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भक्त त्रिलोचन जी (फाइल नम्बर-2)

अर्थः (भक्त त्रिलोचन जी कहते हैं कि हे स्त्री ! परमात्मा को दोषी मत ठहराओ। दोष अपने कर्मों का है। जैसे हम कर्म करते हैं, बस वैसा ही फल पाते हैं। चन्द्रमाँ शिव के माथे में है, प्रतिदिन गँगा में स्नान करता है। उसी चन्द्रमाँ की कुल में श्री कृष्ण जी हुए हैं। पर चन्द्रमाँ ने इँद्र की सहायता की जो कामुक होकर गौतक की अर्द्धांगिनी से पाप कर बैठा, जिस कारण उसे गौतम ने श्राप दे दिया। आज भी चन्द्रमाँ पर दाग है। सूर्य की ओर देखो। वह सारे जगत को रौशनी देता है। दीये के समान है। अरूण उसका रथवान है। अरूण का भाई गरूड़, गरूड़ को पक्षियों का राजा माना जाता है। अरूण ने बींडे का पाँव तोड़कर लोहे की छड़ी पर मोड़ा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि अरूण पिंगला हो गया। शिव जी जी ओर देखो, वह अनेकों पापों को हरते हैं, लेकिन स्वयं तीर्थ स्थानों पर भटकते रहते हैं। सरस्वती पर ब्रहमा मुग्ध हो गए। शिव जी ने यह पाप जानकर ब्रहमा का सिर काट दिया, जिस कारण शिव जी पर ब्रहमा के वध का आरोप लगा। ब्रहमा का सिर उनकी हथेली पर चिपक गया। हाथ से उसे उतारने के लिए शिव को कपाल मोचन तीर्थ पर जाना पड़ा। हे भाग्यवान ! सागर को देखो। कितना बड़ा चौड़ा व गहरा है, इसी सागर में से अमृत, चन्द्रमाँ, कमला, लक्ष्मी, कल्पवृक्ष, धन्वन्तरि वैद्य आदि निकले। सब सागर से मिलते हैं पर देख लो कर्मों का फल खरा है। वह घटना इस प्रकार हैः कहते हैं कि अगस्त मुनि ने ब्रहम भोज किया। सागर को आमँत्रित किया परन्तु सागर अहँकार में आकर ब्रहम भोज पर न गया। क्रोधित होकर अगस्त मुनि ने सागर को पी लिया और फिर पेशाब द्वारा निकाला तो वह खारा हो गया। ओर सुनो ! हनुमान जी की बहुत चर्चा है। उन्होंने लँका को जलाया, रावण का राज्य उजाड़ा व सँजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों को बचाया। यह सब कुछ करने के बाद भी उन्हें जो मिला यह सब कर्मों का फल है। इसलिए इस झगड़ें में न पड़ो, केवल राम नाम का सुमिरन करो। सुमिरन करने से ही मनुष्य का कल्याण होगा।

नोटः भक्त त्रिलोचन जी जाति के ब्राहम्ण थे। ब्राहम्ण अपने आगूओं या पूर्वजों के द्वारा चलाई गई परपाटी के अनुसार अवतार पूजा को ही श्रेष्ठ भक्ति मान रहे थे और दान पुण्य, तीर्थ स्नान आदि कामों को ही पापों की निवृति और स्वर्ग आदि सुखों की प्राप्ति का साधन समझते थे। पर इस शबद के द्वारा भक्त जी ने इन दोंनों कामों का खण्डन किया है। जिन देवताओं और अवतारों की पूजा प्रचलित है, उनका जिक्र शबद के चारों बंदों में करके कहते हैः

1. आप विष्णु की (कृष्ण मूर्ति की) पूजा करते हो और गँगा में स्नान करने को पुण्य का काम समझते हो। पर आप यह भी बताते हो (हिन्दूओं में प्रचलित) कि अपनी स्त्री अहिल्या के संबंध में गौतम ने चन्द्रमाँ को दाग लगा दिया था, यह दाग चन्द्रमाँ के माथे पर उसके कुकर्म का कलँक है। नित गँगा का स्नान और विष्णु जी का कृष्ण रूप धारकर चन्द्रमाँ के कुल में जन्म लेने से भी चन्द्रमाँ के उस कलँक को आज तक दूर नहीं कर सका। अब बताओ कि गँगा के स्नान से और कृष्ण मूर्ति की पूजा करके आपके पाप के कुर्कम किस प्रकार से धूल जाएँगे ?

2. आप गरूड़ को पँछियों का राजा मानते हो और दशहरे वाले दिन उसका दर्शन करने के लिए दौड़ते-भागते फिरते हो, सूर्य को देवता मानकर सँग्रांद को उसकी पूजा करते हो। देखो, आप पिंगुले (अपँग) अरूण को सूर्य का रथवाही मानते हो और गरूड़ का रिश्तेदार समझते हो। अगर गरूड़ अपने रिश्तेदार का और सूर्य अपने रथवाही का पिंगुलापन (अपँगपन) दूर नहीं कर सका, तो यह दोनों आपका क्या सवाँरेंगे ?

3. आप एक टटीहरी के बच्चों की कहानी सुनाकर बताते हो कि टिटहरी के बच्चों को बहा ले जाने के अपराध में समुद्र आज तक खारा चला आ रहा है। पर साथ ही आप यह भी बताते हो समुन्दर में से चौहद (14) रत्न निकले थे, जिसमें से कामधेनु और कल्प वृक्ष भी था और समुन्दर में आप विष्णु जी का निवास भी बताते हो। पर अगर विष्णु जी कामधेनु और कल्प वृक्ष आज तक समुन्दर के अपराध का असर नहीं मिटा सके, समुन्दर का खारापन दूर नहीं कर सके तो आप इसी विष्णु जी की पूजा से किस लाभ की आशा रखते हो ? तुम पुण्य दान के आसरे स्वर्ग में पहुँचकर इसी कामधेनु और कल्पवृक्ष से मन की मूरादें कैसे पूरी करवा लोगे ?

4. आप श्री रामचन्द्र जी की मूर्ति की पूजा करते हो और फिर आप ही कहते हो, जो कि हिन्दू मत में प्रचलित है कि हनुमान जी को इनकी अटूट सेवा करने के बाद भी एक छोटी सी कच्छ ही मिली। क्या तुम श्री रामचँद्र जी को हनुमान से अधिक प्रसन्न कर लोगे ?

5. जिस शिव को बली देव समझकर मन्दिरों में टिकाए शिव की पूजा करते हो, और उसी के बारे में जो कि हिन्दू मत मे प्रचलित है, कहते हो कि जब ब्रहमा अपनी ही लड़की पर मोहित हो गया, तो शिव जी ने उसका एक सिर काट दिया, तो यह कटा हुआ सिर शिव जी के हाथ से जुड़ गया। शिव जी कई तीर्थों पर भटकते फिरे, किन्तु वो कटा हुआ सिर शिव जी के हाथ से उतरता ही नहीं था। अब बताओ, जो शिव आप ही इतने आतुर होकर दुखी हुए, आपका क्या सँवार लेंगे ?

भक्त त्रिलोचन जी अपनी पत्नी को समझाते हुए, अपनी अर्न्तआत्मा, जिन्द को सम्बोधित करके कहते हैं कि एक परमात्मा की भक्ति ही पिछले कूकर्मों के सँस्कार मिटाने में समर्थ है।

भक्त बाणी के विरोधी के इस बाणी पर ऐतराजः
भक्त बाणी का विरोधी इस बाणी के बारे में ऐसे लिखते है कि इस शबद में पुराणिक बातों को लिखकर कर्मों को प्रबल माना है, परन्तु शिव जी की जटाओं में गँगा का आना और चन्द्रमाँ का माथे पर होना और गरूड़ के ऊपर विष्णु जी की सवारी होना आदि बताया गया है। यह सभी ख्याल सृष्टि के नियम के बिल्कुल उलट हैं। और यह झगड़ा भक्त जी और उनकी स्त्री का है जो नाराइण की निंदा करती है। भक्त

बाणी के विरोधी के ऐतराजः
ऐतराज नम्बर (1) यह झगड़ा भक्त जी और उनकी स्त्री का है और जब परमात्मा उनके यहाँ पर रसोईया बनकर आ जाते हैं और फिर स्त्री द्वारा उनकी पड़ोसन से निन्दा करने पर चले जाते हैं तो उनकी स्त्री नाराइण की निंदा करती है और तब भक्त जी इस बाणी का उच्चारण करते हैं।
ऐतराज नम्बर (2) शबद में दिए गए ख्याल सृष्टि के नियम के विरूद्ध हैं।
ऐतराज नम्बर (3) भक्त त्रिलोचन जी ने कर्मों को प्रबल माना है।
साधसंगत जी अब सही स्पष्टीकरण भी देखेः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः परमात्मा के घर में रसोईया बनकर आने वाली कहानी मनघंडत है, जो कि इस शबद से पहले दी गई है और इसका इस शबद के साथ कोई मेल ही नहीं है। शबद में इस मनघंड़त कहानी का कोई जिक्र भी नहीं है। लोगों ने यह कहानी बना ली है। यह कहानी मानी नहीं जा सकती। बस ! इस कहानी को ना मानें।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः इस बाणी के अर्थ के नीचें दिए गए नोट को ध्यान से देखें। धार्मिक आगू और मूखी ब्राहम्णों द्वारा चलाई हुई पुराणिक कहानियों का हवाला देकर भक्त जी जो कि आप भी ब्राहम्ण थे। इन कहानियों को मानने वालों को समझा रहे हैं कि अवतार पूजा, मूर्ति पूजा और गँगा के स्नान आदि पिछले किए कर्मों के सँस्कार नहीं मिटा सकते। अगर पिछले बँधनों से मूक्ति चाहते हो तो एक परमात्मा का नाम जपो। यह विचार गुरमति से मिलता है। पूरानी कहानियाँ मानने वालों को उनकी कहानियों का हवाला देकर समझाना कोई बूरी बात नहीं है। गुरू साहिबान जी ने भी सैकड़ों स्थानों पर ऐसे हवाले दिए हैं। मिसाल के तौर पर देखो, रामकली जी वार महला 3, पउड़ी नम्बर 14, अंग नम्बर 953 सलोकु महला 1 कोः

सहंसह दान देहि इंद्र रोआइआ ।।
परस रामु रोवै घरि आइआ ।।

यहाँ पर कई पुराणिक कहानियाँ दी गई हैं। इन कहानियों को मानने वालों को इन्हीं कहानियों के द्वारा समझाया गया है कि किसी प्रकार गौतम ऋषि ने हजार भगों का दण्ड देकर, श्राप देकर इन्द्र का रूला दिया था, क्योंकि इन्द्र ने ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ धोखे से सँग किया था। इसी प्रकार परशुराम के पिता जमदगनी को सहस्त्रबाहू ने मार दिया था तो बदले की आग में परशुराम ने क्षत्रिय कुल का नाश करना शुरू कर दिया था, परन्तु जब श्री रामचँद्र जी ने अपने शस्त्र उठाए तो इनका बल खींच लिया था तो परशुराम रामचँद्र जी द्वारा अपना बल गवाँ देने पर घर आकर रोया था यानि इज्जत गँवाई थी। इस बाणी के द्वारा गुरू जी कहते हैं कि जो परमात्मा का नाम जपता है वो जिन्दगी की बाजी जीत कर जाता है और नाम के बिना अनेक किए गए काम जिन्दगी की बाजी नहीं जितवा सकते।
जो तरीका गुरू साहिब जी ने प्रयोग किया वो ही तरीका भक्त त्रिलोचन जी ने भी प्रयोग किया है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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