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जन्मः 1390 ईस्वी
जन्म स्थानः ग्राम सोहल थाठीयन, जिला अमृतसर साहिब
पिताः श्री मुकन्द राय जी
माताः माता जीवनी जी
पत्निः श्रीमती सुलखनी जी
पेशाः नाई
आध्यात्मिक गुरूः कबीर जी, रविदास जी और संत ज्ञानेश्वर जी
किस राजा के शाही नाई थेः बिदर के राजा के
गुरूबाणी में योगदानः एक शब्द
इनका शब्द किस अंग पर हैः अंग 695
इनका शब्द किस राग में हैः राग धनासरी
देह त्यागने का समयः 1440 ईस्वी

श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के अंग 695 पर राग धनासरी में भक्त सैण जी का एक शब्द अंकित है। भक्त सैण जी का प्रमाणित जन्म वर्ष 1390 ईस्वी है व अन्तिम समय 1440 ईस्वी माना जाता है। आप बिदर के राजा के शाही नाई थे और उस समय के प्रमुख संत ज्ञानेश्वर जी के परम सेवक थे। आप जी के परोपकारी स्वभाव तथा प्रभु के प्यारे के रूप में प्राप्त की हुई। हरमन-प्यारता का बहुत खूबसूरत चित्रण श्री गुरू ग्रँथ साहिब व भाई गुरदास जी की वारों में मिलता है। यह इस बात को रूपमान करती है कि प्रभु की कृपा के राह में जाति या जन्म का कोई अर्थ नहीं है, उसका परा होने के लिए समर्पण प्रमुख गुण है। गुरू अरजन पातशाह का महावाक्य हैः

जैदेव तिआगिओ अहमेव ।। नाई उधरिओ सैनु सेव ।। अंग 1192

सो स्पष्ट है कि भक्त जनों की इज्जत रखने वाला स्वयँ अकालपुरख है और वह इस कार्य को करने के लिए युगों-युगों से कार्यशील भी है। भक्त कबीर जी का प्रताप सुनकर दूसरा भक्त सैन हुआ। जो सुबह तो राजा की सेवा करता तथा रात को प्रभु की भक्ति। इनके बारे में भाई गुरदास जी फरमाते है कि भक्तों की महिमा बेअंत है। हजारों में, जिन्होंने प्रभु की भक्ति और जाप करके जगत मे यश कमाया है। ऐसे भक्तों में से विख्यात भक्त सैन जी भी हुए। वह एक राजा के पास नौकर थे।

सुणि परतापु कबीर दा दूजा सिखु होआ सैणु नाई ।।
प्रेम भगति राती करै भलकै राज दुआरै जाई ।।
आए संत पराहुणे कीरतनु होआ रैणि सबाई ।।
छडि न सकै संत जन राज दुआरि न सेव कमाई ।।
सैण रूपि हरि जाइ कै आइआ राणै नो रीझाई ।।
साध जनां नो विदा करि राज दुआरि गइआ सरमाई ।।
राणै दूरहूं सदि कै गलहुं कवाइ खोलि पैन्हाई ।।
वसि कीता हउं तुधु अजु बोलै राजा सुणै लुकाई ।।
परगटु करै भगति वडिआई ।।16।। (भाई गुरदास जी, वार 10)

जैसा कि बताया गया है कि सैण जी राजा के यहाँ नौकर थे। एक दिन वह राजा के महल में जा रहे थे कि रास्ते में संत मण्डली मिल गई संतों ने सारी रात कीर्तन करना था। सैन जी उन्हें अपने घर पर ले आए। सैन जी हरि कीर्तन में इतने मग्न हो गए कि राजा के पास जाने का ख्याल ही न रहा। जैसे जी कीर्तन की समाप्ति हुई, सैन जी को याद आया कि वह राजा की सेवा के लिए नहीं गए। उन्हें चिन्ता होने लगी कि राजा कहीं गुस्से में आकर उन्हें नौकरी से न निकाल दे। इसी चिंता में सारी रात आँखों में नींद न पड़ी। सुबह होते ही घबराते हुए राजा के पास जा पहुँचे। राजा अपने सिंहासन पर बैठा हुआ था। सैन जी ने क्षमा माँगने के लिए अपना शीश झुकाया परन्तु प्रभु तो स्वयं ही अपने भक्तों के रक्षक हैं। राजा ने सैन जी को अपने समीप बुलाया। इससे पहले सैन जी क्षमा माँगते, राजा बोलाः सैन ! मैं तुम्हारी सेवा से अति प्रसन्न हूँ। आज तुम्हारी सेवा बहुत ही सराहनीय थी। यह लो अपना पुरस्कार। यह कहते ही राजा ने अपने गले से सोने का हार उतारा तथा सैन जी के गले में डाल दिया। सैन जी को इस बात का बहुत आश्चर्य हुआ कि आखिर सेवा करने वह तो आए ही नहीं, तो कौन आया ? उसने हाथ जोड़कर कहाः हे राजा जी ! मेरे अन्न दाता जी ! मैं झूठ नहीं कहना चाहता। सत्य तो यह है कि मैं तो कल आया ही नहीं। यह कहकर सैन जी ने संत मण्डली के मिलन तथा रैण सबाई की सारी वार्ता सुनाई। सारी वार्तालाप सुनकर राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछाः क्या तुम सत्य कह रहे हो ? सैन जी ने कहाः जी महाराज ! बिलकुल सत्य, चाहें तो आप मेरे घर पर जाकर पूछ सकते हैं। राजा ने कहाः सैन ! जिस समय तुम आया करते थे, ठीक उसी समय तुम्हारा हमशक्ल आया। उसने मेरी बहुत सेवा की। पूरे दो घंटे मेरी मालिश की। प्रभु ने न जाने क्या खेल रचा है ! सैन जी ने कहाः महाराज ! मैं प्रभु के काम में व्यस्त था और प्रभु मेरा काम कर रहे थे। आप धन्य हो जो आपको प्रभु के दर्शन हो गए। उस दिन से राजा भक्त सैन जी का बहुत आदर और सत्कार करने लग गया। केवल सत्कार ही नहीं अपितु राजा के खानदान में आज तक नाई की सन्तान को गुरू कहकर पूजा जाता है। श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में श्री सैन जी का एक शब्द सम्मिलित किया गया हैः

धूप दीप घ्रित साजि आरती ॥ वारने जाउ कमला पती ॥१॥
मंगला हरि मंगला ॥ नित मंगलु राजा राम राइ को ॥१॥ रहाउ ॥
ऊतमु दीअरा निर्मल बाती ॥ तुहीं निरंजनु कमला पाती ॥२॥
रामा भगति रामानंदु जानै ॥ पूरन परमानंदु बखानै ॥३॥
मदन मूरति भै तारि गोबिंदे ॥ सैनु भणै भजु परमानंदे ॥४॥२॥ अंग 695

अर्थः (हे माया के मालिक प्रभु ! मैं आपके सदके जाता हूँ। तेरे पर वारी जाना बलिहारी जाना और सदके जाना ही दीये में घी या तेल डालकर तेरी आरती करने के बराबर है। हे हरी ! हे राजन ! हे राम ! तेरी मेहर से मेरे अन्दर सदा तेरे नाम का सिमरन और आनंद मंगल हो रहा है। हे कमलापती ! तूँ निरंजन ही मेरे लिए आरती करने के लिए सुन्दर अच्छा दीवा और साफ सुथरी वट है। जो मनुष्य सरब व्यापक परम आनंद रूप प्रभु के गुण गाता है, वह प्रभु की भक्ति की बरकत से उसके मिलाप का आनंद प्राप्त करता है। सैन जी कहते हैं कि हे मेरे मन ! उस परम आनंद परमात्मा का सिमरन कर, जो सुन्दर स्वरूप वाला है, जो सँसार के डरों से पार लँघाने वाला है और जो सारी सृष्टि की सार लेने वाला है।)

अति महत्वपूर्ण नोटः इस शब्द को गुरमति के उलट समझने का भुलेखा डालकर कुछ विरोधी सज्जन जी ने इस बारे ऐसे लिखा हैः "उक्त बाणी द्वारा भक्त जी ने अपने गुरू गोसाईं रामानंद जी के आगे आरती उतारी है क्योंकि मदन मूरति विष्णु जी हैं और भक्त जी पक्के वैष्णव थे। परन्तु गुरमति अन्दर "गगन मै थालु" वाले शब्द में भक्त जी वाली आरती का खण्डन है। दीवे सजाकर आरती करने वाले महा अज्ञानी बताए गए हैं। साथ में यह भी हुक्म है कि "किसन बिसन कबहूं न धिआऊ"। इस प्रकार से यह साबित हुआ कि भक्त सैन की बाणी गुरू आशे के पूरी तरह विरूद्ध है"। इस बाणी को गुरमति के विरूद्ध बताने वाले विरोधी सज्जन ने भक्त जी के बारे में तीन बातें बताई हैः

ऐतराज नम्बर (1): इस शब्द के जरिए भक्त सैन जी ने अपने गुरू रामानंद जी की आरती उतारी है।
ऐतराज नम्बर (2): भक्त सैन जी पक्के वैष्णव थे।
ऐतराज नम्बर (3): दीये सजाकर आरती करने वाला महा अज्ञानी है।
सही स्पष्टीकरणः परन्तु "अचरज" वाली और "हैरानी" वाली बात यह है कि इस शब्द (बाणी) में इन तीनों लक्ष्णों में से एक भी नहीं मिलता। साधसंगत जी आईऐ इसे विचार करके देखते हैः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः जिसकी वह उसतति कर रहे हैं, उसके लिए भक्त सैन जी ने यह लफ्ज़ प्रयोग किए हैः 'कमलापती', 'हरि', 'राजा राम', 'निरंजन', 'पूरन', 'परमानंद', 'मदन मूरति', 'भै तारि', और 'गोबिंद'। इन लफ्ज़ों में सैन जी के गुरू यानि रामानंद जी का कोई जिक्र नहीं है। ऐसे लगता की शक करने वाले सज्जन शब्द के तीसरे बंद में प्रयोग किए गए लफ्ज़ "रामानंद" के कारण गलती खा गए हैं। यह तुक हैः "राम भगति रामानंदु जानै ।। पूरन परमानंदु बखानै" ।।3।। और इसका अर्थ हैः जो मनुष्य सर्वव्यापक परम आनंद स्वरूप प्रभु के गुण गाता है, वो प्रभु की भक्ति की बरकत से उस राम के मिलाप का आनंद प्राप्त करता है। यहाँ पर रामानंद = (राम + आनंद) = परमात्मा के मेल का आनंद।

ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः लफ्ज़ "मदन मूरति" के प्रयोग करने पर विरोधी सज्जन उन्हें वैष्णव समझने की गल्ती कर रहे हैं। लफ्ज़ "मदन" का अर्थ हैः खुशी और हुलारा पैदा करने वाला।
ऐतराज नम्बर (3) का स्पष्टीकरणः शब्द के बंद नम्बर 1 और 2 से भक्त सैन जी को दीये सजाकर आरती करने वाला समझा गया है, पर वो तो कहते हैं कि हे कमलापती ! हे माया के मालिक प्रभु ! मैं आपके सदके जाता हूँ। तेरे पर वारी जाना बलिहारी जाना और सदके जाना ही दीये में घी या तेल डालकर तेरी आरती करने के बराबर है। मेरे लिए तो परमात्मा पर सदके जाना और उसकी तारीफ करना ही दीवा है, तेल है और आरती है।


निष्कर्षः अतः इस शब्द (बाणी) से यह साबित नहीं होता कि भक्त सैन जी की रचना गुरू आशे के विरूद्ध है। इसलिए यह रचना गुरू आशे के अनुसार ही है। किन्तु हमें यह समझ नहीं आता कि जब गुरबाणी की एडिटिंग स्वयं गुरू साहिब जी ने की थी, तो क्या ऐसे विरोधी अपना दिमाग किसी को किराए पर दे आए हैं, जो बिना बाणी को समझे, अपनी मनमुखी बुद्धि चला रहे हैं, बेवकूफ कहीं के।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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