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भक्त त्रिलोचन जी (फाइल नम्बर-3)

ऐतराज नम्बर (3) का स्पष्टीकरणः
अब बाकी रहा इस बात का ऐतराज कि भक्त जी ने इस बाणी में कर्मों को प्रबल माना है तो विरोधी भाई साहिब जी हम आपको बता दें कि इस बारे में एक नहीं सैकड़ों प्रमाण गुरबाणी में मिलते हैं कि किए गए कर्मों के सँस्कार मिटाने के लिए केवल एक ही इलाज है, जरिया है और वह हैः परमात्मा का नाम सिमरन करना उसका नाम जपना। मिसाल के तौर पर देखोः

(1) नानक पइऐ किरति कमावणा कोइ न मेटणहारू ।।2।।17।। सलोक महला 1, सूही की वार मः 3
(2) नानक पइऐ किरति कमावदे मनमुखि दुखु पाइआ ।। पउड़ी 17, सारंग की वार
(3) पइऐ किरति कमावणा कहणा कछू न जाइ।।1।।4।। सलोक मः 3, वडहंस की वार
(4) पइऐ किरति कमावदे जिव राखहि तिवै रहंनि।।1।।12।। सलोक मः 3 बिलावल की वार

निष्कर्षः
1. भक्त त्रिलोचन जी की बाणी गुरमति के अनुकुल है।
2. गुरू साहिबान जी के आशे पर खरी उतरती है।
3. मनघंड़त कहानी के कारण हम सच्चाई को झूठला नहीं सकते।
4. भक्त त्रिलोचन जी ब्राहम्णों द्वारा बनाए गए भ्रमजालों की पोल पटटी खोल रहे हैं
5. इनकी आवाज को कमजोर करने के लिए उनके जीवन के साथ व्यर्थ और विरोधी कहानियाँ गड़ी जा सकती हैं।

सिरीरागु त्रिलोचन का ॥
माइआ मोहु मनि आगलड़ा प्राणी जरा मरणु भउ विसरि गइआ ॥
कुट्मबु देखि बिगसहि कमला जिउ पर घरि जोहहि कपट नरा ॥१॥
दूड़ा आइओहि जमहि तणा ॥
तिन आगलड़ै मै रहणु न जाइ ॥
कोई कोई साजणु आइ कहै ॥
मिलु मेरे बीठुला लै बाहड़ी वलाइ ॥
मिलु मेरे रमईआ मै लेहि छडाइ ॥१॥ रहाउ ॥
अनिक अनिक भोग राज बिसरे प्राणी संसार सागर पै अमरु भइआ ॥
माइआ मूठा चेतसि नाही जनमु गवाइओ आलसीआ ॥२॥
बिखम घोर पंथि चालणा प्राणी रवि ससि तह न प्रवेसं ॥
माइआ मोहु तब बिसरि गइआ जां तजीअले संसारं ॥३॥
आजु मेरै मनि प्रगटु भइआ है पेखीअले धरमराओ ॥
तह कर दल करनि महाबली तिन आगलड़ै मै रहणु न जाइ ॥४॥
जे को मूं उपदेसु करतु है ता वणि त्रिणि रतड़ा नाराइणा ॥
ऐ जी तूं आपे सभ किछु जाणदा बदति त्रिलोचनु रामईआ ॥५॥२॥ अंग 92

अर्थः हे प्राणी ! तेरे मन में माइआ का मोह बहुत जोरों पर है, तुझे यह डर नहीं रहा कि बुढापा आता है, मौत आती है। हे खोटे मनुष्य ! तूँ अपने परिवार को देखकर ऐसे खिलता है, जैसे कमल का फूल सूर्य को देखकर तूँ पराए घर में ताकता फिरता है।।1।। कोई विरला संत जन जगत में आकर ऐसे विनती करता है, हे प्रभू ! मूझे मिल, गले लगाकर मिल। हे मेरे राम ! मूझे मिल, मूझे माया के मोह से छुड़ा ले, जमदूत लगातार आ रहे हैं, उनके सामने मूझसे पल भर भी टिका नहीं जा सकेगा। हे प्राणी ! माया के अनेक भोगों के प्रताप के कारण तूँ प्रभू को भूला बैठा है और यह समझने लगा है तूँ माया के समुन्दर में सदा कायम रहेगा। हे आलसी मनुष्य ! तूँ अपना जन्म ऐसे ही गवाँ रहा है।।2।। हे प्राणी ! तूँ माया के मोह के ऐसे अन्धेरे राह पर चल रहा है, जहां पर ना सूर्य दखल दे सकता है और ना ही चन्द्रमाँ। भाव जहां पर तूझे न दिन को सुरत आती है और ना ही रात को। जब मरते समय सँसार को छोड़ेगा, तब तूँ माया का यह मोह छोड़ेगा ही, तो फिर अभी से क्यों नहीं छोड़ देता।।3।। कोई विरला संत जन कहता है कि मेरे मन में यह बात प्रत्यक्ष हो गई है कि माया में फसा रहा तो धर्मराज का मूँह देखना पड़ेगा। वहाँ पर बड़े-बड़े बलवानों को भी हाथों से यमदूत दण्ड देते हैं, मूझसे उनके आगे कोई दलील भी नहीं दी जा सकेगी।।4।। वैसे तो हे नारायण ! तूँ कभी चेते यानि याद नहीं आता, पर जब कोई गुरमुखि मूझे शिक्षा देता है, तो तूँ सभी तरफ व्यापक नज़र आने लगता है। हे राम जी ! तेरी तूँ ही जाने, त्रिलोचन की यही विनती है।।5।।2।। इस शबद का भाव: जीव माया के मोह में पूरी तरह से फँसे हुए हैं, किसी को ना तो मौत का भय है और ना ही परमात्मा का। पदार्थों के रसों में डूबे हुए यह समझते हैं कि कभी मरना ही नहीं है और मनुष्य जन्म ऐसे ही गवाँ रहे हैं। यह ख्याल नहीं आता कि एक दिन यह जगत छोड़ना ही पड़ेगा और इस मस्ती के कारण जमदूतों का दण्ड तो सहना नही पड़ेगा। पर हाँ, कोई विरले भाग्य वाले हैं जो इस अन्त समय को याद रखकर प्रभू के दर पर अरदास करते हैं और उसको मिलने के लिए बैचेन रहते हैं, ताँघते हैं।

गूजरी स्री त्रिलोचन जीउ के पदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
अंतरु मलि निरमलु नही कीना बाहरि भेख उदासी ॥
हिरदै कमलु घटि ब्रह्मु न चीन्हा काहे भइआ संनिआसी ॥१॥
भरमे भूली रे जै चंदा ॥
नही नही चीन्हिआ परमानंदा ॥१॥ रहाउ ॥
घरि घरि खाइआ पिंडु बधाइआ खिंथा मुंदा माइआ ॥
भूमि मसाण की भसम लगाई गुर बिनु ततु न पाइआ ॥२॥
काइ जपहु रे काइ तपहु रे काइ बिलोवहु पाणी ॥
लख चउरासीह जिन्हि उपाई सो सिमरहु निरबाणी ॥३॥
काइ कमंडलु कापड़ीआ रे अठसठि काइ फिराही ॥
बदति त्रिलोचनु सुनु रे प्राणी कण बिनु गाहु कि पाही ॥४॥१॥ अंग 525

अर्थः अगर किसी मनुष्य ने अपने अन्दर से मलीन मन को साफ नहीं किया, पर बाहर यानि शरीर पर साधूओं वाला भेष बना रखा है। अगर उसने अपने हिरदे रूपी कमल को नहीं परखा, अगर अपने अन्दर परमात्मा नहीं देखा तो सन्यास धारण करने का कोई लाभ नहीं।।1।। हे जे चंद ! सारी लोकाई किसी भूलेखे में पड़ी हुई है कि केवल फकीरी या साधु का भेष धारण करने से ही परमात्मा मिल जाता है, पर यह गल्त है, इस तरह से उस परमानंद प्रभू की समझ कभी भी नहीं आती।।1।। रहाउ।। जिस मनुष्य ने घर-घर से माँगकर टूकड़ा खा लिया, अपने शरीर को अच्छे से पाल लिया, गोदड़ी पहन ली, मुंद्रें भी पहन लीं, पर सब कुछ माया की खातिर ही किया, मसानों की धरती की राख भी बदन पर मल ली, पर अगर वह गुरू राह पर नहीं चला तो इस तरह तत्त की प्राप्ति नहीं होती।।2।। हे भाई ! क्यों जप करते हो ? क्यों तप साधते हो ? किसलिए पानी को रिड़कते हो ? क्योंकि हठ से किए गए सारे साधन तो केवल पानी रिड़कने के समान ही हैं और पानी रिड़कने से मक्खन प्राप्त नहीं होता। उस वासना रहित प्रभू को हर समय याद करो, जिसने चौरासी लाख जोनियों वाली सृष्टि पैदा की है।।3।। हे कापड़ीए ! हाथ में खप्पर पकड़ने का कोई लाभ नहीं। अठसठ तीर्थों पर भटकने का भी कोई लाभ नहीं। त्रिलोचन कहते हैं, हे बंदे ! सुन, अगर फलीयों में अन्न के दानें ना हो तो उसे आगे खाने का कोई लाभ नहीं।।4।।1।।

अंति कालि जो लछमी सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
सर्प जोनि वलि वलि अउतरै ॥१॥
अरी बाई गोबिद नामु मति बीसरै ॥ रहाउ ॥
अंति कालि जो इसत्री सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै ॥२॥
अंति कालि जो लड़िके सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
सूकर जोनि वलि वलि अउतरै ॥३॥
अंति कालि जो मंदर सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ॥४॥
अंति कालि नाराइणु सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥
बदति तिलोचनु ते नर मुकता पीत्मबरु वा के रिदै बसै ॥५॥२॥ अंग 526

अर्थः हे बहिन ! मेरे लिए अरदास कर कि मूझे कभी भी परमात्मा का नाम ना भूले और अंत समय में भी वो परमात्मा ही चेते यानि याद आए। जो मनुष्य मरते समय धन पदार्थ को याद करता है और इसी सोच में मर जाता है, वो बार-बार साँप की जूनी में जाता है।।1।। जो मनुष्य मरते समय अपनी स्त्री को या किसी स्त्री को ही याद करता है और इसी याद में वह प्राण त्याग देता है, तो वह बार-बार वेश्वा का जन्म लेता है।।2।। जो मनुष्य अंत समय में अपने पुत्रों की याद रखता है और पुत्रों को याद करते-करते ही मर जाता है, तो वह बार-बार सूअर की जूनी में जन्मता है।।3। जो मनुष्य आखिरी समय में अपने घर महल को याद रखता है और इसी याद में प्राण त्याग देता है तो वह बार-बार प्रेत बनता है।।4।। त्रिलोचन जी कहते हैं, जो मनुष्य अंत समय में परमात्मा को याद करता है और इस याद में टिका हुआ ही चोला त्यागता है यानि शरीर त्यागता है तो वो मनुष्य धन, स्त्री, पुत्र और घर आदि के मोह से आजाद हो जाता है और परमात्मा उसके दिल में आ बसता है।।5।।2।।

साधसंगत जी भक्त बाणी के विरोधी सज्जन ऊपर दिए दी गई बाणी के बारे में ऐतराज करते हैः
ऐतराज नम्बर (1)
यहाँ पर पुरातन मत के लेखों के अनुसार कर्मों पर विचार है। ("अंतर मलि निरमलु नहीं कीना" वाला शबद)
ऐतराज नम्बर (2) भक्त त्रिलोचन जी कैसे कह रहे हैं कि इस तरह करने वाला इस जूनी में जाएगा। ("अंति कालि जो लछमी सिमरै" वाला शबद)


स्पष्टीकरणः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः साधसंगत जी आप "अंतर मलि निरमलु नहीं कीना वाला शबद" ध्यान से पढ़कर देखों उसमें कर्मों के बारे में कोई जिक्र नहीं है। सारे ही शबद में भेष का खंडन किया गया है और परमात्मा के साथ जान पहचान करने पर जोर दिया गया है और यह गुरमति और गुरू साहिबान जी के आशे से मिलता है और गुरमति के अनुरूप ही है।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः

भक्त बाणी के विरोधी के अनुसार भक्त जी यह कैसे कह रहे हैं कि इस प्रकार से करने वाला इस तरह की जूनी में जाएगा। तो साधसंगत जी हम आपको बता दें कि यह बात तो बहुत ही सीधी साधी है। शायद भक्त बाणी के विरोधी ने यह ध्यान नहीं दिया कि भक्त त्रिलोचन जी आप ब्राहम्ण जाति के थे और इस शबद के जरिए हिन्दू जाति के लोगों को शिक्षा दे रहे हैं, क्योंकि हिन्दू धर्म के पुराणों और शास्त्रों वाले ख्याल ही कुदरती तौर पर प्रचलित थे। जूनियों में पड़ने के बारे में जो ख्याल आम हिन्दू जनता में चले हुए थे, उन्हीं का हवाला देकर भक्त त्रिलोचन जी समझा रहे हैं कि सारी उम्र धन, स्त्री, पुत्र और महल आदि के धंधों में ही इतना मग्न ना रहो कि मरते समय भी ध्यान इन्हीं में टिका रहे। ग्रहस्थ जीवन की जिम्मेदारियाँ इस तरीके के साथ निभाओ कि किरत कमाई करते हुए भी "अरी बाई, गोबिन्द नामु मति बीसरै" ताकि अंत समय में मन धन, स्त्री, पुत्र और महल माड़ियाँ आदि में भटकने के स्थान पर प्रभू चरणों में जुड़े।

इसलिए भक्त त्रिलोचन जी ने अपनी तरफ से कोई सोच नही रखी, बल्कि हिन्दू जनता में प्रचलित और चल रहे आम ख्यालों को उन्हीं के सामने रखकर उनको सही जीवन का रास्ता बता रहे है। लगता है कि भक्त बाणी के विरोधी ने जल्दबाजी में इस प्रकार का ऐतराज किया है। यह बात तो ठीक उसी प्रकार से है, जैसे मुस्लामानों को समझाने के लिए सतिगुरू श्री गुरू नानक देव जी ने नीचे लिखे सलोक के द्वारा उनमें प्रचलित ख्यालों का हवाला देकर परमात्मा के लेखों की बहियों का जिक्र किया है।

"नानक आखै रे मना, सुणीयै सिख सही।। लेखा रबु मंगेसीआ, बैठा कढि वही" ।।2।।13 सलोक महला 1, रामकली की वार महला 3 
निष्कर्षः

1. भक्त त्रिलोचन जी की बाणी गुरमति के अनुकुल है।
2. गुरू साहिबान जी के आशे पर खरी उतरती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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