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7. गीत गोबिंद जगन्नाथपुरी के मंदिर में

जब गीत गोबिंद सम्पूर्ण हुआ तो उसकी दो प्रतिलिपियाँ बना लीं। एक प्रतिलिपी उन्होंने जगन्नाथपुरी के पुरखोतम मन्दिर में भेंट कर दी। उन्होंने पुस्तक के सभी गीतों को स्वयं मूर्ति के समक्ष गाया। उन गीतों की बहुत प्रशँसा होने लगी। जगन्नाथपुरी का बच्चा-बच्चा गीत गोबिंद के ही गीत गायन करने लगा। जगन्नाथपुरी का राजा ब्राहम्ण था। वह अपने आप को कवि और महा विद्वान गिनता था। जब उसने गीत गोबिंद की इतनी प्रशँसा सुनी तो उसके अंदर ईर्ष्या की ज्वाला भड़क उठी। उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह गीत गोबिंद जैसे ग्रंथ की रचना करेगा और उसका प्रचार करवाएगा। राजा ने गीत गोबिंद ग्रंथ तैयार किया और ब्राहम्णों को धन सम्पति का लालच देकर उन्हें उसका प्रचार करने के लिए प्रेरित किया। पर ब्राहम्ण नकली गीत गोबिंद का प्रचार करने का पाप अपने सिर पर नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने राजा को उत्तर दिया हे राजन ! इस प्रकार नहीं हो सकता कि हम स्वयं आप के ग्रंथ का प्रचार करें। हाँ, यह हो सकता है कि दोनों ग्रंथ श्री पुरूखोतम की हजूरी में रख दीजिए। वह जिस ग्रंथ को स्वीकार करें उसी का प्रचार हो। यदि वह दोनों को योग्य समझें तो दोनों का प्रचार होगा। राजा उनकी बात से सहमत था। उसने आदेश दिया कि प्रातः काल ही दोनों ग्रंथों को मंदिर में अर्पित किया जाए। सारे शहर में यह समाचार बिजली की तरह फैल गया कि जैदेव जी के गीत गोबिंद ग्रंथ का मुकाबला होगा। लोग यह विचित्र प्रतियोगिता देखने के लिए उत्साह से मन्दिर पहुँचे। राजा अपने वजीरों को लेकर पूरी शाही शान से वहाँ पहुँचा। उसे यह अभिमान था कि उसका गीत गोबिंद उत्तम है। दोनों ग्रंथों को पुरूखोतम की मूर्ति के समक्ष रख दिया गया। सभी लोग मन्दिर से बाहर हो गए। पुजारी पंडित ने मूर्ति के समक्ष प्रार्थना की कि हे भगवान ! यह दो ग्रंथ आपके चरणों में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। कृप्या जो ग्रंथ आपको स्वीकार है उसे आप समीप रख लीजिए और दूसरे को मन्दिर से निकाल दीजिए। हे प्रभु ! इस झगड़े की निवृत्ति करें। यह प्रार्थना करके मुख्य पुजारी भी बाहर आ गया। भीतर केवल रह गए दो ग्रंथ और मूर्ति। मन्दिर के पुजारी, राजा और नगर के साधारण लोग बड़ी तीव्र इच्छा से देख रहे थे कि भगवान किसके पक्ष में निर्णय देते हैं। चारों और मौत जैसा सन्नाटा था। उस शांति के वातावरण में लोगों ने एक विलक्ष्ण ध्वनि सुनी। उसके कुछ देर पश्चात उस मन्दिर की खिड़की में से सटाक करके एक ग्रंथ बाहर आया और उसके सभी पृष्ठ बिखर गए। लोगों ने खुशी से भगवान की जय-जयकार करते हुए उसके निर्णय का स्वागत किया। मुख्य पुजारी आगे बढ़ा और गिरे हुए ग्रंथ का निरीक्षण करते हुए ऐलान किया कि राम जनों ! सुन लो प्रभु ने राजा के लिखे ग्रंथ को ठुकरा दिया और जैदेव जी के गीत गोबिंद ग्रंथ को स्वीकारा है। लोग खुश हो गए परन्तु राजा शर्मसार हुआ। वह जानकार लोगों से आँख बचाता हुआ वह समुद्र की ओर चल पड़ा। उसने निश्चय किया कि वह प्राण त्याग देगा। लोगों के धिक्कार को सहन करने की बजाए वह मृत्यु से मित्रता करेगा। इस निश्चय से जब वह समुद्र के समीप पहुँचा।

तभी आकाशवाणी हुईः पहला पाप तूने ईर्ष्या करके किया था, अब दूसरा आत्मघात करके करने की अभिलाषा क्यों रखता है ? तुम्हारे ग्रंथ को इसलिए स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि ईर्ष्या की भावना को मन में मुख्य रखते हुए तुमने यह रचना की है। अभिमान को त्याग, मूर्खता को छोड़ दे। तेरे कुछ श्लोक जैदेव के ग्रंथ में विवरित हो जाएंगे और तेरा नाम अमर हो जाएगा। इस ग्रंथ को ऐसे ही समुद्र की भेंट कर दे। यह वचन सुनकर राजा के मन को धैर्य की प्राप्ति हुई और उस ग्रंथ को समुद्र को अर्पित करके मन्दिर की ओर कूच कर गया। उसने मन्दिर में पहुँचकर मूर्ति के समक्ष क्षमा याचना की और आजीवन कभी ईर्ष्या न करने की सौगंध ली। उसने यह भी प्रण किया कि जैदेव के गीत गोबिंद ग्रंथ में एक गीत वह निश्चय ही गाया करेगा। इस घटना से जैदेव जी की शोभा बहुत बढ़ गई। राजा ने जैदेव जी को बुलाकर सम्मानित किया और उसे बहुत सारा धन दे दिया। जैदेव जी जब उस धन को लेकर जा रहे थे तब एक भयानक घटना घटी। इस घटना का जिक्र अगले पाइण्ट में किया गया है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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