ॥१॥ रहाउ ॥ देव सथानै किआ नीसाणी ॥
तह बाजे सबद अनाहद बाणी ॥ तह चंदु न सूरजु पउणु न पाणी ॥
साखी जागी गुरमुखि जाणी ॥२॥ उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥
अमृत रसि गगनंतरि भीजै ॥ एसु कला जो जाणै भेउ ॥
भेटै तासु परम गुरदेउ ॥३॥ दसम दुआरा अगम अपारा परम पुरख की घाटी ॥
ऊपरि हाटु हाट परि आला आले भीतरि थाती ॥४॥
जागतु रहै सु कबहु न सोवै ॥ तीनि तिलोक समाधि पलोवै ॥
बीज मंत्रु लै हिरदै रहै ॥ मनूआ उलटि सुंन महि गहै ॥५॥
जागतु रहै न अलीआ भाखै ॥ पाचउ इंद्री बसि करि राखै ॥
गुर की साखी राखै चीति ॥ मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ॥६॥
कर पलव साखा बीचारे ॥ अपना जनमु न जूऐ हारे ॥
असुर नदी का बंधै मूलु ॥ पछिम फेरि चड़ावै सूरु ॥
अजरु जरै सु निझरु झरै ॥ जगंनाथ सिउ गोसटि करै ॥७॥
चउमुख दीवा जोति दुआर ॥ पलू अनत मूलु बिचकारि ॥
सरब कला ले आपे रहै ॥ मनु माणकु रतना महि गुहै ॥८॥
मसतकि पदमु दुआलै मणी ॥ माहि निरंजनु त्रिभवण धणी ॥
पंच सबद निरमाइल बाजे ॥ ढुलके चवर संख घन गाजे ॥
दलि मलि दैतहु गुरमुखि गिआनु ॥ बेणी जाचै तेरा नामु ॥९॥१॥ अंग 974

अर्थः (हे संत जनो ! माया रहित राम उस अवस्था में मिलता है यानि मनुष्य के अन्दर बसता है, निरंजन सुन्दर राम प्रकट होता है, जिस अवस्था से विरला मनुष्य गुरू की शरण में जाकर साँझ बनाता है। जो मनुष्य गुरू जी किरपा से उस मेल अवस्था में पहुँचा है, उसके रास्ते तीनों नाड़ियाँ इड़ा पिंगला और सुखमना (इड़ाः बाँयी नास की नाड़ी, जिस रास्ते जोगी लोग प्राणायाम करते वक्त स्वास ऊपर की और खींचते हैं। पिंगलाः दाँयी नास की नाड़ी, जिस रासते प्राण उतारते हैं। सुखमनाः नाक के ऊवरवार की नाड़ी, जहां पर प्राणायाम के समय प्राण टिकाते हैं।) एक ही स्थान पर बसती हैं और त्रिवेणी सँगम प्रयाग तीर्थ की उस मनुष्य को जरूरत नहीं रह जाती। भाव उस मनुष्य को इड़ा, पिंगला और सुखमना के अभ्यास की आवश्यकता नहीं रह जाती और उसे तीर्थों के स्नान की भी आवश्यकता नहीं होती। उस मनुष्य का मन परमात्मा के मिलाप रूपी त्रिवेणी में स्नान करता है। अगर कोई पूछे कि किस अवस्था में परमात्मा मन में आ टिकता है और उसकी निशानियाँ क्या हैं, तो उत्तर यह है कि उस अवस्था में गुरू का शब्द यानि प्रभु की सिफत सलाह अर्थात परमात्मा की तारीफ के शब्द मनुष्य के दिल में हुलारा पैदा करते हैं। जगत के अंधेरे को दूर करने के लिए चन्द्रमाँ और सूर्य उतने सम्रथ नहीं हैं जितना वो हुलारा मन के अंधेरे को दूर करने के लिए होता है। पवन और पानी आदि तत्व जगत को उतना सुख नहीं दे सकते, जितना सुख यह हुलारा मनुष्य के मन को देता है। मनुष्य सुरति, गुरू की शिक्षा से जाग जाती है और गुरू के द्वारा समझ आ जाती है। प्रभु मिलाप वाली अवस्था में मनुष्य की प्रभु के साथ गहरी जान-पहिचान हो जाती है। मंदी मत यानि गल्त विचारों का नाश हो जाता है और ऊँची उड़ान में पहुँचा हुआ मन नाम अमृत के रस से भर जाता है।

जो मनुष्य इस अवस्था में पहुँचने वाले हुनर का भेद जान लेता है, उसको परमात्मा मिल जाता है। अपहुँच, बेअंत परमपुरूष प्रभु के प्रकट होने का स्थान मनुष्य का दिमाग रूपी दसवाँ द्वार है। शरीर के ऊपरी हिस्से में शरीर मानों एक हटट हैं इस हटट में दिमाग मानों एक आला है, इस आले के द्वारा प्रभु का प्रकाश होता है। जिसके अन्दर परमात्मा प्रकट हो गया वह सदा जागता रहता है, सुचेत रहता है और माया की नींद में कभी भी नहीं सोता। वो एक ऐसी समाधि में टिका रहता है, जहां पर माया के तीनों गुण और तीनों लोकों की माया, दूर ही रहते हैं। वो मनुष्य परमात्मा का नाम अपने दिल में टिका कर रखता है। जिसकी बरकत से उसका मन माया से दूर हमेशा सुचेत रहता है, उस अवस्था में मन टिकने लगता है और कोई भी विचार नहीं उठता। वह मनुष्य सदा जागता है, सुचेत रहता है और कभी भी झूठ नहीं बोलता। पाँचों इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, सतिगुरू का उपदेश अपने मन में सम्भाल कर रखता है। अपना मन और अपना शरीर प्रभु के प्यार में अर्पित करता है। वो मनुष्य जगत को हाथों की अंगुलियाँ, वृक्ष की टहनियाँ और पत्ते समझता है। इसलिए वह मूल जड़ यानि मूल परमात्मा को छोड़कर इस खिलारे में पड़कर अपनी जिन्दगी जुए की खेल में नहीं गवाँता। विकारों की नींद का दरवाजा ही बन्द कर देता है और मन को अज्ञानता के अन्धेरे से दूर करके ज्ञान का सूर्य चढ़ाता है और सदा के लिए परमात्मा से मेल कर लेता है। मिलाप का उसके अन्दर एक चशमा फूट पड़ता है। वो एक ऐसी मौज में मस्त हो जाता है, जिसे कभी बुढ़ापा नहीं, भाव, जो कभी खत्म नहीं होती। प्रभु की जोत द्वारा उसके अन्दर मानो चार मुहों वाला दीवा प्रजवलित हो जाता है, जिसके द्वारा हर तरफ उजाला ही उजाला हो जाता है। उसके अन्दर मानो एक ऐसा फूल खिल जाता है, जिसके बीच में प्रभु रूप मकरंद यानि रस होता है और उसकी बेअंत पंखुड़ियाँ होती हैं। अनंत रचना वाला परमात्मा जिस मनुष्य के अन्दर प्रकट हो जाता है वो मनुष्य सारी ताकतों के मालिक परमात्मा को अपने अन्दर बसा लेता है, उसका मन मोती बनकर प्रभु के गुण रूपी रत्नों में जुड़ा रहता है। उस बंदे के धुर के अन्दर त्रिलोकी का मालिक प्रभु आ टिकता है। उसकी बरकत से उसके माथे पर मानों कमल का फूल खिल जाता है। उस फूल के चारों तरफ हीरे पिरोये होते हैं। उसके अन्दर मानों ऐसा सुन्दर राग होता है कि पाँचों किस्मों के सुन्दर साज बज पड़ते हैं। बहुत शँख बजने लग जाते हैं। उसके माथे पर चँवर झूलते हैं, भाव उसका मन शहँशाहों को शाह बन जाता है। सतिगुरू से मिला हुआ, प्रभु के नाम का यह उजाला कामादिक विकरों को मार मिटाता है। हे प्रभु ! बेणी, तेरा दास भी तेरे दर से तेरा नाम ही माँगता है।)

नोटः भक्त बाणी के विरोधी, भक्त बाणी को गुरबाणी गुरमति के उलट समझकर भक्त बेणी जी के बारे में ऐसे लिखते हैः आप जाति के ब्राहम्ण थे। जोग अभ्यास के पक्के श्रद्धालू थे, करमकांड की भी बहुत हिमायत करते थे। इसके आगे बेणी जी का रामकली राग वाला यह ऊपर लिखा हुआ शब्द देकर फिर लिखते हैं कि उक्त शब्द के अन्दर भक्त बेणी जी ने अनहद शब्द, निउली कर्म, योग अभ्यास का उपदेश देकर जोरदार शब्दों द्वारा मंडन किया है, क्योंकि भक्त बेणी जी योग अभ्यास और वैष्णव मत के पक्के श्रद्धालू थे। लेकिन साधसंगत जी आपको हम बता दें कि आपने इस शब्द का अर्थ तो पढ़ ही लिया है कि इस शब्द में निउली कर्म का कोई जिक्र नहीं हैं, इसमें तो केवल परमात्मा के साथ किस प्रकार से एकमिक हो सकते हैं और केवल परमात्मा का नाम ही जपना चाहिए, इसी बारें में उपदेश दिया गया है। भक्त की बाणी से दूर रखने के लिए भक्त की बाणी के विरोधी लोगों ने ऐसा लिखा है। साधसंगत जी इस प्रकार की किसी भी किताब पर विश्वास न करें और ऐसी किताबें जो बाणी के बारे में या किसी भक्त के बारे में ऐसा लिखती हैं, उन्हें न खरीदें। जैसा ही आप अर्थ में पढ़ चुके हैं कि योग अभ्यास का भी भक्त बेणी जी ने उपदेश नहीं किया है, बल्कि यह कहा है कि नाम जपने वाले को ऐसे बेवकूफी वाले कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं है और कहा है कि प्रभु मिलाप की अवस्था में त्रिवेणी स्नान और योग करने की क्या जरूरत है। उदाहरण के लिए हम श्री गुरू नानक देव जी की राग रामकली की असटपदी लेते हैं, उसमेः (वाजै अनहद, अलिपु गुफा महि रहहि निरारे, अनहद सबदु वजै, सुंन समाधि सहजि मनु राता। दिया है) तो यानि निन्दा करने वाला तो श्री गुरू नानक पातशाह जी को भी योग अभ्यास और वैष्णव मत का श्रद्धालु समझ लेगा। अगर वह निंदक इस शब्द को, जल्दबाजी छोड़कर, धीरज के साथ एक-एक लफ्ज़ को समझकर, पक्षपात से रहित होकर अगर शब्द को पढ़ेगा तो यह शब्द गुरमति सिंदान्त पर ही दिखाई देगा। भक्त जी तो इस शब्द की आखिरी तुक में भी केवल परमात्मा से नाम की दात ही माँग रहे हैं। परन्तु अफसोस इस बात का है कि निन्दा करने वाला कुराहे पर जा रहा है। वो निंदक भक्त बेणी जी के अन्य दो शब्दों जो कि राग सिरीराग और राग प्रभाती में हैं, उन्हें पेश किए बिना ही उनके बारे में ऐसे लिखता हैः इन दो शब्दों में भी गुरमति के किसी सिद्धान्त पर प्रकाश नहीं पड़ता। भक्त बेणी जी की बाणी गुरमति का कोई प्रचार नहीं करती, बल्कि गुरमति विरोधी है। इसका मतलब यह हुआ कि वह निंदक वास्तव में बहुत ही जल्दबाजी में है और ऐसा करके उसने यह बता दिया कि वह गुरूओं का दोषी भी है। साधसंगत जी आपको यह तो पता है कि गुरूबाणी, श्री गुरू अरजन देव पातशाह जी ने अपनी हजूरी में भाई गुरदास जी से लिखवाई थी और स्वयं गुरू जी ने इस गुरबाणी की ऐडिटिंग की थी और बाद में दमदमा साहिब वाले स्थान पर यानि श्री लिखानसर साहिब में श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी ने इसे दूबारा भाई मनी सिंघ जी से तब लिखवाया जब, धीरमल ने उन्हें गुरबाणी की असली प्रति देने के इन्कार कर दिया था। यानि ये निंदक तो गुरू जी को ही गल्त बता रहा है, मूर्ख कहीं का। राग सिरीराग और राग प्रभाती में आपने शब्द भी पढ़ लिया होगा और उसके अर्थ भी देख लिए होंगे। इन दोनों शब्दों में भी प्रभु के नाम के सिमरन पर जोर दिया गया है। अब क्या प्रभु के नाम के सिमरन के लिए प्रेरणा देना भी गुरमति के उलट है। लगता है कि इस निंदक ने विरोधता करने की कसम खाई है। लेकिन वह निंदक यह नहीं जानता कि गुरबाणी की विरोधता या निंदा करने वाला सड़क पर आ जाता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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