36. पिर देखन की आस
किसी महापुरूष के वचन हैं:
फकीरा फकीरा दूर है, जिउं उची लंमी खजूर है ।।
चड़ जाए तां चूपे प्रेम रस डिग पए तां चकनाचुर है ।।
पीर फकीर और गुणों वाले पुरूष बचपन से लग्न से मेहनत, भक्ति करते
हैं। उनकी मेहनत सफल होती है तो उनकी शोभा बढ़ती है। शोभा बढ़ने से कइयों को इतना
अभिमान हो जाता है कि वह अपने गुरू, पीर, मालिक, करता-करतार को भूल जाते हैं। उनके
अन्दर “मैं“, “मेरी“ आ जाती है। शोभा से माया आती है या माया की तरफ ध्यान
केन्द्रित हो जाता है। कइयों को माया से वासना आ जाती है और काम वासना तँग करती है।
वह उन्हें वश में कर लेती है। वह भक्ति में कमजोर हो जाते हैं। भक्ति का रँग सदैव
रहना चाहिए, जब रँग नरम हो जाए तो समझो भक्ति में विध्न पड़ गया। वह फकीरी के शिखर
के नीचे आ गए और धीरे-धीरे खत्म हो गए। शोभा के विपरीत उनकी बदनामी होने लगती हे।
जो भक्ति (फकीरी) की चौथी मँजिल यानि ब्रहमज्ञान पर पहुँच जाते हैं वह ईश्वर को
भूलते नहीं, भक्ति नहीं छोड़ते और न ही अहँकार में आते हैं। फरीद जी भी ऐसे पहुँचे
हुए ब्रहमज्ञानी फकीर थे जिन्होंने बचपन से ही भक्ति शुरू कर दी। बुढ़ापे में भी
भक्ति को न छोड़ा, कठिन से कठिन तपस्या करते आए। धरती पर आसन रखते रहे। काल रूप कऊए
ने शरीर के माँस को खींच लिया। अंग-अंग में कमजोरी आ गई। मास लुप्त होता गया। उम्र
62 साल से ऊपर चली तो वो काल रूप कऊए को सम्बोधित करके कह रहे हैं:
कागा करंग ढंढोलिया सगला खाइआ मासु ।।
ए दुइ नैना मति छुहउ पिर देखण की आस ।।91।। अंग 1382
अर्थ– ऐ काल रूप कऊए ! तूने सारा मास खा लिया है। हड्डियाँ नजर
आ रही हैं। एक विनती है कि आँखों को चोंच मत मारना, नजर कायम रहे। एक आँख का और
दूसरी आत्मा का ध्यान रखना, क्योंकि मालिक प्रभू परमात्मा के दर्शनों की इच्छा अभी
पूर्ण रूप से कायम है। इस मनुष्य जीवन में जितने भी श्वाँस हैं वह मालिक की याद में
रहें। संगत के दर्शन होते रहें और उसके नाम की बँदगी होती रहे। यदि उस मालिक का
सिमरन नहीं करना, यदि इस सिर ने झुकना नहीं तो क्या लाभ इसका ?
जो सिरू साई ना निवै सो सिरू कीजै कांइ ।।
कुंने हेठि जलाईऐ बालण संदै थाइ ।।72।। अंग 1381
आपने इस्लाम की मर्यादा को निभाया, चाहे आप सर्व साँझे फकीर थे
और आपका उपदेश समस्त मानव जाति को बिना किसी भेदभाव के है। कहते है कि पाँचों वक्त
निमाज जरूरी है।
फरीद जी का शरीर वृद्ध हो गया। उसमें समर्थता न रही, फिर भी साहस से कहते हैं:
उठु फरीदा उजू साजि सुबह निवाज गुजारि ।।
जो सिरू सांई ना निवै सो सिरू कपि उतारि ।।71।। अंग 1381
अर्थ: यदि मालिक की वन्दना और मालिक के आगे अरदास पर सिर नहीं
झुकाया, अहँकार में अकड़े रहे, विनम्रता धारण न की, इससे अच्छा है कि लकड़ी जलानें की
जगह सिर को ही चुल्हें में जला दिया जाए। हाथ मूँह धोकर सुबह की निमाज पूरी कर।
कितना हौंसला और बँदगी का उत्साह है। फरीद जी के समय ईसा की 13 वीं सदी में सामाजिक
और राजसी ढाँचा बिगड़ने लगा, मानव कर्म और स्वभाव भी नीचा हो गया। मजहब के नाम पर
सरकारें मनुष्यों को लड़ाती हैं। मजहबों की टक्कर होती थी और इसके साथ ऊँच-नीच
जात-पात का जोर बढ़ गया। मलेछ और काफिर दो बड़े शब्द थे। उस समय सँसार पर गुलामी का
भयानक दौर था। नफरत और घृणा थी। गुलामों से पशुओं जैसे काम लिया जाता था। ईश्वर के
बँदे यह सुनकर सह न पाते। वह ऊँची आवाज में कहते:
फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि ।।
मंदा किस नो आखीऐ जां तिसु बिनु कोई नाहि ।।75।। अंग 1381
करता करतार (खालक) लोगों (खलकत) में बसता है और खलकत रब में बसती
है। दोनों एक रूप हैं, इसलिए मँदा किसको कहें। दूसरा तो कोई है नहीं जो खलकत का करता
हो। फरीद जी संत मार्ग या भक्ति लहर के मुखी थे। आपके उपदेश से बहुत सारे लोग बुत
यानि मूर्ति पूजा छोड़कर इस्लाम में प्रवेश कर गए। पश्चिमी पँजाब के सारे जँगली लोग,
जो पहले सदियों से हिन्दू मत के पैरेकार थे, क्योंकि फरीद जी का उपदेश सीधा-साधा
प्यार और सेवा भाव वाला था। उनका यह भी उपदेश था कि जिस वसीले या वेश से परमात्मा
से मेल होता है वह कर लो।
जिन्ही वेसी सहु मिलै सेई वेस करेउ ।।