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4. तीर्थ यात्रा एंव देश का रटन

पक्षी पिंजरे में कैद रहने की अभिलाषा नहीं रखता, चाहे पिंजरा सोने का ही क्यों न हो। जै देव जी वैरागी हो गए। वह पक्षियों की भांति बंधनहीन आकाश में उड़ना चाहते थे। राजा के दरबार में कैदियों समान रहना उन्हों रास नहीं आया। एक दिन वह चुपचाप शहर छोड़कर चले गए। परन्तु किधर जाना है ? यह कुछ पता न था। वह चलते गए। रात और दिन कृष्ण और राधा की तस्वीर आँखों में, रसना पर उन्हीं का नाम। पशु-पक्षी एंव सारी वनस्पति उन्हीं की स्तुति करती प्रतीत होती। जै देव की आत्मा आवाज देती कि चल जगन्नाथ पुरी। वहाँ तेरी आवश्यकता है और प्रतीक्षा की जा रही है। रात को निर्मल आकाश के नीचे बसते तारों को देखकर कुदरत का गुणगान करते। एक दिन वह गीत गाते हुए गर्मी में चले जा रहे थे। रास्ता बहुत ही कठिन था एंव अगम था और पानी मिलना दूभर था। प्यास लगी पर ध्यान न देते हुए आग चलते गए। पहाड़ की चढ़ाई में गर्मी ने उन्हें बलहीन कर दिया। भूख और प्यास से शक्तिहीन होकर वह धरती पर गिर पड़े। तभी अचानक ही परमात्मा जी एक बालक का रूप धारण करके उनके पास पहुँच गए और बेहोश हो चुके जैदेव जी के मुख में दूध डाला और उन्हें पूर्ण चेतना में लेकर आए। जब जैदेव जी का होश आया तो उनके सामने एक आठ दस वर्ष का किसी ग्वाले का एक बालक खड़ा हुआ था। जै देव जी ने उस बालक से पूछा कि तू किसका पुत्र है और कहाँ रहता है। तब बालक ने वहीं एक तरफ इशारा करके कहा कि वह उन झोपड़ियों में रहता है। जब जैदेव जी ने उन झोपड़ियां की तरफ देखा तो उन्हें वहाँ पर कोई झोपड़ियाँ आदि दिखाई न दीं। जब जैदेव जी ने अपना मुख वापिस उस बालक की ओर किया तो वह बाल गायब हो चुका था। जैदेव जी इस आश्चर्य को देखकर बोले पड़े कि हे प्रभु ! हे दयालु ! हे कृपालु ! आप तो हमें दर्शन देकर लुप्त हो गए। आप धन्य हैं। मैं आपके क्या गुण गाऊँ। यह कहकर जै देव जी कृष्ण और परमात्मा के गुणगान गाते हुए आगे बढ़ने लगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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