जन्मः 1480 ईस्वी
जन्म स्थानः ग्राम काकोरी, लखनऊ के पास
गुरू का नामः सैयद मीर ईबराहिम जी (लेकिन साबित नहीं होता)
बाणी में क्या योगदानः दो शबद, राग सोरठ में, अंग 659 और 660 पर दर्ज
हैं।
जोती जोत कब समायेः 1573 ईस्वी
भक्त भीखन जी एक सूफी मुस्लमान हुए हैं। (लेकिन इनकी बाणी में लिखे गए
लफ्ज़ो से यह साबित नहीं होता कि वो एक मुस्लमानी घर में जन्में और पले)।
उनका जन्म काकोरी, जिला लखनऊ में हुआ। यह गुरू सैयद पीर जी के शिष्य
थे। (लेकिन साबित नहीं होता) उनके केवल दो शब्द श्री गुरू ग्रंथ साहिब
जी में सम्मिलित किए गए हैं। भक्त भीखन जी की बाणी गुरू ग्रँथ साहिब जी
के अंग 659 में दर्ज है। उनके दो शब्द राग सोरठ में है। बाणी के पहले
शब्द की मुख्य भावना बैराग है और दूसरे शब्द में बैराग, अंजन माहि
निरंजन के बाद अकालपुरख, परमात्मा की प्राप्ति की अवस्था का जिक्र है।
डा. तारन सिंह इन्हें अकबर के राज के समय पैदा हुए मानते हैं और आप
इस्लाम धर्म के सूफी प्रचारक थे एवँ इनका अन्तिम समय 1574 ईस्वी था।
भाई काहन सिँह नाभा इन्हें काकोरी का वसनीक और सूफी फकीर के रूप में
मान्यता देते हैं। मैकालिफ भी इसी धारणा को स्वीकार करता है। भक्त जी
का श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी में दर्ज शब्द इस प्रकार है। उनकी बाणी
में बहुत वैराग है। भक्त भीखण जी इसी प्रकार वैराग व भक्ति का उपदेश
करते रहे। उनका देहांत 1631 विक्रमी में हो गया।
नोट : साधसंगत की नीचे भक्त भीखन जी की बाणी के दो शबद और उनके
अर्थ दिए गए हैं यहाँ पर एक बात महत्वपूर्ण यह है कि भक्त बाणी के
विरोधी ने उनकी बाणी पर विरोध प्रकट किया है, तो हमने उसका सही
स्पष्टीकरण भी दिया है। अब आप ध्यान से पढ़ना। भक्त भीखन जी का पहला शबदः
रागु सोरठि बाणी भगत भीखन की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
नैनहु नीरु बहै तनु खीना भए केस दुध वानी ॥
रूधा कंठु सबदु नही उचरै अब किआ करहि परानी ॥१॥
राम राइ होहि बैद बनवारी ॥
अपने संतह लेहु उबारी ॥१॥ रहाउ ॥
माथे पीर सरीरि जलनि है करक करेजे माही ॥
ऐसी बेदन उपजि खरी भई वा का अउखधु नाही ॥२॥
हरि का नामु अमृत जलु निरमलु इहु अउखधु जगि सारा ॥
गुर परसादि कहै जनु भीखनु पावउ मोख दुआरा ॥३॥१॥ अंग 659
अर्थः (हे सुन्दर राम ! हे प्रभू ! अगर तूँ हकीम बनें तो तूँ अपने संतों
को बचा लेता है। भाव, तूँ आप ही हकीम बनकर अपने संतों को देह अधिआस यानि
देह मोह से देह के दुखों से उबार लेता है।।1।। रहाउ।। हे जीव ! बिरध
अवस्था यानि बुढ़ापे में कमजोर होने के कारण तेरी आँखों में से पानी बह
रहा है, तेरा शरीर ढीला हो गया है, तेरे बाल दूध जैसे सफेद हो गए हैं,
तेरा गला कफ से रूकने की वजह से बोल नहीं सकता, अभी भी तूँ क्या कर रहा
है ? भाव अब भी तूँ परमात्मा को क्यों याद नहीं करता ? तूँ शरीर के मोह
में फँसा हुआ है। तूँ अभी भी देह का मोह नहीं छोड़ता ? ।।1।। हे प्राणी
! बिरध यानि बुढ़ापे के कारण तेरे सिर में दर्द टिका रहता है, शरीर में
जलन रहती है, कलेजे में दर्द उठता है। किस-किस अंग की फिक्र करें ? सारे
ही जिस्म में बुढ़ापे का एक ऐसा रोग उठ बैठता है कि जिसका कोई इलाज नहीं
है, फिर भी इस शरीर से तेरा मोह नहीं मिटता।।2।। इस शरीरक मोह को मिटाने
का एक ही श्रेष्ठ इलाज जगत में है और वह है प्रभू का नाम रूपी अमृत,
परमात्मा का नाम रूप निरमल जल। दास भीखण जी कहते हैं कि अपने गुरू जी
की किरपा से मैंने यह नाम जपने का रास्ता ढूँढ लिया है, जिससे मैं
शरीरक मोह से मूक्ति पा गया हूँ।।3।।1।।)
भक्त भीखन जी का दूसरा शबदः
ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुंनि पदार्थु पाइआ ॥
अनिक जतन करि हिरदै राखिआ रतनु न छपै छपाइआ ॥१॥
हरि गुन कहते कहनु न जाई ॥ जैसे गूंगे की मिठिआई ॥१॥ रहाउ ॥
रसना रमत सुनत सुखु स्रवना चित चेते सुखु होई ॥
कहु भीखन दुइ नैन संतोखे जह देखां तह सोई ॥२॥२॥ अंग 659
अर्थः (परमात्मा का नाम एक ऐसा अमोलक पदार्थ है जो भाग्य से ही मिलता
है इस रतन को अगर अनेकों यत्न करके भी दिल में गुप्त रूप में रखें तो
भी छिपाए नहीं छिप सकता। जो परमात्मा के गुण गाता है, उसका रसास्वाद मन
की शान्ति तो केवल वो ही बता सकता है, जिस प्रकार से एक गूँगे ने मिठाई
खाई हो तो उसका स्वाद किसी और को पता नहीं लग सकता और गूँगा बता नहीं
सकता।।1।। रहाउ। परमात्मा का नाम रत्न जपते जीव को सारे सुख मिलते हैं,
सुनते हुए कानों को सुख मिलता है और चेतने से चित्त को सुख मिलता है।
हे भीखन ! तूँ भी कह कि मेरी दोनों आँखों को परमात्मा का नाम जपने से
ऐसी ठंडक मिली है कि मैं जिधर भी देखता हूँ, परमात्मा को ही देखता
हूँ।।2।।2।।)
नोटः भक्त बाणी के विरोधी, भक्त भीखन जी के बारे में यह लिखते हैः
ऐतराज नम्बर (1): भक्त भीखन जी सूफी मुस्लमान फकीरों में से थे।
इस्लाम छोड़कर जीव-अहिंसक साधूओं के साथ घूमते थे। इनकी रचना में इस्लामी
शरह का एक भी लफ्ज़ अभी भी प्रतीत नहीं होता। इनकी रचना हिन्दु बैरागी
साधूओं से मिलती है।
ऐतराज नम्बर (2): बूढ़ापे और मौत से घबराकर भीखन जी इस शबद के
द्वारा श्री कृष्ण जी के आगे विनती कर रहे हैं। जबकि गुरमति में मौत को
तो एक खेल की तरह माना गया है, इसलिए यह बाणी गुरमति के अनुकुल नहीं
है।
साधसंगत जी अब स्पष्टीकरण भी देख लेः
ऐतराज नम्बर (1) का स्पष्टीकरणः भक्त बाणी के विरोधी ने कहा है
कि आपकी रचना में इस्लामी शरह का एक भी लफ्ज़ अभी भी नहीं मिलता। वो तो
बाणी देखने के बाद हम भी कह सकते हैं कि कोई भी लफ्ज़ इस्लामी शरह का नहीं
है, किन्तु विरोधी ने यह क्यों लिखा कि कोई भी लफ्ज़ "अभी भी" इस्लामी
शरह का प्रतीत नहीं होता। यह अभी भी प्रतीत नहीं होता लिखा है, भक्त
बाणी के विरोधी ने केवल सच्चाई को छिपाने के लिए और भक्त जी के खिलाफ
घड़े हुए शक को पाठक के मन में टिकाने के लिए। यह बात तो सही है कि बाणी
में ऐसा कोई लफ्ज़ दिखाई नहीं देता कि वह मुस्लमानी घर में जन्में और पले
हों। लेकिन कोई लफ्ज़ ऐसा भी दिखाई नहीं देता, जिससे यह साबित हो सके कि
इनकी रचना हिन्दू बैरागी साधूओं से मिलती है, जैसा की भक्त बाणी के
विरोधी ने कहा है। साधसंगत जी आप सारे लफ्ज़ ध्यान से देखोः
'नैनु', 'नीरू', 'तनु', 'खीन', 'केस', 'दुधवानी', 'रूधा', 'कंठु', 'सबदु',
'उचरै', 'परानी', 'रामराइ', 'बैदु बनवारी', 'संतह', 'उबारी', 'माथे', 'पीर',
'जलनि', 'करक', 'कलेजे', 'बेदन', 'अउखधु', 'हरि का नाम', 'अंम्रित जलु',
'निरमल', 'जगि', 'परमादि', 'पावहि' और 'मोख दुआरा'।
इन लफ्ज़ों को देखकर यह कह सकते हैं कि भक्त भीखन जी मुस्लमान नहीं हैं,
पर यह कहाँ से ढूँढ लिया कि वो बैरागी साधू थे ? गुरू साहिब जी की अपनी
मुख वाक बाणी में यह सारे लफ्ज़ अनेकों बार आए हैं। पर कोई सिक्ख यह नहीं
कह सकता कि सतिगुरू जी की बाणी हिन्दू बैरागी साधूओं से मिलती है।
ऐतराज नम्बर (2) का स्पष्टीकरणः लफ्ज़ ''बनवारी'' का अर्थ विरोधी
ने "कृष्ण" किया है। पर बाकी की सारी बाणी की तरफ से आँखें बन्द नहीं
की जा सकतीं। लफ्ज़ ''बनवारी और रामराइ'' का अर्थ किसी भी प्राकर से
खींचने और घसीटने के बाद भी कृष्ण नहीं किया जा सकता। उस ''बनवारी'' के
लिए आखिरी के लफ्ज़ में ''हरि'' वरता गया है। विरोधी द्वारा यह भी कहना
कि भक्त भीखन जी बूढ़ापे और मौत से घबराकर विनती कर रहे हैं, ऐसा कहकर
तो विरोधी द्वारा भक्त की निरादरी की गई है और किसी भी गुरसिक्ख को यह
बात शोभा नहीं देती, फिर यहाँ तो श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में दर्ज
बाणी पर मजाक उड़ाकर लाखों श्रद्धालूओं के हिरदे जख्मी किए जा रहे हैं।
भीखन जी इस शबद के आखिरी में कहते हैः ''गुर परसादि कहै जनु भीखनु,
पावउ मोख दुआरा'', भाव सतिगुरू जी की कुपा से मैंने मुक्ति का रास्ता
खोज लिया है। वो कौनसा रास्ता है ? यह भी भक्त भीखन जी बताते हैः ''हरि
का नामु''। केवल परमात्मा का नाम ही मुक्ति के रास्ते पर ले जाता है।
क्या यह बात स्पष्ट नहीं हो जाती कि भक्त भीखन जी को किस रोग से मूक्ति
पाने का रास्ता गुरू द्वारा मिल गया है, जी हाँ आपने सही सोचा। माया के
रोग से मूक्ति पाने का रास्ता। और मौत तो हरेक को अपनी बारी आने पर आई
ही है। इसलिए यहाँ पर मौत या बूढ़ापे के कारण किसी घबराहट का जिक्र नहीं
है। इसकी बाबत तो वो आप ही कहते हैः ''वा का अउखधु नाही''। भक्त भीखन
जी दुनियों के लोगों को समझाते हुए कहते है कि बूढ़ापे के कारण शरीर में
अनेकों रोग आ टिकते है, तूँ शरीर के मोह में फँसकर जूती में टाँके लि (जिस
प्रकार से जूते कहीं से फट जाए तो हम उसमें टाँका लगवा लेते हैं, ऐसे
ही बूढ़ापे में कई रोग लग जाते है, तो क्या हम बाकी की बची हुई उम्र
केवल अपने शरीर के मोह में फँसकार यहाँ-वहाँ भटकते हुए हकीमों के पास
ही जाने में गुजार देंगे।) जगह-जगह पर ही भटकता ही फिरेगा क्या ? शरीरक
मोह से बचने का एक ही इलाज है कि गुरू की शरण में जाकर परमात्मा का नाम
सिमरो, जपो।
निष्कर्षः
1. लगता है कि भक्त बाणी के विरोधी ने इस "शबद" को ध्यान के साथ पढ़ा ही
नहीं है, अगर वह विरोधी इसे ध्यान से पढ़ते तो उन्हें लफ्ज़ ''बनवारी''
का अर्थ कृष्ण करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। भक्त भीखन जी का बनवारी
तो वो है, जिसे वोः ''जह देखा तह सोई'' कहते हैं, यानि परमात्मा, हरि।
2. भक्त भीखन जी की बाणी "गुरमति के अनुकुल" है और "गुरू साहिबान जी"
के आशे से भी मिलती है।
वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फतह।