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2. निरंजन ब्राहमण का पाप

माता पिता बच्चे को जन्म देते हैं पर कर्म नहीं देते। कई बार बच्चे के सुन्दर तन को देखकर उस का नाम सुन्दर रखा जाता है परन्तु उसकी आत्मा काली होती है। वह जगत के लिए बोझ होता है। केंदली का एक ब्राहम्ण निरंजन था। निरंजन का अर्थ होता है मल रहित अथवा माया रहित परन्तु निरंजन की आत्का मलिन थी। वह ब्राहम्ण होते हुए थी चंडालों वाले कार्य करता था। जै देव जी के पिता से उसकी मित्रता थी। जब उसे आभास हुआ कि जैदेव उपराम रहता है और माया मोह नहीं रखता, तो उसने उसके माता पिता की सम्पति बलपूर्वक अपने अधिकार में करने का षडयंत्र रचा। एक झूठा दस्तावेज तैयार करके वह जैदेव जी के समक्ष प्रस्तुत हुआ। जैदेव को वह कहने लगा कि बेटा जै देव ! यह देख तेरे माता पिता ने मेरे कर्ज चुकाने हैं। उस कर्ज को चुकाने हेतु यह घर और इसकी समस्त वस्तुएँ तूँ मेरे नाम लिख दे और इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दे। जैदेव हर प्रकार के छल कपट से वंचित था उसने हस्ताक्षर कर दिए परन्तु प्रभु की विचित्र लीला यह कि जैसे ही उसने हस्ताक्षर किए वैसे ही निरंजन के घर को आग लग गई। यह समाचार लेकर निरंजन की बेटी भागती हुई आई। समस्त गाँव में शोर मच गया कि निरंजन का घर जल रहा है। सभी स्त्री पुरूष उसके घर के आसपास एकत्रित हो गए और जल से अग्नि को वश में करने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु अग्नि से इतना भयानक रूप ले लिया था कि किसी प्रकार से वश में करना असंभव प्रतीत हो रहा था। समाचार सुनकर निरंजन व्यग्रता में अपने घर की ओर भागा। जब वह वहाँ पर पहुँचा तो वह दस्तावेज उसके हाथों में था पर घर की अग्नि ने उसे भस्म कर दिया। इससे पहले कि निरंजन को इस बात का ज्ञान होता तब तक वह दस्तावेज पूर्ण रूप से जल चुका था। आग का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा था कि इतने में जैदेव जी वहाँ पहुँचे। उनके चरणों की छोह प्राप्त करते ही धरती से ऐसी शीत लहर उत्पन्न हुई कि उसने आग को पूर्ण रूप से शांत कर दिया। इस चमत्कार को देखकर सभी अचम्भित रह गए। निरंजन जैवेव के चरणों में गिर पड़ा। उसने विनती की, बेटा मुझे क्षमा करो, मैं पापी हूँ। मैंने छल से ही कर्ज वसूल करना चाहा। मैंने तुम्हारे पिता से एक कौड़ी भी नहीं लेनी। मुझे क्षमा करो, आगे से मैं तुम्हारा सेवक रहूँगा। यह कहते हुए निरंजन की आँखों से आँसू बहने लगे। यह आँसूं दिखावे के नहीं बल्कि पछतावे के थे। यह उसकी पापी आत्मा को निर्मलता प्रदान करने वाले थे। जब जैदेव जी को निरंजन की इच्छा का ज्ञान हुआ तो वह मुस्कराकर बोले, चाचा ! यह घर द्वार में प्रसन्नता से तुम्हारे सपुर्द करता हूँ। मैं परदेस जा रहा हूँ, मेरा यहाँ मन नहीं ठहरता। मैं तीर्थ यात्रा करूगाँ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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