9. जैदेव जी की बाजुओं का स्वस्थ होना
राजा लक्ष्मण सैन पहले भी प्रभु का भय रखने वाले सज्जन पुरूषों में से था। वह
साधु-संतों, कवियों, रागियों अथवा विद्वानों का अत्यधिक आदर करता था। जब जैदेव जी
से उसने पूछा कि वह उसकी क्या सेवा करे तो उन्होंने आदेश दिया कि राजन आप अपना
भविष्य उज्जवल करने के लिए संत-साधुओं की सेवा और पुन-दान के अतिरिक्त प्रभु भक्ति
अति अनिवार्य है। इस उपदेश का पालन करते हुए राजा ने दान करना और साधुओं की सेवा
करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी सेवा की कि सारे राज्य में उनकी सराहना होने लगी।
दूर-दूर से लोग साधु वेश में आकर राजा से धन प्राप्त करने लगे। एक दिन वे डाकू,
जिन्होंने जैदेव जी के बाजू काटे थे, दरबार में उपस्थित हुए। उन्होंने ब्रहमचारी
साधुओं का भेष धारण किया हुआ था। श्री जैदेव जी ने डाकुओं को पहचान लिया और डाकुओं
ने उन्हें। पर दोनों में से किसी ने भी यह भेद प्रकट नहीं होने दिया। जैदेव जी ने
इसके विपरीत राजा से अनुरोध किया कि महाराज ! इन भक्तों की खूब सेवा कीजिए। जी भरकर
दान दीजिए। यह अति महान ब्रहमज्ञानी हैं। राजा ने इसे सच मान लिया। उसने उन साधुओं
की आवश्यकता से अधिक सेवा की। उन्हें धन भेंट किया और उनकी सुरक्षित यात्रा के लिए
आदमी भी भेजे। जब ठग साधु नगर से बाहर पहुँचे तो राजा के सेवकों ने पूछाः महात्मा
जी ! राजा ने आपकी बहुत सेवा की है। भक्त जैदेव जी ने भी राजा के समक्ष आपकी
अत्याधिक प्रशंसा और सराहना की है। आप कहाँ से आए हैं और आपका निवास कहाँ है। ठग
साधुओं ने उत्तर दियाः असल मामला यह है कि हम और जैदेव जगन्नाथपुरी के राजा के अधीन
सेवादार थे। यह जैदेव पंडित है। यह वजीर था। इससे एक अक्षम्य पाप हो गया जिसके
परिणामस्वरूप राजा ने इसे मृत्युदंड प्रदान किया। हमें यह आज्ञा दी गई कि इसे मारकर
कुएं में फेंक दिया जाए। करूणावश होकर हमने इसे जीवित छोड़ दिया और यह यहाँ पहुँच गया।
पुरानी जान पहचान हेतु उसने हमारी इतनी सेवा करवाई। प्रभु को झूठे, जूठे और निंदक
पुरूष नहीं भाते। उन ठग साधुओं को ईश्वर ने उचित दंड प्रदान करने का निश्चय किया।
उसी समय धरती फट गई ओर वे सब उसकी कोख में समा गए। धरती फिर अपने पहले रूप में आ गई।
इस चमत्कार के साक्षी, राजा के सेवक घबरा गए और भयभीत होकर वापिस लौट गए। जब
उन्होंने समस्त घटना का विवरण राजा का दिया तो उसने सच्चाई का बोध करने हेतु जैदेव
जी को बुलाकर सत्य जानना चाहा। वह तब और भी अचंभित हुआ जब उसने जैदेव जी के बाजुओं
को पूर्ण रूप से क्रियाशील पाया। हाथों की उंगलियों में भी कोई ऋटि न थी।
आश्चर्यचकित राजन को जैदेव ने प्रभु लीला की कथा सुनाई।