6. गीत गोबिंद की रचना
जैदेव जी का सँस्कृत में प्रसिद्ध ग्रंथ गीत गोबिंद है। इस ग्रंथ के अनेकों गीत आज
भी जगन्नाथुपरी के मन्दिरों में आरती के रूप में गाए जा रहे हैं। इस ग्रंथ में राधा
कृष्ण प्रीत का वर्णन किया गया है। जब जैदेव जी अभी जगन्नाथुपरी में ही थे तो एक
सुहावने वृक्ष के नीचे खड़े हुए उनकी आँखों के आगे झाँकी आई कि कृष्ण जी बाँसुरी बजा
रहे हैं। उनकी बाँसुरी की मधुर ध्वनि सुनकर राधा दौड़ी आई, जिसके साथ उनकी सखियाँ भी
थीं। श्री कृष्ण जी बाँसुरी बजाते रहे और राधा सखियों के संग नाचती रही। उस झलक को
देखकर राधा प्रीत पर आधारित एक श्लोक स्वयं ही उनके मुख से निकल गया जो गीत गोबिंद
का प्रथम श्लोक बना। वह श्लोक इस प्रकार हैः
मैं घर मधुर मंमबरी सुधामा तमाल द्रमै ।।
ईश्वर की कुपा से जैदेव जी का गृहस्थ जीवन अच्छा गुजर रहा था।
प्रभु के गुण गायन करने वाला जैदेव भूखा कैसे मर सकता था। बहुत सारे लोग दर्शन करने
आते, कीर्तन सुनते रहते और कुछ न कुछ चढ़ावा दे जाते। चढ़ावे से जैदेव जी के घर का
खर्च और आए हुए संतों का खर्च निकल जाता। निश्चिन्तता का जीवन व्यतीत करते हुए भक्त
जी गीत रचित करते रहे। जब वर्षा की ऋतु आई तो वहाँ जाने की बजाए घर में ही रहते। एक
दिन उन्होंने एक छंद की तीन तुकें रचित कर लीं पर चौथी पर अटक गए। इतने में उनकी
पत्नी पदमा ने आवाज दीः आकर भोजन कर लो। जैदेव जी सदैव पदमावती के वचन का पालन किया
करते थे। उन्होंने कहाः पदमा ! क्या बताऊँ, आज आधा चरण नहीं सूझ रहा। पदमा: पहले
भोजन कर लीजिए। फिर अवश्य उस पद की रचना हो जाएगी। क्या पता प्रभु की क्या इच्छा है
? पदमा की बात सुनकर जैदेव जी स्नान करने चले गए। पदमा ने ग्रंथ को उठाकर एक ओर
सुशोभित कर दिया। वह पूर्ण छंद यह थाः
सबल कमल गजनं मम रिदय रंजनं जनि तरतिरंग पर भागमू ।।
भण सम्रिण वाणि करावनि करण दयं सरस लस दलकत करागमू ।।
ममर गरल संडनं मम सिरसि खंडनं ।।.......................।।
अपने भक्तों की सहायता के लिए श्री कृष्ण स्वयं प्रस्तुत हुए।
उन्होंने जैदेव जी का रूप धारण कर लिया। घर में प्रवेश करते ही आवाज दीः पदमा !
गोबिंद ग्रंथ लाओ। पदमा यह सोचकर अचंभित हो गई कि स्वामी अर्द्ध रास्ते से ही वापिस
आए हैं। जब उसने पूछा तो श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया कि राह में पद सूझ गया। फिर
भूल जाएगा। पदमा स्वामी के आदेश का पालन करते हुए तुरन्त गंथ लेकर आ गई। लिखने वाली
चौकी पर स्थान ग्रहण करके कृष्ण जी ने इस प्रकार आधे चरण की रचना कीः दोहिमो पद पलव
मुरादम। इतना लिखने से कविता पूर्ण हो गई। भाई गुरदास जी फरमाते हैं:
प्रेम भगति जैदेव करि गीत गोविंद सहज धुनि गावै ।।
लीला चलित वखाणदा अंतरजामी ठाकुर भावै ।।
अखरू इकु न आवड़ै पुसतक बन्हि संधिया करि आवै ।।
गुण निधानु घरि आई कै भगत रूपि लिखि लेखु बणावै ।।
अखर पड़हि परतीत करि होइ विसमादु न अंगि समावै ।।
वेखै जाइ उजाड़ि विचि बिरखु इकु आचरजु सुहावै ।।
गीत गोविंद संपूरणो पति पति लिखिआ अंतु न पावै ।।
भगति हेति परगासु करि होइ दआलु मिलै गलि लावै ।।
संत अनंत न भेदु गणावै ।।10।। (भाई गुरदास जी, वार 10)
पद लिखने के पश्चात जैदेव जी के रूप में विराजमान कृष्ण जी ने
पदमा से कहा कि भोजन परोस दो। हम स्नान भोजन करने के बाद ही करेंगे। भोली पदमा ने
भोजन परोस दिया। भोजन खाकर वह प्रसन्नचित हो गए और हाथ धोकर प्रस्थान कर गए और
सामान सम्भालकर पदमा प्रथा अनुसार उस जूठे पत्ते पर भोजन करने लगी। उसने भोजन करना
प्रारम्भ ही किया था कि असली जैदेव जी आ गए। पदमा को भोजन करता हुआ देखकर वह अचंभित
हो गए कि आज उसने अपने नियम का उल्लंघन कैसे कर दिया। जैदेव को देखकर पदमा की हैरानी
की कोई सीमा न रही। उसका निवाला उसके हाथ से गिर गया। वह उठी और हाथ जोड़कर कहने लगी
कि स्वामी आप अगर अभी आ रहे हैं तो गीत गोविंद के अधूरे छंद को पूरा करने वाला कौन
था ? इसके पश्चात उसने सारी बात बता दी। sजैदेव जी जल्दी से पुस्तक देखने चले गए।
उन्होंने देखा कि पद पूर्ण अवस्था में था। वह पढ़कर अति प्रसन्न हुए और उनके मुख से
यह वचन निकले कि मेरे कृष्ण जी आए थे। पदमा तुमने तो कृष्ण जी के दर्शन कर लिए। यह
कहकर जैदेव जी पत्ते पर पड़ा हुआ जूठा भोजन ग्रहण करने लगे। पदमा ने उन्हें रोका कि
यह उसका जूठा भोजन है पर उत्साहित जैदेव जी को रोकना असंभव था। इसके पश्चात थोड़े
दिनों में ही गीत गोबिंद ग्रंथ सम्पूर्ण हो गया।