भक्त त्रिलोचन जी (फाइल नम्बर-1)
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जन्मः 1267 ईस्वी
जन्मः ग्राम बारसी, जिला शोलापुर, महाराष्ट्र
दोस्ताना संबंधः भक्त नामदेव जी के साथ
प्रसिद्धिः महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश
देह त्यागने का समयः 1335 ईस्वी
बाणी में योगदानः 4 शबद
व्यवसायः दुकान व्यवसाय के मालिक
आध्यात्मिक शिक्षाः परमात्मा ही एक ऐसा है जिसे जपने पर कर्मों का फल भी बदल
जाता है, उसे कोसना नहीं चाहिए कि परमात्मा ने ठीक नहीं किया। यह तो इन्सान के
अपने कर्म ही होते हैं, जो उसे भोगने हैं।
जातिः ब्राहम्ण
त्रिलोचन का शाब्दिक अर्थः तीन आँखें, जो भूत, वर्तमान
और भविष्य को एक साथ देख लें।
श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में अपनी बाणी द्वारा हमेशा-हमेशा के
लिए अमरता प्राप्त करने वाले भक्तों में भक्त त्रिलोचन आयु के काल अनुसार तीसरे
स्थान पर आते हैं। इनके जन्म के बारे में प्रमाणित समय 1267 ईस्वी है। इनके
माता-पिता या साँसारिक रिश्तेनाते का किसी भी प्रमाणिक स्रोत से कुछ नहीं पता चलता
लेकिन यह माना जाता है कि महाराष्ट्र राज्य के जिला शोलापुर के गाँव बारसी से इनके
जन्म का संबंध है। गुरबाणी एवँ भाई गुरदास जी के लेखन में भक्त नामदेव व त्रिलोचन
जी के दोस्ताना संबंधों के बारे में जिक्र मिलता है। गुरबाणी में यहाँ तक हवाला
मिलता है कि भक्त नामदेव के साथ से इन्हें अपने भीतर छिपी हुई परमात्म ज्योति का
अहसास हुआ, भाई गुरदास जी फरमाते हैः
दरसनु देखण नामदेव भलके उठि त्रिलोचन आवै ।।
भगत करनि मिलि दुइ जणे नामदेउ हरि चलितु सुणावै ।।
मेरी भी करि बेनती दरसनु देखां जे तिसु भावै ।।
ठाकुर जी नो पुछिओसु दरसनु किवै त्रिलोचन पावै ।।
हसि कै ठाकुर बोलिआ नामदेउ नो कहि समझावै ।।
हथि न आवै भेटु सो तुसि त्रिलोचन मै मुहि लावै ।।
हउ अधीनु हां भगत दे पहुंचि न हंघां भगती दावै ।।
होइ विचोला आणि मिलावै ।। (भाई गुरदास जी, वार 10)
अर्थः (भक्त नामदेव जी के दर्शन करने के लिए भक्त त्रिलोचन जी,
भक्त नामदेव जी के घर पर आया करते थे। दोंनो मिलकर हरि कीर्तन किया करते। कभी-कभी
नामदेव जी भक्तों को साखियाँ भी सुनाया करते। एक दिन भक्त त्रिलोचन जी ने भक्त
नामदेव जी से कहा कि वह प्रभु से विनती करें कि वह अपने दर्शन दें। भक्त नामदेव जी
परमात्मा से पूछा कि क्या भक्त त्रिलोचन भी किसी तरह आपके दर्शन कर सकता है, तो
परमात्मा जी मुस्कराकर बोले कि पूजा-पाठ से मैं प्रसन्न नहीं होता। मुझे प्रेम से
प्रसन्नता होती है। परन्तु अगर तुम कहते हो तो मैं दर्शन दे देता हूँ क्योंकि मैं
अपने भक्तों का कहा नहीं टाल सकता। इस प्रकार भाई गुरदास जी कहते हैं कि भक्त
नामदेव जी ने भक्त त्रिलोचन जी को प्रभु के दर्शन करवाए।)
मनघड़ंत कहानी
साधसंगत की यहाँ पर भक्त त्रिलोचन की के बारे में एक मनघड़ंत
काहानी के बारे में बता रहे हैं, जिसे कि भक्त त्रिलोचन जी की बाणी के साथ जोड़ दिया
गया है।
भक्त त्रिलोचन जी व भक्त नामदेव जी का आपस में अटूट प्रेम था।
आप जी ने भी ज्ञानेश्वर जी से ही दिक्षा ली हुई थी। आप जाति से वैश्य थे। आने-जाने
वाले अतिथियों की खूब सेवा करते तथा संतों को अधिक दान-पुन करते। भक्त नामदेव जी के
साथ आपका मिलना-जुलना काफी था। भक्त नामदेव जी ने आपके लिए प्रार्थना की थी। भक्त
त्रिलोचन जी के घर पर कोई सन्तान न थी। संतों का आना-जाना लगा रहता था। सारा कामकाज
उनकी धर्म पत्नी को स्वयं ही करना पड़ता। उन्होंने विचार किया कि यदि एक नौकर मिल
जाए तो संतों की अच्छी सेवा अच्छे तरीके से की जा सकती है। इसी विचार को लेकर वह
बाजार को निकले तो उनका मिलन किसी निर्धन पुरूष से हुआ। उसका चेहरा तंदुरूस्त तथा
आँखों में असीम चमक थी। परन्तु वस्त्र फटे हुए थे। देखते ही त्रिलोचन जी ने झिझकते
हुए प्रश्न कियाः क्यों भाई ! क्या तुम मेरे घर पर नौकर बनकर रहना चाहोगे ? उस
पुरूष ने कहाः जी हाँ ! मैं तो पहले से ही नौकरी की तलाश कर रहा हूँ परन्तु मेरी
शर्त कोई स्वीकार नहीं करता। भक्त त्रिलोचन जी ने कहाः कैसी शर्त ? बताओ तो सही।
पुरूष ने कहाः शर्त तो मेरी मामूली सी है। मैं रोटी-कपड़े के लिए नौकरी करता हूँ।
नकद राशि की कोई इच्छा नहीं रखता। परन्तु घर का कोई भी सदस्य किसी आस-पड़ोस में यह न
बताए कि मैं रोटी ज्यादा खाता हूँ या कम। सेवा जो कहोगे मैं अवश्य करूँगा। मैं सर्व
कार्य सम्पन्न हूँ। यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मैं आपके साथ चल पड़ता हूँ।
भक्त त्रिलोचन जी ने उसकी यह शर्त स्वीकार कर ली। यह जो सेवक था वास्तव में परमात्मा
आप ही उसका रूप धरकर आए थे। भक्त नामदेव जी के कहने पर वह दर्शन देने के लिए आए थे।
परमात्मा ने भक्त त्रिलोचन जी को अपना नाम अर्न्तयामी बताया। अर्न्तयामी घर आ गया।
घर के सभी कार्य उसे सौंप दिए गए। कार्य सौंपने से पहले त्रिलोचन जी ने अपनी
धर्मपत्नी से कहा कि देखो जी ! इस सेवक को कोई बुरा शब्द नहीं कहना। दूसरा यह जितनी
रोटी माँगे, उतनी देना। न ही टोकना और न ही किसी के आगे ज़ाहिर करना। संतों का
आवागमन लगा रहा। अर्न्तयामी महमानों की दिल से सेवा करता रहा। संत भी बहुत प्रसन्न
होकर जाते और अर्न्तयामी को भक्त का रूप कहते। सभी ऐसे ही महिमा करते रहे। चारों ओर
उसका यश गायन होने लगा। सेवा करते हुए ऐसे ही एक वर्ष बीत गया। एक दिन भक्त
त्रिलोचन जी की पत्नी पड़ोसन के पास जा बैठी। स्त्री जाति का आमतौर पर यह स्वभाव होता
है कि वह बातों को ज्यादा छिपा नहीं सकतीं। वह एक-दूसरे की बातों को जानने में बहुत
दिलचस्पी रखती हैं।
इस स्वभाव अनुसार त्रिलोचन जी की पत्नी से उसकी पड़ोसन ने पूछाः
बहिन सच बताओ तुम उदास सी क्यों रहती हो ? चेहरे पर जो लाली थी वह कहाँ चली गई ?
तुम्हारा तो रँग ही पीला पड़ गया है ? त्रिलोचन की पत्नी को ज्ञान न हुआ कि वास्तव
में उसके घर में प्रभु बैठे हैं। वह अपनी तरफ से उस पुरूष (अर्न्तयामी) से छिपकर
बातें कर रही थी। परन्तु वह पुरूष तो वास्तव में अर्न्तयामी था। वह कहने लगीः बहिन
मैं क्या बताऊँ एक तो दिनों दिन बुढ़ापा आ रहा है, दूसरा संतों की गिनती प्रतिदिन
बढ़ती ही जा रही है। गेहूँ पीसकर पकाना पड़ता है। तीसरा यह जो सेवक है...........यह
बात बोलते-बोलते वह रूक गई। पड़ोसन ने कहाः बहिन ! क्या हुआ ? रूक क्यों गई ? बताओ
तो सही ! दुख बाँटने से कम होता है, बोलो। भक्त त्रिलोचन जी की पत्नी बोलीः बहिन !
बात यह है कि मुझे इस बात का वर्णन करने से प्रतिबंधित किया गया है। पर मैं तुम्हें
बहिन मानकर बता रही हूँ। तुम आगे किसी से कुछ मत कहना। बात ऐसे है कि यह जो सेवक रखा
है न, पता नहीं इसका पेट है या कुँआ। उसका पेट भरता ही नहीं। मैं पकाती हुई उकता गई
हूँ। भक्त जी उससे कुछ कहते ही नहीं, मैं परेशान हूँ। ऊपर से बुढ़ापा आ रहा है। वह
तो घर उजाड़ने जा रहे हैं। यदि चार पैसे न रहें तो कल को क्या खाएँगे। रात-दिन संतों
की सेवा करते रहते हैं। पड़ोसन ने कहाः बहिन ! यह तो भक्त त्रिलोचन जी भूल कर रहे
हैं। उस पुरूष को घर से निकाल देना चाहिए। भक्त त्रिलोचन जी की पत्नी काफी समय तक
पड़ोसन के समीप बैठी रही। दाल पकाना भूल गई। उसका ख्याल था कि सेवक बना देगा। सेवक
तो वास्तव में ही अर्न्तयामी था। उसने सारे वार्तालाप को सुन लिया था। अपनी निंदा
सुनते ही वह घर छोड़कर चला गया। घर सूना छोड़ गया। वह अलोप होकर अपने असली रूप में आ
गया। घर लौटते ही त्रिलोचन जी की पत्नी ने देखा कि सभी दरवाजे खुले हैं तथा सेवक जा
चुका था। वह घर से कभी नहीं निकलता था। अनेंकों बार पुकारा, अन्दर बाहर देखा परन्तु
वह कहीं नहीं मिला। उसने भक्त त्रिलोचन जी से पूछा कि सेवक कहाँ है। भक्त त्रिलोचन
जी जान गए कि उनकी पत्नी से भूल हुई है। अर्न्तयामी की निंदा कर दी होगी। इसलिए वह
चला गया। कई दिन वह उस सेवक का ढूँढते रहे परन्तु असफल रहे। एक दिन भक्त त्रिलोचन
जी सोते हुए आवाज आई यानि वाणी हुई कि भक्त त्रिलोचन जी ! तुम्हारा सेवक अर्न्तयामी
वास्तव में अर्न्तयामी परमात्मा ही थे, जो तुम्हें दर्शन देने के लिए आए थे। यह
सुनकर भक्त त्रिलोचन जी काँप उठे। असीमित पश्चाताप से उनका दिल अनुकँपित हो उठा। वह
अपनी पत्नी को कहने लगेः तुमने यह ठीक नहीं किया। प्रभु सेवक के रूप में हमारे घर
आए थे और तुमने दो सेर आटे के बदले में उनका अपमान किया। यह सब कुछ उसी का दिया हुआ
है। यह सुनकर पत्नी विलाप करने लगीः कि हे प्रभु ! आप तो सारी उम्र उनसे नाराज ही
रहे। हमें कोई संतान नहीं प्रदान की जो बुढ़ापे में हमारी सहायता करे। अब जब नौकर
दिया तो वह भी न टिका। मैं ही भाग्यहीन हूँ। विधाता ने मेरे कर्म बुरे लिखे हैं। यह
सुनकर भक्त त्रिलोचन जी ने बाणी द्वारा अपनी पत्नी को समझाने का प्रयत्न कियाः
नोटः इस मनघड़ंत कहानी को भक्त त्रिलोचन जी की बाणी के
साथ नहीं जोड़ा जा सकता। आप बाणी और उसके अर्थ देखेः
धनासरी बाणी भगतां की त्रिलोचन ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी ॥ दुक्रितु सुक्रितु थारो करमु री ॥१॥ रहाउ ॥
संकरा मसतकि बसता सुरसरी इसनान रे ॥
कुल जन मधे मिल्यो सारग पान रे ॥
करम करि कलंकु मफीटसि री ॥१॥
बिस्व का दीपकु स्वामी ता चे रे सुआरथी पंखी राइ गरुड़ ता चे बाधवा ॥
करम करि अरुण पिंगुला री ॥२॥
अनिक पातिक हरता त्रिभवण नाथु री तीरथि तीरथि भ्रमता लहै न पारु री ॥
करम करि कपालु मफीटसि री ॥३॥
अमृत ससीअ धेन लछिमी कलपतर सिखरि सुनागर नदी चे नाथं ॥
करम करि खारु मफीटसि री ॥४॥
दाधीले लंका गड़ु उपाड़ीले रावण बणु सलि बिसलि आणि तोखीले हरी ॥
करम करि कछउटी मफीटसि री ॥५॥
पूरबलो क्रित करमु न मिटै री घर गेहणि ता चे मोहि जापीअले राम चे नामं ॥
बदति त्रिलोचन राम जी ॥६॥१॥ अंग 695